आज का श्लोक, ’सत्त्वम्’ / ’sattvam’
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’सत्त्वम्’ / ’sattvam’ - सार, मौलिक तत्त्व,
अध्याय 10, श्लोक 36,
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥
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(द्यूतम् छलयताम् अस्मि तेजः तेजस्विनाम् अहम् ।
जयः अस्मि व्यवसायः अस्मि सत्त्वम् सत्त्ववताम् अहम् ॥)
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भावार्थ :
छल करनेवालों में जुआ, और प्रभावशाली पुरुषों का तेज मैं हूँ, जीतनेवालों की विजय हूँ, संकल्पशीलों का संकल्प हूँ, एवं सात्त्विक प्रवृत्तिवाले पुरुषों की सात्त्विकता मैं हूँ ।
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अध्याय 10, श्लोक 41,
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
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(यत् यत् विभूतिमत् सत्त्वम् श्रीमत् ऊर्जितम् एव वा।
तत् तत् एव अवगच्छ त्वम् मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥)
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(तेजोंऽशसम्भवम् - तेजः अंश सम्भवम्)
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भावार्थ :
जो जो भी विशेषता युक्त, ऐश्वर्य से पूर्ण, और प्राणवान तत्त्व दिखलाई देता है, उस सभी को तुम मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुआ जानो ।
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अध्याय 13, श्लोक 26
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यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥
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(यावत् सञ्जायते किञ्चित् सत्त्वम् स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तत् विद्धि भरतर्षभ ॥)
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भावार्थ :
हे भरतर्षभ (अर्जुन)! जहाँ तक, जितना भी कुछ स्थावर और जंगम, व्यक्त रूप में अस्तित्व में आता है, वह सभी सत्त्व की ही अभिव्यक्ति है और इसलिए , क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उसको संभव जानो ।
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अध्याय 14, श्लोक 5,
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥
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(सत्त्वम् रजः तमः इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)! सत्त्वगुण, रजोगुण, एवं तमोगुण प्रकृति से उत्पन्न ये तीनों गुण अविनाशी स्वरूप वाले देही (चेतन-तत्त्व) को देह में बाँधते हैं ।
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अध्याय 14, श्लोक 6,
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयं ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥
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(तत्र सत्त्वम् निर्मलत्वात् प्रकाशकम् अनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन च अनघ ॥)
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भावार्थ :
हे अनघ (अर्जुन) ! (प्रकृति से उद्भूत तीन गुणों में से) सत्त्व उसमें निहित निर्मलत्व, प्रकाशकत्व, और शुचिता के कारण मनुष्य को सुख की भावना से बाँध देता है, ।
अर्थात् ’मैं सुखी रहूँ, -हो जाऊँ’ इस विचार अथवा कामना के रूप में बंधन बन जाता है ।
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अध्याय 14, श्लोक 9,
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्त्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥
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(सत्त्वम् सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयति उत ॥)
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भावार्थ :
(आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को आवृत्त कर) सत्त्वगुण तो चित्त को सुख में प्रवृत्त करता है, रजोगुण कर्म में प्रवृत्त करता है, तथा हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण ज्ञान को ढाँककर चित्त को प्रमाद में प्रवृत्त करता है ।)
टिप्पणी : इस प्रकार तीनों गुण आत्मा के स्वरूप को आवरित रखते हैं ।
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अध्याय 14, श्लोक 10,
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
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(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
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भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।
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अध्याय 14, श्लोक 11,
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥
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(सर्वद्वारेषु देहे अस्मिन् प्रकाशः उपजायते ।
ज्ञानम् यदा तदा विद्यात् विवृद्धम् सत्त्वम् इति उत ॥)
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भावार्थ : मन पर तीनों गुणों का प्रभाव निरन्तर पड़ता रहता है । पिछले श्लोक 10 में बतलाया गया कि किस प्रकार एक समय पर एक ही गुण शेष दो गुणों को दबाकर मन पर आधिपत्य कर लेता है । इस क्रम में जिस समय सत्त्वगुण प्रबल होता है देह के सभी द्वारों (मन तथा इन्द्रियों में) चेतनता, निर्मलता तथा नीरोगता (स्वास्थ्य, आरोग्य) का विस्तार होता है, क्योंकि जैसा इसी अध्याय के पूर्व श्लोक क्रमांक 6 में कहा गया, सत्त्वगुण जो कि सुख से बाँधता है, इन्हीं का कारक है । और चूँकि ये तीनों दशाएँ आत्मा की सहज स्वाभाविक अवस्था है, इसलिए मनुष्य को इनमें सुख की प्रतीति तथा फलस्वरूप तज्जनित सुख का आभास भी होता है । यह अवस्था सत्त्व की प्रबलता और प्रचुरता की द्योतक है ।
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अध्याय 17, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच :
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥
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(ये शास्त्रविधिम् उत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषाम् निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया -
जो लोग शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट विधि का, (उनसे अनभिज्ञ होने से, या परिस्थितियों के कारण) निर्वाह नहीं कर पाते, किन्तु श्रद्धा से युक्त होते हैं, उनकी निष्ठा को हे कृष्ण! सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक में से किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
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टिप्पणी :
कुछ लोगों की परम सत्ता में श्रद्धा तो होती है, किन्तु स्पष्टता न होने से उसकी उपासना कैसे करें इस बारे में उन्हें ठीक से निश्चय नहीं होता । दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो ऐसी किसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार तक नहीं करते, किन्तु वे भी अपने आप के एक चेतन-सत्ता होने के सहजतः प्रकट तथ्य को न तो अस्वीकार कर सकते हैं न असिद्ध कर सकते हैं । ऐसे लोगों की गति उनकी प्रकृति के अनुसार तय होती है । किन्तु जो लोग किसी ऐसी परम सत्ता पर सम्यक् चिन्तन से प्राप्त निश्चयपूर्वक या अन्तःप्रज्ञा से ही श्रद्धा रखते हैं और उन्हें लगता है कि वे उस परम सत्ता को ठीक से नहीं जानते, इसलिए उसको जानने या प्राप्त करने के लिए उसकी येन केन प्रकारेण उपासना करते हैं, वे भी अपनी प्रकृति के अनुसार उसकी कृपा के भागी होते हैं । आनेवाले श्लोक 2 में यही स्पष्ट किया गया है कि यह यह श्रद्धा भी पुनः प्रकृति के ही तीन गुणों के अनुसार सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक होती है । इन तीन गुणों या प्रकृतियों वाले मनुष्यों की उपासना विधि भी तीन प्रकार की होती है । किन्तु जो पूरी तरह अपनी प्रकृति से ही परिचालित होते हैं, जिन्हें न तो परम सत्ता और न ही अपने-आपके बारे में जानने समझने की कोई रुचि होती है, वे किसी इष्ट की उपासना क्यों करेंगे?
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अध्याय 18, श्लोक 40,
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
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(न तत्-अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वम् प्रकृतिजैः मुक्तम् यत् एभिः स्यात् त्रिभिः गुणैः ॥)
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भावार्थ :
पृथ्वी पर, आकाश में अथवा देवताओं में भी ऐसा कोई कहीं भी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले इन तीन गुणों (के प्रभाव) से मुक्त हो ।
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’सत्त्वम्’ / ’sattvam’ - essence, essential constituent,
Chapter 10, śloka 36,
dyūtaṃ chalayatāmasmi
tejastejasvināmaham |
jayo:'smi vyavasāyo:'smi
sattvaṃ sattvavatāmaham ||
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(dyūtam chalayatām asmi
tejaḥ tejasvinām aham |
jayaḥ asmi vyavasāyaḥ asmi
sattvam sattvavatām aham ||)
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Meaning :
I AM the gambling (betting) of the deceitful, splendor of the influential, I AM victory, effort / enterprise, and I AM the joy, peace of those who are of sāttvika temperament.
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Chapter 10, śloka 41,
yadyadvibhūtimatsattvaṃ
śrīmadūrjitameva vā|
tattadevāvagaccha tvaṃ
mama tejoṃ:'śasambhavam ||
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(yat yat vibhūtimat sattvam
śrīmat ūrjitam eva vā|
tat tat eva avagaccha tvam
mama tejoṃ:'śasambhavam ||)
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(tejoṃ:'śasambhavam - tejaḥ aṃśa sambhavam)
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Meaning :
Know well, whatever is glorius, resplendent, or powerful, that everything is born of a part of My own Splendor.
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Chapter 13, shloka 26,
yāvatsañjāyate kiñcit-
sattvaṃ sthāvarajaṅgamam |
kṣetrakṣetrajñasaṃyogāt-
tadviddhi bharatarṣabha ||
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(yāvat sañjāyate kiñcit
sattvam sthāvarajaṅgamam |
kṣetrakṣetrajñasaṃyogāt
tat viddhi bharatarṣabha ||)
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Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna) ! Whatever movable or not-moving comes into being and is seen as manifest, Know well, this essence is there because of the contact between the 'known' and the one who knows this 'known'.
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Chapter 14, śloka 5,
sattvaṃ rajastama iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahābāho
dehe dehinamavyayam ||
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(sattvam rajaḥ tamaḥ iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahā bāho
dehe dehinam avyayam ||)
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Meaning :
sattva, raja and tama, these three attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti) bind him to the body, to the one (the consciousness associated with the body), who takes himself as the body.
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Chapter 14, śloka 6,
tatra sattvaṃ nirmalatvāt-
prakāśakamanāmayaṃ |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena cānagha ||
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(tatra sattvam nirmalatvāt
prakāśakam anāmayam |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena ca anagha ||)
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Meaning :
There, O stainless / sinless (arjuna)! Because of the clarity, intelligence, and purity inherent in 'sattvam', this aspect of 'prakṛti' binds one with the 'sense of happiness'.
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Note :
There, (after 'Manifestation' has taken place, and the 3 latent aspects emerge out), 'harmony' or 'sattvaM' being of the nature of light and clarity, binds the 'self' ( the sense of being 'one' in the world, where-as others are 'many'), with the sense of happiness, and it stands to reason that the fundamental sense of being is happiness only. One wants to be happy by intrinsic urge. So, this is 'harmony' > sattvaM aspect of 'prakṛti'. With reference to the earlier shloka 5, of this chapter where 'prakRti' - the 'manifestation', is said to be the expression of the 3 aspects, / attributes, namely the 'sattva' > harmony, the 'rajas' > 'passion' / movement, and the 'tamas' > inertia. These 3 aspects are inherent in 'prakRti' which may be accepted as 'nature' also. The word 'nature' comes from 'naptR' / ’नप्तृ’ of Sanskrit, means the next, the word 'next' is again a distortion of naptṛ, ’नप्तृ’. 'naptā', नप्ता, नाती > grandson, 'nAtA', नाता > relation, are in Hindi. Then 'nephew', 'niece', 'nuptial', 'nepotism', 'nature', 'natal', are in English. The literal and etymological meaning of the Sanskrit word 'prakṛti' is 'modification'. The same ever-abiding essence, The Brahman, Which 'Manifests' in the form of 'prakṛti', and withdraws again to the original immanent substratum / support, source. If one can trace the etymological roots of English words, most of them reduce to some Sanskrit origin and then ’first-hand understanding’ of GitA or other Sanskrit texts will be much more rewarding, enlightening, fascinating and fulfilling, The joy so achieved will be just immense, indescribable. In comparison, when we read the 'translations' we usually get more and more baffled and confused, we tend to find-out a 'philosophy' which is just tiring and of no avail except perhaps in terms of a scholarly and academic reputation only.)
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Chapter 14, śloka 9,
sattvaṃ sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛttya tu tamaḥ
pramāde sañjayatyuta ||
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(sattvam sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛtya tu tamaḥ
pramāde sañjayati uta ||)
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Meaning :
bhArata (arjuna)! Driven by the attribute of harmony (sattvaṃ), the mind ( citta ) gets identified with joy and peace, driven by the attribute of passion (rajaḥ / rajas), the mind gets identified with action, and driven by the attribute of inertia (tamaḥ
/ tamas) the mind gets identified with sloth, idleness.
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Chapter 14, śloka 10,
rajastamaścābhibhūya
sattvaṃ bhavati bhārata |
rajaḥ sattvaṃ tamaścaiva
tamaḥ sattvaṃ rajastathā ||
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(rajaḥ tamaḥ ca abhibhūya
sattvam bhavati bhārata |
rajaḥ sattvam tamaḥ ca eva
tamaḥ sattvam rajaḥ tathā ||)
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Meaning : Overpowering rajoguṇa and tamoguṇa, satoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and tamoguṇa, rajoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and rajoguṇa tamoguṇa prevails.
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Chapter 14, śloka 11,
sarvadvāreṣu dehe:'smin-
prakāśa upajāyate |
jñānaṃ yadā tadā vidyād-
vivṛddhaṃ sattvamityuta ||
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(sarvadvāreṣu dehe asmin
prakāśaḥ upajāyate |
jñānam yadā tadā vidyāt
vivṛddham sattvam iti uta ||)
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Meaning :
Mind functions by the force, and under the influence of the three attributes (guṇa-s) of manifestation (prakṛti). As explained in the śloka 6 of this Chapter, 'sattvaguṇa' has the qualities of consciousness, harmony, joy, intelligence, clarity, purity and cleanliness, and absence of ill, when 'sattvaguṇa' predominates over the other two attributes (namely rajoguṇa and tamoguṇa,) one feels just happy and peaceful, content, which are the revelations of the nature of the essential Reality / Self. This further becomes 'experience' and the 'memory'. Thus 'sattvaguṇa' causes the sense of happiness. And as a consequence binds with 'pleasure'. This is again a bondage only, -not the freedom. When this happens, it is the indication of the preponderance of 'sattvaguṇa'.
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Chapter 17, śloka 1,
arjuna uvāca :
ye śāstravidhimutsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣāṃ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvamāho rajastamaḥ ||
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(ye śāstravidhim utsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣām niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvam āho rajaḥ tamaḥ ||)
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Meaning :
arjuna :
What kind of the conviction ( niṣṭhā) is of those, who are devoted ( śraddhayānvitāḥ) to the Supreme principle (that maintains this whole existence), but don't quite follow the specific injunctions as are laid down in the scriptures (just because of the circumstances).
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Chapter 18, śloka 40,
na tadasti pṛthivyāṃ vā
divi deveṣu vā punaḥ |
sattvaṃ prakṛtijairmuktaṃ
yadebhiḥ syāttribhirguṇaiḥ ||
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(na tat-asti pṛthivyām vā
divi deveṣu vā punaḥ |
sattavam prakṛtijaiḥ muktam
yat ebhiḥ syāt tribhiḥ guṇaiḥ ||)
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Meaning :
There is no such entity on the earth, in the sky or among the gods that is free from (unaffected by) these three attributes (guṇa-s) that are inherent in prakṛti / manifestation of the Supreme principle.
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’सत्त्वम्’ / ’sattvam’ - सार, मौलिक तत्त्व,
अध्याय 10, श्लोक 36,
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥
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(द्यूतम् छलयताम् अस्मि तेजः तेजस्विनाम् अहम् ।
जयः अस्मि व्यवसायः अस्मि सत्त्वम् सत्त्ववताम् अहम् ॥)
--
भावार्थ :
छल करनेवालों में जुआ, और प्रभावशाली पुरुषों का तेज मैं हूँ, जीतनेवालों की विजय हूँ, संकल्पशीलों का संकल्प हूँ, एवं सात्त्विक प्रवृत्तिवाले पुरुषों की सात्त्विकता मैं हूँ ।
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अध्याय 10, श्लोक 41,
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
--
(यत् यत् विभूतिमत् सत्त्वम् श्रीमत् ऊर्जितम् एव वा।
तत् तत् एव अवगच्छ त्वम् मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥)
--
(तेजोंऽशसम्भवम् - तेजः अंश सम्भवम्)
--
भावार्थ :
जो जो भी विशेषता युक्त, ऐश्वर्य से पूर्ण, और प्राणवान तत्त्व दिखलाई देता है, उस सभी को तुम मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुआ जानो ।
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अध्याय 13, श्लोक 26
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यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥
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(यावत् सञ्जायते किञ्चित् सत्त्वम् स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तत् विद्धि भरतर्षभ ॥)
--
भावार्थ :
हे भरतर्षभ (अर्जुन)! जहाँ तक, जितना भी कुछ स्थावर और जंगम, व्यक्त रूप में अस्तित्व में आता है, वह सभी सत्त्व की ही अभिव्यक्ति है और इसलिए , क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उसको संभव जानो ।
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अध्याय 14, श्लोक 5,
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥
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(सत्त्वम् रजः तमः इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)! सत्त्वगुण, रजोगुण, एवं तमोगुण प्रकृति से उत्पन्न ये तीनों गुण अविनाशी स्वरूप वाले देही (चेतन-तत्त्व) को देह में बाँधते हैं ।
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अध्याय 14, श्लोक 6,
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयं ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥
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(तत्र सत्त्वम् निर्मलत्वात् प्रकाशकम् अनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन च अनघ ॥)
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भावार्थ :
हे अनघ (अर्जुन) ! (प्रकृति से उद्भूत तीन गुणों में से) सत्त्व उसमें निहित निर्मलत्व, प्रकाशकत्व, और शुचिता के कारण मनुष्य को सुख की भावना से बाँध देता है, ।
अर्थात् ’मैं सुखी रहूँ, -हो जाऊँ’ इस विचार अथवा कामना के रूप में बंधन बन जाता है ।
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अध्याय 14, श्लोक 9,
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्त्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥
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(सत्त्वम् सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयति उत ॥)
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भावार्थ :
(आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को आवृत्त कर) सत्त्वगुण तो चित्त को सुख में प्रवृत्त करता है, रजोगुण कर्म में प्रवृत्त करता है, तथा हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण ज्ञान को ढाँककर चित्त को प्रमाद में प्रवृत्त करता है ।)
टिप्पणी : इस प्रकार तीनों गुण आत्मा के स्वरूप को आवरित रखते हैं ।
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अध्याय 14, श्लोक 10,
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
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(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
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भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।
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अध्याय 14, श्लोक 11,
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥
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(सर्वद्वारेषु देहे अस्मिन् प्रकाशः उपजायते ।
ज्ञानम् यदा तदा विद्यात् विवृद्धम् सत्त्वम् इति उत ॥)
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भावार्थ : मन पर तीनों गुणों का प्रभाव निरन्तर पड़ता रहता है । पिछले श्लोक 10 में बतलाया गया कि किस प्रकार एक समय पर एक ही गुण शेष दो गुणों को दबाकर मन पर आधिपत्य कर लेता है । इस क्रम में जिस समय सत्त्वगुण प्रबल होता है देह के सभी द्वारों (मन तथा इन्द्रियों में) चेतनता, निर्मलता तथा नीरोगता (स्वास्थ्य, आरोग्य) का विस्तार होता है, क्योंकि जैसा इसी अध्याय के पूर्व श्लोक क्रमांक 6 में कहा गया, सत्त्वगुण जो कि सुख से बाँधता है, इन्हीं का कारक है । और चूँकि ये तीनों दशाएँ आत्मा की सहज स्वाभाविक अवस्था है, इसलिए मनुष्य को इनमें सुख की प्रतीति तथा फलस्वरूप तज्जनित सुख का आभास भी होता है । यह अवस्था सत्त्व की प्रबलता और प्रचुरता की द्योतक है ।
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अध्याय 17, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच :
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥
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(ये शास्त्रविधिम् उत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषाम् निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया -
जो लोग शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट विधि का, (उनसे अनभिज्ञ होने से, या परिस्थितियों के कारण) निर्वाह नहीं कर पाते, किन्तु श्रद्धा से युक्त होते हैं, उनकी निष्ठा को हे कृष्ण! सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक में से किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
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टिप्पणी :
कुछ लोगों की परम सत्ता में श्रद्धा तो होती है, किन्तु स्पष्टता न होने से उसकी उपासना कैसे करें इस बारे में उन्हें ठीक से निश्चय नहीं होता । दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो ऐसी किसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार तक नहीं करते, किन्तु वे भी अपने आप के एक चेतन-सत्ता होने के सहजतः प्रकट तथ्य को न तो अस्वीकार कर सकते हैं न असिद्ध कर सकते हैं । ऐसे लोगों की गति उनकी प्रकृति के अनुसार तय होती है । किन्तु जो लोग किसी ऐसी परम सत्ता पर सम्यक् चिन्तन से प्राप्त निश्चयपूर्वक या अन्तःप्रज्ञा से ही श्रद्धा रखते हैं और उन्हें लगता है कि वे उस परम सत्ता को ठीक से नहीं जानते, इसलिए उसको जानने या प्राप्त करने के लिए उसकी येन केन प्रकारेण उपासना करते हैं, वे भी अपनी प्रकृति के अनुसार उसकी कृपा के भागी होते हैं । आनेवाले श्लोक 2 में यही स्पष्ट किया गया है कि यह यह श्रद्धा भी पुनः प्रकृति के ही तीन गुणों के अनुसार सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक होती है । इन तीन गुणों या प्रकृतियों वाले मनुष्यों की उपासना विधि भी तीन प्रकार की होती है । किन्तु जो पूरी तरह अपनी प्रकृति से ही परिचालित होते हैं, जिन्हें न तो परम सत्ता और न ही अपने-आपके बारे में जानने समझने की कोई रुचि होती है, वे किसी इष्ट की उपासना क्यों करेंगे?
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अध्याय 18, श्लोक 40,
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः ॥
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(न तत्-अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वम् प्रकृतिजैः मुक्तम् यत् एभिः स्यात् त्रिभिः गुणैः ॥)
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भावार्थ :
पृथ्वी पर, आकाश में अथवा देवताओं में भी ऐसा कोई कहीं भी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले इन तीन गुणों (के प्रभाव) से मुक्त हो ।
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’सत्त्वम्’ / ’sattvam’ - essence, essential constituent,
Chapter 10, śloka 36,
dyūtaṃ chalayatāmasmi
tejastejasvināmaham |
jayo:'smi vyavasāyo:'smi
sattvaṃ sattvavatāmaham ||
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(dyūtam chalayatām asmi
tejaḥ tejasvinām aham |
jayaḥ asmi vyavasāyaḥ asmi
sattvam sattvavatām aham ||)
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Meaning :
I AM the gambling (betting) of the deceitful, splendor of the influential, I AM victory, effort / enterprise, and I AM the joy, peace of those who are of sāttvika temperament.
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Chapter 10, śloka 41,
yadyadvibhūtimatsattvaṃ
śrīmadūrjitameva vā|
tattadevāvagaccha tvaṃ
mama tejoṃ:'śasambhavam ||
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(yat yat vibhūtimat sattvam
śrīmat ūrjitam eva vā|
tat tat eva avagaccha tvam
mama tejoṃ:'śasambhavam ||)
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(tejoṃ:'śasambhavam - tejaḥ aṃśa sambhavam)
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Meaning :
Know well, whatever is glorius, resplendent, or powerful, that everything is born of a part of My own Splendor.
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Chapter 13, shloka 26,
yāvatsañjāyate kiñcit-
sattvaṃ sthāvarajaṅgamam |
kṣetrakṣetrajñasaṃyogāt-
tadviddhi bharatarṣabha ||
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(yāvat sañjāyate kiñcit
sattvam sthāvarajaṅgamam |
kṣetrakṣetrajñasaṃyogāt
tat viddhi bharatarṣabha ||)
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Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna) ! Whatever movable or not-moving comes into being and is seen as manifest, Know well, this essence is there because of the contact between the 'known' and the one who knows this 'known'.
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Chapter 14, śloka 5,
sattvaṃ rajastama iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahābāho
dehe dehinamavyayam ||
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(sattvam rajaḥ tamaḥ iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahā bāho
dehe dehinam avyayam ||)
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Meaning :
sattva, raja and tama, these three attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti) bind him to the body, to the one (the consciousness associated with the body), who takes himself as the body.
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Chapter 14, śloka 6,
tatra sattvaṃ nirmalatvāt-
prakāśakamanāmayaṃ |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena cānagha ||
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(tatra sattvam nirmalatvāt
prakāśakam anāmayam |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena ca anagha ||)
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Meaning :
There, O stainless / sinless (arjuna)! Because of the clarity, intelligence, and purity inherent in 'sattvam', this aspect of 'prakṛti' binds one with the 'sense of happiness'.
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Note :
There, (after 'Manifestation' has taken place, and the 3 latent aspects emerge out), 'harmony' or 'sattvaM' being of the nature of light and clarity, binds the 'self' ( the sense of being 'one' in the world, where-as others are 'many'), with the sense of happiness, and it stands to reason that the fundamental sense of being is happiness only. One wants to be happy by intrinsic urge. So, this is 'harmony' > sattvaM aspect of 'prakṛti'. With reference to the earlier shloka 5, of this chapter where 'prakRti' - the 'manifestation', is said to be the expression of the 3 aspects, / attributes, namely the 'sattva' > harmony, the 'rajas' > 'passion' / movement, and the 'tamas' > inertia. These 3 aspects are inherent in 'prakRti' which may be accepted as 'nature' also. The word 'nature' comes from 'naptR' / ’नप्तृ’ of Sanskrit, means the next, the word 'next' is again a distortion of naptṛ, ’नप्तृ’. 'naptā', नप्ता, नाती > grandson, 'nAtA', नाता > relation, are in Hindi. Then 'nephew', 'niece', 'nuptial', 'nepotism', 'nature', 'natal', are in English. The literal and etymological meaning of the Sanskrit word 'prakṛti' is 'modification'. The same ever-abiding essence, The Brahman, Which 'Manifests' in the form of 'prakṛti', and withdraws again to the original immanent substratum / support, source. If one can trace the etymological roots of English words, most of them reduce to some Sanskrit origin and then ’first-hand understanding’ of GitA or other Sanskrit texts will be much more rewarding, enlightening, fascinating and fulfilling, The joy so achieved will be just immense, indescribable. In comparison, when we read the 'translations' we usually get more and more baffled and confused, we tend to find-out a 'philosophy' which is just tiring and of no avail except perhaps in terms of a scholarly and academic reputation only.)
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Chapter 14, śloka 9,
sattvaṃ sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛttya tu tamaḥ
pramāde sañjayatyuta ||
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(sattvam sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛtya tu tamaḥ
pramāde sañjayati uta ||)
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Meaning :
bhArata (arjuna)! Driven by the attribute of harmony (sattvaṃ), the mind ( citta ) gets identified with joy and peace, driven by the attribute of passion (rajaḥ / rajas), the mind gets identified with action, and driven by the attribute of inertia (tamaḥ
/ tamas) the mind gets identified with sloth, idleness.
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Chapter 14, śloka 10,
rajastamaścābhibhūya
sattvaṃ bhavati bhārata |
rajaḥ sattvaṃ tamaścaiva
tamaḥ sattvaṃ rajastathā ||
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(rajaḥ tamaḥ ca abhibhūya
sattvam bhavati bhārata |
rajaḥ sattvam tamaḥ ca eva
tamaḥ sattvam rajaḥ tathā ||)
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Meaning : Overpowering rajoguṇa and tamoguṇa, satoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and tamoguṇa, rajoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and rajoguṇa tamoguṇa prevails.
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Chapter 14, śloka 11,
sarvadvāreṣu dehe:'smin-
prakāśa upajāyate |
jñānaṃ yadā tadā vidyād-
vivṛddhaṃ sattvamityuta ||
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(sarvadvāreṣu dehe asmin
prakāśaḥ upajāyate |
jñānam yadā tadā vidyāt
vivṛddham sattvam iti uta ||)
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Meaning :
Mind functions by the force, and under the influence of the three attributes (guṇa-s) of manifestation (prakṛti). As explained in the śloka 6 of this Chapter, 'sattvaguṇa' has the qualities of consciousness, harmony, joy, intelligence, clarity, purity and cleanliness, and absence of ill, when 'sattvaguṇa' predominates over the other two attributes (namely rajoguṇa and tamoguṇa,) one feels just happy and peaceful, content, which are the revelations of the nature of the essential Reality / Self. This further becomes 'experience' and the 'memory'. Thus 'sattvaguṇa' causes the sense of happiness. And as a consequence binds with 'pleasure'. This is again a bondage only, -not the freedom. When this happens, it is the indication of the preponderance of 'sattvaguṇa'.
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Chapter 17, śloka 1,
arjuna uvāca :
ye śāstravidhimutsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣāṃ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvamāho rajastamaḥ ||
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(ye śāstravidhim utsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣām niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvam āho rajaḥ tamaḥ ||)
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Meaning :
arjuna :
What kind of the conviction ( niṣṭhā) is of those, who are devoted ( śraddhayānvitāḥ) to the Supreme principle (that maintains this whole existence), but don't quite follow the specific injunctions as are laid down in the scriptures (just because of the circumstances).
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Chapter 18, śloka 40,
na tadasti pṛthivyāṃ vā
divi deveṣu vā punaḥ |
sattvaṃ prakṛtijairmuktaṃ
yadebhiḥ syāttribhirguṇaiḥ ||
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(na tat-asti pṛthivyām vā
divi deveṣu vā punaḥ |
sattavam prakṛtijaiḥ muktam
yat ebhiḥ syāt tribhiḥ guṇaiḥ ||)
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Meaning :
There is no such entity on the earth, in the sky or among the gods that is free from (unaffected by) these three attributes (guṇa-s) that are inherent in prakṛti / manifestation of the Supreme principle.
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