आज का श्लोक, ’सङ्गः’ / ’saṅgaḥ’
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’सङ्गः’ / ’saṅgaḥ’ - संगति, साथ, और उससे होनेवाला राग (आसक्ति)
अध्याय 2, श्लोक 47,
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
--
(कर्मणि एव अधिकारः ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुः भूः मा ते सङ्गः अस्तु अकर्मणि ॥)
--
भावार्थ : कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है (अर्थात् अपने विवेक से अपने सामर्थ्य और कर्म के औचित्य को समझकर उसमें संलग्न होने का संकल्प होना), किन्तु उसके फल के संबंध में कभी नहीं (क्योंकि फल अनेक कारणों का सम्मिलित परिणाम होता है, जिनमें से अपना संकल्प केवल एक ही कारण होता है ) । इसलिए किसी (सुनिश्चित, इच्छित और विशिष्ट) कर्मफल के मिलने का आग्रह मत रखो, और वहीं दूसरी ओर, अकर्म (कर्म से पलायन करने) के प्रति भी तुम्हारा आग्रह न हो ।
--
अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
--
(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
--
भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं । और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
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’सङ्गः’ / ’saṅgaḥ’ - association with and attachment to,
Chapter 2, śloka 47,
karmaṇyevādhikāraste
mā phaleṣu kadācana |
mā karmaphalaheturbhūr-
mā te saṅgo:'stvakarmaṇi ||
--
(karmaṇi eva adhikāraḥ te
māphaleṣu kadācana |
mā karmaphalahetuḥ bhūḥ
mā te saṅgaḥ astu akarmaṇi ||)
--
Meaning :
It is your right to accept and do the work that has come to your lot according to your strength and the need of the moment, but you never have the control over the fruits that come as the result of such work.(Because your effort is only one of those several factors, that bring out the result.) Don't become the instrument with an intention of causing a specific desired result, and at the same time, don't try to run away also from the work itself.
--
Chapter 2, śloka 62,
dhyāyato viṣayānpunsaḥ
saṅgasteṣūpajāyate |
saṅgātsañjāyate kāmaḥ
kāmātkrodho:'bhijāyate |
--
(dhyāyataḥ viṣayān punsaḥ
saṅgaḥ teṣu upajāyate |
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ
kāmāt krodhaḥ abhijāyate ||
--
Meaning :
When one thinks of the objects (of desires), this causes attachment with them, from the attachment comes the desire for those objects and there-from the anger.
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’सङ्गः’ / ’saṅgaḥ’ - संगति, साथ, और उससे होनेवाला राग (आसक्ति)
अध्याय 2, श्लोक 47,
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
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(कर्मणि एव अधिकारः ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुः भूः मा ते सङ्गः अस्तु अकर्मणि ॥)
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भावार्थ : कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है (अर्थात् अपने विवेक से अपने सामर्थ्य और कर्म के औचित्य को समझकर उसमें संलग्न होने का संकल्प होना), किन्तु उसके फल के संबंध में कभी नहीं (क्योंकि फल अनेक कारणों का सम्मिलित परिणाम होता है, जिनमें से अपना संकल्प केवल एक ही कारण होता है ) । इसलिए किसी (सुनिश्चित, इच्छित और विशिष्ट) कर्मफल के मिलने का आग्रह मत रखो, और वहीं दूसरी ओर, अकर्म (कर्म से पलायन करने) के प्रति भी तुम्हारा आग्रह न हो ।
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अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
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(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
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भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं । और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
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’सङ्गः’ / ’saṅgaḥ’ - association with and attachment to,
Chapter 2, śloka 47,
karmaṇyevādhikāraste
mā phaleṣu kadācana |
mā karmaphalaheturbhūr-
mā te saṅgo:'stvakarmaṇi ||
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(karmaṇi eva adhikāraḥ te
māphaleṣu kadācana |
mā karmaphalahetuḥ bhūḥ
mā te saṅgaḥ astu akarmaṇi ||)
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Meaning :
It is your right to accept and do the work that has come to your lot according to your strength and the need of the moment, but you never have the control over the fruits that come as the result of such work.(Because your effort is only one of those several factors, that bring out the result.) Don't become the instrument with an intention of causing a specific desired result, and at the same time, don't try to run away also from the work itself.
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Chapter 2, śloka 62,
dhyāyato viṣayānpunsaḥ
saṅgasteṣūpajāyate |
saṅgātsañjāyate kāmaḥ
kāmātkrodho:'bhijāyate |
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(dhyāyataḥ viṣayān punsaḥ
saṅgaḥ teṣu upajāyate |
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ
kāmāt krodhaḥ abhijāyate ||
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Meaning :
When one thinks of the objects (of desires), this causes attachment with them, from the attachment comes the desire for those objects and there-from the anger.
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