Friday, July 18, 2014

आज का श्लोक, ’सङ्गम्’ / ’saṅgam’

आज का श्लोक,
’सङ्गम्’ / ’saṅgam’
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’सङ्गम्’ / ’saṅgam’ - संगति, लगाव, आसक्ति, (को)

अध्याय 2, श्लोक 48,

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
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(योगस्थः  कुरु  कर्माणि  सङ्गम्  त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)

भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
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अध्याय 5, श्लोक 10,

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥
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(ब्रह्मणि आधाय कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रम् इव अम्भसा ॥)
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भावार्थ : कर्म का स्रोत, आधार और गतिविधि को ब्रह्म (के अन्तर्गत) समझते हुए, जो कर्म से प्रभावित न होते हुए प्राप्त हुए कर्म को कर्तव्य मात्र की तरह करता है, वह वैसे ही पाप से अछूता रहता है जैसे कमल का पत्ता जल से हुआ करता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 11,

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
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(कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैः इन्द्रियैः अपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गम् त्यक्त्वा आत्मशुद्धये ॥
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भावार्थ :
कर्म में आसक्ति को त्यागकर, योगीजन शरीर, मन, बुद्धि या केवल इन्द्रियों से भी आत्मशुद्धि के लिए ही कर्म का अनुष्ठान किया करते हैं । चित्त-शुद्धि
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अध्याय 18, श्लोक 6,

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।
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(एतानि अपि तु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानि इति मे पार्थ निश्चितम् मतम् उत्तमम् ॥)
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भावार्थ :
श्लोक 5 में कहे गए यज्ञ, दान एवं तप रूपी कर्मों के अतिरिक्त दूसरे भी अन्य सभी कर्मों तथा उनके फलों के प्रति भी आसक्ति-बुद्धि का सर्वथा त्याग करते हुए, अर्थात् उनमें आसक्ति न रखते हुए,  उन्हें कर्तव्य मात्र समझते हुए पूर्ण करना ही उत्तम है, हे पार्थ! यह मेरा सुनिश्चित मत है ।
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अध्याय 18, श्लोक 9,

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥
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(कार्यम् इति एव यत् कर्म नियतम् क्रियते अर्जुन ।
सङ्गम् त्यक्त्वा फलम् च एव सः त्यागः सात्त्विकः मतः ॥)
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भावार्थ :
शास्त्रविहित त्याग, अर्थात् ऐसा कर्म जिसे करना कर्तव्य है, जो कर्तव्य के रूप में प्राप्त हुआ है, आसक्ति से रहित होकर तथा फल की अभिलाषा न करते हुए जिसे किया जाना चाहिए, वही त्याग सात्त्विक है ।
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’सङ्गम्’ / ’saṅgam’ - association and involvement, attachment to,

Chapter 2, śloka 48,

yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaṃ yoga ucyate ||
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(yogasthaḥ  kuru  karmāṇi
saṅgam  tyaktvā dhanañjaya |
siddhi-asiddhyoḥ samaḥ bhūtvā
samatvam yogaḥ ucyate ||)
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Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself  with  the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga' / 'samatva-yoga'.
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Chapter 5, śloka 10,

brahmaṇyādhāya karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā karoti yaḥ |
lipyate na sa pāpena
padmapatramivāmbhasā ||
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(brahmaṇi ādhāya karmāṇi
saṅgam tyaktvā karoti yaḥ |
lipyate na sa pāpena
padmapatram iva ambhasā ||)
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Meaning :
Though in water, just as the lotus-leaf keeps untouched by water, one who performs the actions dedicating to the Supreme (Brahman), without clinging to the action and in no way concerned about the result, -favorable or not, stayes untouched  by sin.
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Note :
This happens when one is free of fear, desire or expectation about the result.
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Chapter 5, śloka 11,

kāyena manasā buddhyā
kevalairindriyairapi |
yoginaḥ karma kurvanti
saṅgaṃ tyaktvātmaśuddhaye ||
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(kāyena manasā buddhyā
kevalaiḥ indriyaiḥ api |
yoginaḥ karma kurvanti
saṅgam tyaktvā ātmaśuddhaye ||
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Meaning :
With  a view to attain the purity of mind (ātmaśuddhi / citta-śuddhi) yogis perform the action (karma) by means of the body, mind or even by the senses only, without clinging to the action (karma).
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Chapter 18, śloka 6,

etānyapi tu karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā phalāni ca |
kartavyānīti me pārtha
niścitaṃ matamuttamam |
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(etāni api tu karmāṇi
saṅgam tyaktvā phalāni ca |
kartavyāni iti me pārtha
niścitam matam uttamam ||)
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Meaning :
[Not only the actions such as sacrifice (yajña), charity (dāna) and austerity (tapa) as described in the previous śloka 5 of this chapter, ...] but also all other actions (karma) as well, should be performed without attachment to them and their fruits. O pārtha (arjuna)! This is the best way, and My sincere opinion.  
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Chapter 18, śloka 9,

kāryamityeva yatkarma
niyataṃ kriyate:'rjuna |
saṅgaṃ tyaktvā phalaṃ caiva
sa tyāgaḥ sāttviko mataḥ ||
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(kāryam iti eva yat karma
niyatam kriyate arjuna |
saṅgam tyaktvā phalam ca eva
saḥ tyāgaḥ sāttvikaḥ mataḥ ||)
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Meaning :
The action that is performed for the sake of duty, without no attachment or anticipation of anything in return, it is sāttvika action, arjuna!
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