Tuesday, July 15, 2014

आज का श्लोक, ’सत्यम्’ / ’satyam ’

आज का श्लोक, ’सत्यम्’ / ’satyam ’
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’सत्यम्’ / ’satyam’ - सत्य,

अध्याय 10, श्लोक 4,

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
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(बुद्धिः ज्ञानम् असम्मोहः क्षमा सत्यम् दमः शमः ।
सुखम् दुःखम् भवो अभावो भयं च अभयम् एव च ॥
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भावार्थ :
बुद्धि,  विवेकयुक्त ज्ञान अर्थात् यथार्थ और अयथार्थ, नित्य और अनित्य की समझ, असम्मोह अर्थात् त्रुटिपूर्ण प्रतीतियों से अभिभूत न होना, क्षमा, सत्य और दम तथा शम अर्थात् मन-इन्द्रियों आदि पर नियन्त्रण रखते हुए उन्हें शान्त रखना, सुख और दुःख, उत्पत्ति तथा अवसान, भय तथा निर्भयता, ...
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अध्याय 16, श्लोक 2,

अहिंसासत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥
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(अहिंसा सत्यम् अक्रोधः त्यागः शान्तिः अपैशुनम् ।
दया भूतेषु अलोलुप्त्वम् मार्दवम् ह्रीः अचापलम् ॥)
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भावार्थ :
इस अध्याय के प्रथम श्लोक में दैवी सम्पदाओं का वर्णन किया गया, इसी क्रम में आगे और दूसरे श्लोक में कहा गया, ...
अहिंसा अर्थात् सब भूतों मे उसी एक परमेश्वर को जानकर किसी के प्रति मन वचन कर्म से हिंसा न करना ।
सत्य अर्थात् नित्य वस्तु की पहचान, अक्रोध अर्थात् रोष न होना, त्याग अर्थात् सब परमेश्वर का समझते हुए सांसारिक वस्तुओं पर आधिपत्य की भावना न रखना, शान्ति अर्थात् मन की अचंचलता और धैर्य, अपैशुनम् अर्थात् किसी के प्रति द्वेष / घृणा न रखना, दया अर्थात् करुणा, सबके प्रति संवेदनशीलता, अलोलुपता अर्थात् इन्द्रियों का विषयों से संयोग होने पर प्राप्त होने वाले सुख-दुख से प्रभावित न होना, मार्दवम्  - अर्थात् अर्थात् मृदुता, कठोरता या क्रूरता का विपरीत, ह्री अर्थात् अनैतिक कार्य करने में लज्जा होना, और अचापलम् अर्थात् व्यर्थ चेष्टाओं में संलग्न न होना,  
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अध्याय 16, श्लोक 7,

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥
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(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च जनाः न विदुः आसुराः ।
न शौचम् न च आचारः न सत्यम् तेषु विद्यते ॥)
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भावार्थ :
आसुरी प्रवृत्ति की प्रबलता जिनमें होती है, वे न तो यह जानते हैं कि (विषयों में) मन की प्रवृत्ति क्यों और कैसे होती है, और न ही यह, कि (विषयों से) मन की निवृत्ति क्यों और कैसे होती है । न तो वे शुचिता / अशुचिता क्या है, इसे जानते हैं न सदाचरण, और न ही उनमें सत्य के लिए कोई महत्व-बुद्धि होती है ।
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अध्याय 17, श्लोक 15,
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अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनम् चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
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(अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्याय-अभ्यसनम् च एव वाङ्मयं तप उच्यते ॥)
भावार्थ :
वाणी के स्तर पर किए जानेवाले 'तप' के अंतर्गत अपनी वाणी को ऐसा रखना जो किसी के लिए उद्वेगकारी न हो, जिसमें मिथ्यावचन न कहे जाएँ, जो सबके लिए हितकारी तथा प्रिय हो, तथा जिसमें आत्म-जिज्ञासा संबंधी ग्रंथों का पठन -पाठन एवं चिंतन-मनन आदि होता हो ।
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अध्याय 18, श्लोक 65,

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजने प्रियोऽसि मे ॥
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(मन्मना भव मद्भक्तः मद्याजी माम् नमस्कुरु ।
माम् एव एष्यसि सत्यम् ते प्रतिजाने प्रियः असि मे ॥)
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भावार्थ :
मुझमें समर्पित मन-बुद्धि से मेरे भक्त हो रहो, मेरी आराधना करनेवाले, और मुझे नमस्कार करनेवाले हो रहो, तुम अवश्य ही मुझको ही प्राप्त हो जाओगे इसमें संशय नहीं, यह मेरा वचन सत्य है, क्योंकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो ।
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’सत्यम्’ / ’satyam’ - truth,

Chapter 10, śloka 4,

buddhirjñānamasammohaḥ
kṣamā satyaṃ damaḥ śamaḥ |
sukhaṃ duḥkhaṃ bhavo:'bhāvo
bhayaṃ cābhayameva ca ||
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(buddhiḥ jñānam asammohaḥ
kṣamā satyam damaḥ śamaḥ |
sukham duḥkham bhavo abhāvo
bhayaṃ ca abhayam eva ca ||
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Meaning :
Intellect (thought), wisdom, delusion, forgiveness, truth, self-restraint and tranquility, happiness, misery, birth, death fear and fearlessness, ...
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Chapter 16, śloka 2,

ahiṃsāsatyamakrodhas-
tyāgaḥ śāntirapaiśunam |
dayā bhūteṣvaloluptvaṃ
mārdavaṃ hrīracāpalam ||
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(ahiṃsā satyam akrodhaḥ
tyāgaḥ śāntiḥ apaiśunam |
dayā bhūteṣu aloluptvam
mārdavam hrīḥ acāpalam ||)
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Meaning :
The divine assets / attributes / qualities (daivī sampadā)  that indicate one's progress on the spiritual path have been enumerated in the  śloka  1 of this Chapter 16. The next are as in this  śloka  2 as given below :
compassion   (ahiṃsā),  truth (satyam),  not being overcome by anger  (akrodhaḥ),   renunciation  (tyāgaḥ), peaceful temperament  (śāntiḥ),  absence of vilification / hatred / envy (apaiśunam),  generosity, kindness towards all  (dayā  bhūteṣu),   absence of cravings (aloluptvam),  gentleness  (mārdavam),  modesty (hrīḥ),  absence of fickle mindedness (acāpalam)
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Chapter 16, śloka 7,

pravṛttiṃ ca nivṛttiṃ ca
janā na vidurāsurāḥ |
na śaucaṃ nāpi cācāro
na satyaṃ teṣu vidyate ||
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(pravṛttim ca nivṛttim
ca janāḥ na viduḥ āsurāḥ |
na śaucam na ca ācāraḥ
na satyam teṣu vidyate ||)
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Meaning :
Those having evil propensities (āsurī pravṛtti) of mind, neither know how and why the mind gets caught in the different modes and tendencies, and how and why it becomes free from them. They don't know what is the purity and clarity of actions and purpose, they neither observe a way of good conduct, nor have inclination and attention towards truth.
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Chapter 17, śloka 15,

anudvegakaraṃ vākyaṃ
satyaṃ priyahitaṃ ca yat |
svādhyāyābhyasanam caiva
vāṅmayaṃ tapa ucyate ||
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(anudvegakaraṃ vākyaṃ
satyaṃ priyahitaṃ ca yat |
svādhyāya-abhyasanam ca eva
vāṅmayaṃ tapa ucyate ||)
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Meaning :
The austerities of words spoken or thought, that one should observe include speaking truth, speaking what does not cause distress to oneself as well as to others, which are helpful to all and soothing. And of the words of scriptures, that one need to study, contemplate and meditate upon. Repetition and chanting of the Mantras that makes the mind pure and full of devotion .
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Chapter 18, śloka 65,

manmanā bhava madbhakto
madyājī māṃ namaskuru |
māmevaiṣyasi satyaṃ te
pratijane priyo:'si me ||
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(manmanā bhava madbhaktaḥ
madyājī mām namaskuru |
mām eva eṣyasi satyam te
pratijāne priyaḥ asi me ||)
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Meaning :
Be a devotee to ME with your whole heart, worship ME and bow to ME, You shall attain ME only, This is MY honest Commitment to you, because you are MY beloved.
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