आज का श्लोक, ’सदृशम्’ / ’sadṛśam’
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’सदृशम्’ / ’sadṛśam’ - जैसा, समान,
अध्याय 3, श्लोक 33,
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥
--
(सदृशम् चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेः ज्ञानवान् अपि ।
प्रकृतिम् यान्ति भूतानि निग्रहम् किम् करिष्यति॥)
--
भावार्थ : ज्ञानवान पुरुष भी अपनी प्रकृति (जन्म-जात तीनों गुणों के मिश्रित प्रभाव से होनेवाली प्रेरणा) के अनुसार कार्य करने में प्रवृत्त होता है । समस्त प्राणी प्रकृति की ही ओर उन्मुख होकर तदनुसार व्यवहार करते हैं, उससे अन्य तरह का आचरण करने का हठ कोई कैसे कर सकता है?
--
अध्याय 4, श्लोक 38,
--
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
--
(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
--
भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
--
’सदृशम्’ / ’sadṛśam’ - according to,
Chapter 3, śloka 33,
sadṛśaṃ ceṣṭate svasyāḥ
prakṛterjñānavānapi |
prakṛtiṃ yānti bhūtāni
nigrahaḥ kiṃ kariṣyati ||
--
(sadṛśam ceṣṭate svasyāḥ
prakṛteḥ jñānavān api |
prakṛtim yānti bhūtāni
nigraham kim kariṣyati||)
--
Meaning :
Even the wise tend to perform actions according to their inherent natural tendencies (the inclinations as they have, prompted by the combined effects of the three attributes (guṇa) of manifestation ('prakṛti'). How can one, go against them?
--
Chapter 4, śloka 38,
na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tatsvayaṃ yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||
--
(na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tat svayam yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||)
--
Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
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’सदृशम्’ / ’sadṛśam’ - जैसा, समान,
अध्याय 3, श्लोक 33,
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥
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(सदृशम् चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेः ज्ञानवान् अपि ।
प्रकृतिम् यान्ति भूतानि निग्रहम् किम् करिष्यति॥)
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भावार्थ : ज्ञानवान पुरुष भी अपनी प्रकृति (जन्म-जात तीनों गुणों के मिश्रित प्रभाव से होनेवाली प्रेरणा) के अनुसार कार्य करने में प्रवृत्त होता है । समस्त प्राणी प्रकृति की ही ओर उन्मुख होकर तदनुसार व्यवहार करते हैं, उससे अन्य तरह का आचरण करने का हठ कोई कैसे कर सकता है?
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अध्याय 4, श्लोक 38,
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
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(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
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भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
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’सदृशम्’ / ’sadṛśam’ - according to,
Chapter 3, śloka 33,
sadṛśaṃ ceṣṭate svasyāḥ
prakṛterjñānavānapi |
prakṛtiṃ yānti bhūtāni
nigrahaḥ kiṃ kariṣyati ||
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(sadṛśam ceṣṭate svasyāḥ
prakṛteḥ jñānavān api |
prakṛtim yānti bhūtāni
nigraham kim kariṣyati||)
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Meaning :
Even the wise tend to perform actions according to their inherent natural tendencies (the inclinations as they have, prompted by the combined effects of the three attributes (guṇa) of manifestation ('prakṛti'). How can one, go against them?
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Chapter 4, śloka 38,
na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tatsvayaṃ yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||
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(na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tat svayam yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||)
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Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
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