Friday, July 11, 2014

आज का श्लोक, ’सनातनः’ / ’sanātanaḥ’

आज का श्लोक,
’सनातनः’ /  ’sanātanaḥ’ 
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’सनातनः’ /  ’sanātanaḥ’ - सदा रहनेवाला,

अध्याय 2, श्लोक 24,

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः
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(अच्छेद्यः अयम् अदाह्यः अयम् अक्लेद्यः अशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलः अयम् सनातनः ॥)
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भावार्थ :
यह आत्मा अच्छेद्य है (जिसे काटा नहीं जा सकता, खण्डित नहीं किया जा सकता), यह आत्मा  अदाह्य है (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य है, (जिसे जल से भिगोया नहीं जा सकता), और इसी प्रकार अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता) । यह आत्मा नित्य ही सर्वगत (सबमें अवस्थित), स्थाणु (एक ही स्थान पर विद्यमान, ध्रुव),  और अचल है ।
टिप्पणी :
इस अध्याय 2 के श्लोक 13 में इसे ही ’देही’ कहा गया है, श्लोक 18 में इसे ही ’शरीरिन्’ / देह का स्वामी कहा गया है, शेष में इसी के बारे में और भी विस्तार से स्पष्ट किया गया है ।
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अध्याय 8, श्लोक 20,

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥
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(परः तस्मात् तु भावः अन्यः अव्यक्तः अव्यक्तात् सनातनः
यः सः सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥)
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भावार्थ :
समस्त भूतसमुदाय दिन के उगने के साथ संसार के व्यवहार में जाग्रत / व्यक्त हो उठता है, एवं रात्रि आने पर निद्रा के वशीभूत हुआ प्रलीन हो जाता है । अहोरात्रविद् (काल की गणना करनेवालों) जी दृष्टि में यह दिन और रात्रि का नियम आब्रह्म-भुवन (सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लेकर समस्त छोटे-से छोटे भूतों तक) लागू होता है । इस व्यक्त और अव्यक्त भाव से अन्य एक और अव्यक्त भाब है, जो अव्यक्त होने के साथ साथ सनातन भी है । और जो सारे भूतों के विनष्ट हो जाने (अपने आदिकारण में विलीन हो जाने) के बाद भी विनष्ट नहीं होता (क्योंकि वह अविनाशी है ।)
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अध्याय 11, श्लोक 18,

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता 
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥
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(त्वम् अक्षरम् परमम् वेदितव्यम्
त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम् 
त्वम् अव्ययः शाश्वत-धर्मगोप्ता
सनातनः त्वम् पुरुषः मतः मे ॥)
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भावार्थ :
आप ही एकमेव जानने योग्य परम अक्षर (अविनाशी) तत्त्व हैं, आप ही इस संपूर्ण विश्व के अधिष्ठान / आश्रय हैं, आप ही अनश्वर धर्म के नित्य रक्षा करनेवाले हैं, और आप ही  सदा रहनेवाले नित्य परम् पुरुष हैं ऐसा मेरा मत है । 
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अध्याय 15, श्लोक 7,

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
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(मम एव अंशः जीवलोके जीवभूतः सनातनः
मनःषष्ठानि इन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥)
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भावार्थ :
जन्म-मृत्यु वाले संसार में, प्रकृति में स्थित मन तथा पाँचों इन्द्रियों (इन छः) को आकर्षित करनेवाला जीव, (व्यक्त और अव्यक्त होनेवाली सत्ता के रूप में), मेरा ही सनातन अंश है । 
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’सनातनः’ /  ’sanātanaḥ’ - lasting for ever, eternal,

Chapter 2, śloka 24,

acchedyo:'yamadāhyo:'yam-
akledyo:'śoṣya eva ca |
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇu-
racalo:'yaṃ sanātanaḥ ||
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(acchedyaḥ ayam adāhyaḥ ayam
akledyaḥ aśoṣya eva ca |
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇuḥ
acalaḥ ayam sanātanaḥ ||)
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This 'Self' (the consciousness associated with the body, which makes the body look alive and of having its own independent existence different from the indwelling consciousness)  cannot be cut, burnt, soaked in water and made wet, or made dry by means what-so-ever. It is eternal, all-pervading, ever stable, immovable and primordial.
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Chapter 8, śloka 20,
parastasmāttu bhāvo:'nyo:'
vyakto:'vyaktātsanātanaḥ |
yaḥ sa sarveṣu bhūteṣu
naśyatsu na vinaśyati ||
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(paraḥ tasmāt tu bhāvaḥ anyaḥ
avyaktaḥ avyaktāt sanātanaḥ |
yaḥ saḥ sarveṣu bhūteṣu
naśyatsu na vinaśyati ||)
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Meaning :
Beyond this manifest and this hidden, there is yet another level of existence My transcendent form and abode, which is immutable and imperishable. Which stays so eternally even through the destruction of both the manifest and the immanent (seed / hidden / not manifest).
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Chapter 11, śloka 18,

tvamakṣaraṃ paramaṃ veditavyaṃ
tvamasya viśvasya paraṃ nidhānam |
tvamavyayaḥ śāśvatadharmagoptā 
sanātanastvaṃ puruṣo mato me ||
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(tvam akṣaram paramam veditavyam
tvam asya viśvasya param nidhānam 
tvam avyayaḥ śāśvata-dharmagoptā
sanātanaḥ tvam puruṣaḥ mataḥ me ||)
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Meaning :
You are alone the One Imperishable, The Supreme, ever worth-knowing, You are the only support of the whole world, You alone protect and save the virtue-eternal (śāśvata-dharma) for ever, It is my firm conviction that You are alone -The Self (ātman), and prevail at all times, 
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Chapter 15, śloka 7,

mamaivāṃśo jīvaloke
jīvabhūtaḥ sanātanaḥ |
manaḥṣaṣṭhānīndriyāṇi
prakṛtisthāni karṣati ||
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(mama eva aṃśaḥ jīvaloke
jīvabhūtaḥ sanātanaḥ |
manaḥṣaṣṭhāni indriyāṇi
prakṛtisthāni karṣati ||)
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Meaning :
The 'self' (jīva) / soul, that appears and disappears in innumerable forms and bodies in the world of mortals, is My very own part eternal, that attracts the mind and the those 5 senses (6 in all) which are elements in manifestation (prakṛti).
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