Sunday, July 13, 2014

आज का श्लोक, ’सदा’ / ’sadā’

आज का श्लोक, ’सदा’ / ’sadā’
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’सदा’ / ’sadā’ - सतत, निरन्तर,

अध्याय 5, श्लोक 28,

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥
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(यतेन्द्रियमनोबुद्धिः मुनिः मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधः यः सदा मुक्तः एव सः॥)
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भावार्थ :
जो मुमुक्षु मुनि इन्द्रियों मन (अवधान) तथा बुद्धि (अर्थात् मन की प्रवृत्ति) को यत्नपूर्वक साधते हुए, इच्छा, भय तथा क्रोध से उनसे मुक्त रहता है, वह सदा ही मुक्त होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 15,

युञ्जनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थानमधिगच्छति ॥
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(युञ्जन् एवम् सदा आत्मानम् योगी नियतमानसः ।
शान्तिम् निर्वाणपरमाम् मत्संस्थाम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
आपने-आप को (अपने मन, चित्त को) सतत मुझमें संलग्न रखते हुए योगी इस प्रकार से मुझमें स्थित निर्वाणरूपी परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 28,

युञ्जनेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
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(युञ्जन् एवं सदा आत्मानम् योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम् अत्यन्तम् सुखम् अश्नुते ॥)
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भावार्थ :
पापरहित योगी अपने चित्त को निरन्तर उस ब्रह्म में संलग्न रखते हुए अनायास ही ब्रह्म के संस्पर्श के अनन्त आनन्द को अनुभव करने लगता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 6,
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यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
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(यम् यम् वा अपि स्मरन्-भावम् त्यजति-अन्ते कलेवरं ।
तं तं-एव-एति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥)
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अथवा (अर्थात् यह भी कहा जा सकता है कि), हे कौन्तेय अर्जुन! जिस जिस भी भाव को मनुष्य अपने अन्तकाल के आने पर स्मरण कर रहा होता है, देह को त्यागते समय वह उसी-उसी भाव को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वह उसी भाव से भावित हो रहा होता है ।
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अध्याय 10, श्लोक 17,

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥
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(कथम् विद्याम् अहम् योगिन् त्वाम् सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेन चिन्त्यः असि भगवन् मया ॥)
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भावार्थ :
हे योगेश्वर (श्रीकृष्ण)! मैं आपका निरन्तर चिन्तन किस विधि कर सकूँगा? हे भगवन्! आप किन किन भावों (रूपों) के माध्यम से आप मेरे लिए चिन्तन के लिए इष्ट हो सकते हैं ?  
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अध्याय 18, श्लोक 56,

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
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(सर्वकर्माणि अपि सदा कुर्वाणः मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतम् पदम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
मुझमें समाहित चित्त से सदैव सभी (विभिन्न) कर्मों को करते हुए भी (पिछले श्लोक 55 में वर्णित मेरा भक्त) मेरी कृपा से अविनाशी परम पद (अर्थात् मुझको ) पा लेता है ।
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’सदा’ / ’sadā’ - always, at all times,

Chapter 5, śloka 28,

yatendriyamanobuddhir-
munirmokṣaparāyaṇaḥ |
vigatecchābhayakrodho
yaḥ sadā mukta eva saḥ ||
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(yatendriyamanobuddhiḥ
muniḥ mokṣaparāyaṇaḥ |
vigatecchābhayakrodhaḥ
yaḥ sadā muktaḥ eva saḥ||)
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Meaning :
The seeker after liberation, who practices yoga by keeping the senses, mind and intellect together in order, one who is free from desire, fear and anger is already liberated in life, and for ever.
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Chapter 6, śloka 15,

yuñjanevaṃ sadātmānaṃ
yogī niyatamānasaḥ |
śāntiṃ nirvāṇaparamāṃ
matsaṃsthānamadhigacchati ||
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(yuñjan evam sadā ātmānam
yogī niyatamānasaḥ |
śāntim nirvāṇaparamām
matsaṃsthām adhigacchati ||)
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Meaning :
In this way a yogī, keeping himself (his mind and attention) always fixed in Me, attains the peace supreme of nirvāṇa, which has I AM the abode.
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Chapter 6, śloka 28,

yuñjanevaṃ sadātmānaṃ
yogī vigatakalmaṣaḥ |
sukhena brahmasaṃsparśam-
atyantaṃ sukhamaśnute ||
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(yuñjan evaṃ sadā ātmānam
yogī vigatakalmaṣaḥ |
sukhena brahmasaṃsparśam
atyantam sukham aśnute ||)
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Meaning :
Freed from the sins, the aspirant yogī fixing one's mind always upon the Self that is Reality only, easily attains the delight of the infinite bliss Which is That (Brahman).  
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Chapter 8, śloka 6,

yaṃ yaṃ vāpi smaranbhāvaṃ
tyajatyante kalevaram |
taṃ tamevaiti kaunteya
sadā tadbhāvabhāvitaḥ ||
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(yam yam vā api smaran-bhāvam
 tyajati-ante kalevaraṃ |
taṃ taṃ-eva-eti kaunteya
sadā tadbhāva bhāvitaḥ ||)
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Meaning :
O kaunteya (arjuna)! Whatever state of being one thinks of when one leaves the body, one attains the same after his death.
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Chapter 10, śloka 17,

kathaṃ vidyāmahaṃ yogiṃs-
tvāṃ sadā paricintayan |
keṣu keṣu ca bhāveṣu
cintyo:'si bhagavanmayā ||
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(katham vidyām aham yogin
tvām sadā paricintayan |
keṣu keṣu ca bhāveṣu
cintyaḥ asi bhagavan mayā ||)
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Meaning :
O yogin (Lord of yoga)! How should I be able to think of You always? What are Your various forms through which You are accessible to the devotee for contemplation?
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Chapter 18, śloka 56,

sarvakarmāṇyapi sadā 
kurvāṇo madvyapāśrayaḥ
matprasādādavāpnoti
śāśvataṃ padamavyayam ||
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(sarvakarmāṇi api sadā 
kurvāṇaḥ madvyapāśrayaḥ |
matprasādāt avāpnoti
śāśvatam padam avyayam ||)
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Meaning :
With mind dedicated to Me, performing all actions (that fall to his lot according to destiny) with dispassion, (My devotee, as described in the earlier śloka 55 of this Chapter 18) by My Grace attains the Supreme Imperishable State (That is Me only).
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