Wednesday, July 9, 2014

आज का श्लोक, ’समग्रम्’ / ’samagram’

आज का श्लोक,
’समग्रम्’  / ’samagram’
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’समग्रम्’  / ’samagram’ - पूरी तरह, संपूर्ण रूपेण,

अध्याय 4, श्लोक 23,

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥
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(गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञाय आचरतः कर्म समग्रम् प्रविलीयते ॥)
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भावार्थ :
जिसकी बुद्धि विषयों से अलिप्त रहती है, विषयों के बंधन से मुक्त हुए उस ज्ञान में अवस्थित मनुष्य का समस्त कर्म यज्ञस्वरूप होने से पूरी तरह विलीन हो जाता है ।
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अध्याय 7, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
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(मयि आसक्तमनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मदाश्रयः ।
असंशयम् समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत्-शृणु ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे पार्थ (हे अर्जुन)! मुझमें / मेरे प्रेम में निमज्जित-हृदय, मुझमें समर्पित-चित्त होकर मेरा आश्रय लेते हुए, जिस प्रकार से तुम मुझको समग्रतः जान लोगे, उसे सुनो ।
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भावार्थ 2:
हे पार्थ, ’अहम्’ / ’आत्मा’ / अपने-आप से अत्यन्त प्रेम करते हुए अपने ही अन्तर्हृदय में गहरे डूबकर, जहाँ से ’अहं-वृत्ति’ का तथा अन्य सभी गौण वृत्तियों का भी उठना-विलीन होना होता है, उसे जानने पर तुम कैसे समग्रतः आत्मा को जान लोगे, इसे मुझसे सुनो ।
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टिप्पणी :
यह श्लोक और इस ग्रन्थ के ऐसे ही बहुत से अन्य श्लोक भी जिस तरह भगवान् श्रीकृष्ण को ईश्वर, या ईश्वर का अवतार माननेवाले और इस रूप में उन पर अनन्य श्रद्धा रखनेवालों को सीधे ही संबोधित करते हुए परमेश्वर की प्राप्ति का उपाय बतलाते हैं, वैसे ही उस संशयवादी को भी जो भले ही परमेश्वर के विषय में सन्देह करता हो, किन्तु ’अपने-आप’ के अस्तित्व में न तो सन्देह कर सकता है, और न ही किसी भी तर्क से अपने उस अस्तित्व में निहित ’होने-जानने’ के तथ्य को झुठला सकता है । और यही वह बिन्दु है, जहाँ श्रीमद्भग्वद्गीता शुद्ध ’विवेचना’ के माध्यम से ’सत्य’ तक जाने का मार्ग इंगित करती है ।
इसे थोड़ा और विस्तार से समझने के लिए हमें ’वृत्ति’ और ’अहं-वृत्ति’ और ’देहात्म-वृत्ति’ को समझना होगा । पातञ्जल योग सूत्रों में यद्यपि ’वृत्ति’ के बारे में स्पष्टतः कहा गया है, और सन्देह के लिए कोई संभावना नहीं रखी गई है, तथा ’वृत्तियाँ’ जिस आधार में उठती विलीन होती हैं उस आधार को ’स्वरूप’ कहा गया है, साधारण मनुष्य के लिए इस सब को ग्रहण करना कठिन ही होगा, जब तक कि उसमें जानने की तीव्र उत्कण्ठा न हो । ऐसी उत्कण्ठा (संसार के प्रति) तीव्र वैराग्य होने पर ही हृदय में उत्पन्न होती है, या ’सत्य’ को जानने की तीव्र अभीप्सा से ।
यहाँ उल्लेखनीय है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भग्वद्गीता में जहाँ एक ओर, उत्तम-पुरुष एकवचन-वाची ’मैं’ / संस्कृत में ’अहम्’ पद के प्रयोग द्वारा ’स्वयं’ को ईश्वर कहा है, वहीं अन्यत्र भी कई स्थानों पर, तथा अन्त में अध्याय 18 के 61, 62 में ईश्वर को, अन्य-पुरुष एकवचन-वाची ’वह’ / संस्कृत में ’सः’ के रूप में भी व्यक्त किया है । इसका अभिप्राय समझना पाठक की अपनी क्षमता और परिपक्वता पर निर्भर करता है । और मुझे नहीं लगता कि सिवा अपने पूर्वाग्रहों को हटाने के, यहाँ कोई विशेष बाधा है, जो हमें यह अभिप्राय समझने से रोक सके ।
भगवान् श्री रमण महर्षि और श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाएँ इसी बिन्दु को अपनी शिक्षाओं का आधार बनाती हैं । यहाँ तक कि श्री जे. कृष्णमूर्ति ने भी ’अहं’ के संबन्ध में जो कुछ कहा और विवेचना की है वह भी पुनः पुनः हमें इसी ’होने-जानने’ के बिन्दु पर ले आती है ।
यहाँ अधिक विस्तार में जाना अनावश्यक ही होगा ।
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अध्याय 11, श्लोक 30,

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता-
ल्लोकान्समग्रान्वदनिर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं
भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥
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(लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्तात्
लोकान् समग्रान् वदनैः ज्वलद्भिः ।
तेजोभिः आपूर्य जगत् समग्रम्
भासः तव उग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥)
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भावार्थ :
हे विष्णु! (भगवान् विष्णु अर्थात् हरि, श्रीकृष्ण,) अपने प्रज्वलित हो रहे मुखों से आप सम्पूर्ण लोकों को सब दिशाओं में चखते और अपना ग्रास बनाते हुए, सम्पूर्ण जगत् को अपने तेज से ओत-प्रोत करते हुए, अपने प्रखर आलोक से सारे जगत् को तप्त कर रहे हैं ।
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’समग्रम्’  / ’samagram’ - total, entire, complete,

Chapter 4, श्लोक 23,

gatasaṅgasya muktasya
jñānāvasthitacetasaḥ |
yajñāyācarataḥ karma
samagraṃ pravilīyate ||
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(gatasaṅgasya muktasya
jñānāvasthitacetasaḥ |
yajñāya ācarataḥ karma
samagram pravilīyate ||)
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Meaning :
The one with no more attachment to the objects, and is therefore free from the bondage of them, and also from the cause and effects (karma-aṃdhana) born of such attachment, though keeps performing the actions because of the past momentum (destiny / prārabdha), all his actions are a form of scrifice (yajña) only, causing no further bomdage.
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Captter 7, śloka 1,

śrībhagavānuvāca :

mayyāsaktamanāḥ pārtha
yogaṃ yuñjanmadāśrayaḥ |
asaṃśayaṃ samagraṃ māṃ
yathā jñāsyasi tacchṛṇu ||
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(mayi āsaktamanāḥ pārtha
yogam yuñjan madāśrayaḥ |
asaṃśayam samagram mām
yathā jñāsyasi tat-śṛṇu ||)
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Meaning :
Now listen to Me, O pārtha (arjuna) ! In earnest love for Me, Having dedicated to Me his whole heart and being, how one is most intimately linked to Me, how through this yoga, one attains and knows Me perfectly and thoroughly, in all My aspects, What I AM, without no trace of doubt.
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Chapter 11, śloka 30,

lelihyase grasamānaḥ samantā-
llokānsamagrānvadanirjvaladbhiḥ |
tejobhirāpūrya jagatsamagraṃ
bhāsastavogrāḥ pratapanti viṣṇo ||
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(lelihyase grasamānaḥ samantāt
lokān samagrān vadanaiḥ jvaladbhiḥ |
tejobhiḥ āpūrya jagat samagram
bhāsaḥ tava ugrāḥ pratapanti viṣṇo ||)
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Meaning :
O viṣṇu! (Lord hari / śrīkṛṣṇa!) swallowing the worlds on all sides, You devour them, licking, relishing everything. Your beams of Light pierce through everything, pervading all, filling this all with your brilliance.
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