Wednesday, July 16, 2014

आज का श्लोक, ’सत्’ / ’sat’

आज का श्लोक, ’सत्’ / ’sat’
___________________________

अध्याय 9, श्लोक 19,

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥
--
(तपामि अहम् अहम् वर्षम् निगृह्णामि उत्सृजामि च ।
अमृतम् च मृत्युः च सत्-असत्-च अहम् अर्जुन ॥)
--
भावार्थ : हे अर्जुन !मैं ही तपता हूँ  (क्योंकि तप ब्रह्म का स्वभाव है) मैं ही वर्ष (काल के प्रमाण पर, सूर्य के बारह मास के आकाशीय राशिपरिभ्रमण के अनुसार) को रोकता (धारण कर रखता) हूँ और पुनः उत्सृजन (वर्षा) भी करता हूँ । अमृत / जीवन, एवं मृत्यु  / जीवन का विलय, और सत् एवं असत् भी मैं ही हूँ ।
--
टिप्पणी : 
1.(श्री वासिष्ठ गणपति मुनि ’सद्दर्शनम्’ के अपने भाष्य के प्रथम अध्याय में कहते हैं, -
... तथा च, तदैक्षत स तपोऽतप्यतेत्यादिवाक्यैस्तपसा जगन्निष्पत्तौ सिद्धायां तस्यैव सर्वनिमित्तकारणत्वं प्रतिपादितं भवति । एवं सर्वस्यास्य मूलतः परिकरतश्च सर्वा कारणसामग्री तस्मिन्नेकस्मिन्नद्वितीये ब्रह्मणि दृष्टव्या ।
इस प्रकार, ’उसने तप किया, उसने ईक्षण / अवलोकन किया,  उपनिषद्-वर्णित इन वाक्यों के अनुसार तप से जगत् की निष्पत्ति / उद्भव होने से उस ब्रह्म में ही जगत् का निमित्तकारणत्व प्रतिपादित होता है ।)
2. वर्ष की व्युत्पत्ति ’व’ विस्तार अर्थात् फैलाव के अर्थ में काल और स्थान (Time and Space) दोनों रूपों में होती है, जिसमें जगत् अस्तित्वमान होता है ।
वृ - वर्षति, से वर्षा, वारि, वारिश / बारिश, बरसात, 'year', आदि दृष्टव्य हैं ।
--
अध्याय 11, श्लोक 37,

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥
--
(कस्मात् च ते न नमेरन् महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणः अपि आदिकर्त्रे ।
अननत देवेश जगन्निवास
त्वम् अक्षरम् सत्-असत्-तत्-परम् यत् ॥)
--
भावार्थ :
हे महेश्वर ! वे (पिछले श्लोक में वर्णित समस्त सिद्धसंघ आदि) आपको क्यों न  प्रणाम करें, आप सबसे बड़े, और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता हैं । हे अनन्त!, हे देवेश, हे जगत् के अधिष्ठान! आप अविनाशी, सत्, असत् एवं उनसे जो परे है, वह भी हैं ।
--
टिप्पणी :
--
’सत्’ का अर्थ है, -सदा रहनेवाला, जिसका अस्तित्व सबके लिए समान है, असत् का अर्थ है, -प्रतीत होनेवाला, जिसका अस्तित्व हर किसी के लिए भिन्न-भिन्न है, और इन दोनों का अधिष्ठान इन दोनों से भिन्न प्रकार का (विलक्षण) होने से उसको ’सत्-असत्’ से विलक्षण ’तत्’ (परब्रह्म) कहा जाता है ।
--
अध्याय 13, श्लोक 12,

ज्ञेयं यत्ते प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥
--
(ज्ञेयम् यत् ते प्रवक्ष्यामि यत्-ज्ञात्वा अमृतम् अश्नुते ।
अनादिमत् परम् ब्रह्म न सत्-तत्-न असत् उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
(ज्ञान में) जानने योग्य जो तत्त्व है, जिसके बारे में मैं तुमसे भली भाँति कहने वाला हूँ, जो अनादि स्वरूप वाला ज्ञेय अर्थात परब्रह्म है, जिसे जानकर मनुष्य को अमृतत्व की प्राप्ति होती है, उसे न तो सत् और न असत् कहा जाता है,  क्योंकि वह सत्-असत् से विलक्षण है ।
--
टिप्पणी :
--
’सत्’ का अर्थ है, - सदा रहनेवाला, जिसका अस्तित्व सबके लिए समान है, असत् का अर्थ है, -प्रतीत होनेवाला, जिसका अस्तित्व हर किसी के लिए भिन्न-भिन्न है, और इन दोनों का अधिष्ठान इन दोनों से भिन्न प्रकार का (विलक्षण) होने से उसको ’सत्-असत्’ से विलक्षण ’तत्’ (परब्रह्म) कहा जाता है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 23,
--
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥
--
(ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणाः तेन वेदाः च यज्ञाः च विहिताः पुरा ॥)
--
भावार्थ :
परब्रह्म परमात्मा का वर्णन तथा स्मरण ॐ तत् सत् इन तीन प्रकारों और पदों के द्वारा किया जाता है ।  सृष्टि के प्रारंभ से ही ब्राह्मण, वेद और यज्ञ उसी विधान से रचे गए ।
--
अध्याय 17, श्लोक 26,

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
--
(सद्भावे साधुभावे च सत्-इति-एतत्-प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥)
--
भावार्थ :’सत्’ (परमात्मा के इस नाम का) प्रयोग सत्यभाव में (सत्यता की भावना सहित) और श्रेष्ठता के तात्पर्य में किया जाता है । इसी प्रकार कर्म की उत्तमता के सूचक के रूप में भी इसका व्यवहार होता है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 27,
--
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
--
(यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सत्-इति च उच्यते ।
कर्म च एव तदर्थीयम् सत्-इति-एव-अभिधीयते ॥)
--
भावार्थ :
इस रीति से किए जानेवाले यज्ञ, तप एवं दान आदि के ऐसे (पिछले श्लोक में वर्णित) रूप को ’सत्’ कहा जाता है, तथा उसी प्रकार से किए जानेवाले तदनुरूप कर्म को भी उसी (सत् के) अर्थ में ग्रहण किया जाता है ।
--
(टिप्पणी : इसी अध्याय 17 के श्लोक 23 में स्पष्ट किए गए अनुसार, ब्रह्म का निर्देश ’ॐ’, ’तत्’ एवं ’सत्’ इन तीन पदोंसे किया जाता है । ’सत्’ का तात्पर्य यहाँ इसी अर्थ में ग्राह्य है ।)
--


Chapter 9, śloka 19,

tapāmyahamahaṃ varṣaṃ
nigṛhṇāmyutsṛjāmi ca |
amṛtaṃ caiva mṛtyuśca
sadasaccāhamarjuna ||
--
(tapāmi aham aham varṣam
nigṛhṇāmi utsṛjāmi ca |
amṛtam ca mṛtyuḥ ca
sat-asat-ca aham arjuna ||)
--
Meaning :
I emit the heat, I do 'tapas' and emerge out in the form of Heat, I hold the waters and, I AM The rains and I AM the year that comes into being because of the rains and heat. And I gather and release the waters. I AM the Life Immortal, and the death as well. And I AM, O arjuna ! Reality Immanent (sat) and the Manifest (asat) as well.
--


Chapter 11, śloka 37,

kasmācca te na nameranmahātman
garīyase brahmaṇo:'pyādikartre |
ananta deveśa jagannivāsa
tvamakṣaraṃ sadasattatparaṃ yat ||
--
(kasmāt ca te na nameran mahātman
garīyase brahmaṇaḥ api ādikartre |
ananata deveśa jagannivāsa
tvam akṣaram sat-asat-tat-param yat ||)
--
Meaning :
Why shall not they (those sages, siddhasaṃgha, - the Realized,) and offer homage to you O Being Supreme! as You are the Elder-most, and Creator foremost of even brahmā, O Limitless, O Lord of the Gods, O abode of the whole world, You are 'sat', 'asat', and also beyond both  O 'parabrahama' !  
--
Note :
'sat', is what abides ever, 'asat', is the appearances that change from person to person, and beyond both is 'parabrahaman', Which is indescribable.
--
Chapter 13, śloka 12,

jñeyaṃ yatte pravakṣyāmi
yajjñātvāmṛtamaśnute |
anādimatparaṃ brahma
na sattannāsaducyate ||
--
(jñeyam yat te pravakṣyāmi
yat-jñātvā amṛtam aśnute |
anādimat param brahma
na sat-tat-na asat ucyate ||)
--
Meaning :
Now I am going to elucidate for you the Reality (brahma) worth knowing. Having known That Reality (brahma), one attains immortality. The Reality, That is beginning-less, and is described as neither Existence (sat), nor Non-Existence (asat), but altogether different from the two and beyond both.
--
Chapter 17, śloka 23,

om̐ tatsaditi nirdeśo
brahmaṇastrividhaḥ smṛtaḥ |
brāhmaṇāstena vedāśca
yajñāśca vihitāḥ purā ||
--
(om̐ tat sat iti nirdeśaḥ
brahmaṇaḥ trividhaḥ smṛtaḥ |
brāhmaṇāḥ tena vedāḥ ca
yajñāḥ ca vihitāḥ purā ||)
--
Meaning :
From the beginning of the Creation, the three words 'oM tat sat' ARE used to indicate the Supreme Reality (The Brahman). Accordingly, came the scriptures like 'brAhmaNas' and 'vedas', and the sacrifices were performed based on this principle.
--  
Chapter 17, śloka 26,

sadbhāve sādhubhāve ca
sadityetatprayujyate |
praśaste karmaṇi tathā
sacchabdaḥ pārtha yujyate ||
--
(sat-bhāve sādhubhāve ca
sat-iti-etat-prayujyate |
praśaste karmaṇi tathā
sat-śabdaḥ pārtha yujyate ||)
--
Meaning :
O parth (arjuna)! the word 'sat'(essence) is applied to express the Reality, and also the earnestness, sincerity, auspiciousness, and the purity of the purpose. Therefore this word 'sat' is used to remind all those aspects of Truth. This word 'sat' is again used to denote the goodness and virtue of the way a noble deed is performed.
--
Chapter 17, śloka 27,

yajñe tapasi dāne ca
sthitiḥ saditi cocyate |
karma caiva tadarthīyaṃ
sadityevābhidhīyate ||
--
(yajñe tapasi dāne ca
sthitiḥ sat-iti ca ucyate |
karma ca eva tadarthīyam
sat-iti-eva-abhidhīyate ||)
--
Meaning :
When a yajna (sacrifice), tapas ( austerities, penance) and charity is performed in this specific way, remembering Brahman, dedicated to Him and not for anything else in exchange, is called 'sat'. Like-wise such an action also bears the same meaning of 'sat' and is therefore 'sat' only.
--
Note :  please refer to- ... "Brahman / Reality" is described by these 3 terms;
'om̐', 'tat', and 'sat',  ... " > shloka 23, of this chapter 17.
--

No comments:

Post a Comment