Wednesday, July 16, 2014

आज का श्लोक, ’सति’ / ’sati’

आज का श्लोक, ’सति’ / ’sati’
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’सति’ / ’sati’ - के होने पर,

अध्याय 18, श्लोक 16,

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥
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तत्र एवम् सति कर्तारम् आत्मानम् केवलम् तु यः ।
पश्यति अकृतबुद्धित्वात् न सः पश्यति दुर्मतिः ॥
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भावार्थ 1:
(इस अध्याय के पूर्व श्लोक 14 तथा 15 में जैसा कहा गया, मनुष्य द्वारा किसी कर्म के संभव होने में - 1. कर्म का अधिष्ठान, 2. कर्ता, 3. करण, 4. पृथक्-पृथक् प्रकार की चेष्टाएँ और 5. दैव ये पाँच हेतु संनिहित होते हैं, जिनके सम्मिलित प्रभाव से कर्म घटित होता है ।  ...)
ऐसा होने पर भी, जो केवल अपने-आपको (अर्थात् शुद्ध आत्मा को) ही कर्म के हो पाने के लिए एकमात्र कर्ता की तरह देखता है, त्रुटिपूर्ण बुद्धि वाला वह, अपनी बुद्धि के दोष के कारण यथार्थ को नहीं देख पाता (कि आत्मा नित्य अकर्ता है, और सारे कर्म गुणों के परस्पर व्यापार का परिणाम होते हैं ।)
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भावार्थ 2:
जैसा अध्याय 3 के श्लोक 27, में संक्षेप में कहा गया है, उसका ही विस्तार से वर्णन करते हुए इस अध्याय के पिछले श्लोकों में ’कर्म’ के होने के बारे में, ’कर्म’ के स्वरूप पर विवेचन में यह स्पष्ट किया गया है कि सारे ’कर्म’ प्रकृति के द्वारा उसके तीन गुणों के माध्यम से संपन्न किए जाते हैं, किन्तु अहंकार-बुद्धि से मोहित मनुष्य ’मैं कर्ता हूँ ।’ इस मान्यता से ग्रस्त हो जाया करता है ।...
(सारे ’कर्म’ प्रकृति के द्वारा उसके तीन गुणों के माध्यम से संपन्न किए जाते हैं) ऐसा होते हुए भी, इस सच्चाई को केवल बुद्धिमान ही देख पाता है, जबकि जो मनुष्य केवल अपने-आपके ही स्वतन्त्र कर्ता होने की मान्यता से ग्रस्त होता है, दुर्बुद्धि से ग्रस्त वह मूढमति, इसे नहीं देख पाता ।
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[ टिप्पणी :
श्लोक 3, अध्याय 27,
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
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(प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढ-आत्मा कर्ता-अहम्-इति मन्यते ।)
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भावार्थ :
सभी कर्म बिना किसी अपवाद के, प्रकृति के ही (तीन) गुणों के माध्यम से घटित हुआ करते हैं । किन्तु ’मैं-बुद्धि’ के अभिमान से विमूढ मनुष्य ’मैं कर्ता हूँ’ यह मान्य कर बैठते हैं । ]
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’सति’ / ’sati’ - being so, on account of, as a result of,

Chapter 18, śloka 16,

tatraivaṃ sati kartāram
ātmānaṃ kevalaṃ tu yaḥ |
paśyatyakṛtabuddhitvān-
na sa paśyati durmatiḥ ||
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tatra evam sati kartāram
ātmānam kevalam tu yaḥ |
paśyati akṛtabuddhitvāt
na saḥ paśyati durmatiḥ ||
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Meaning :
In the earlier śloka 1 to 15 of this chapter 18,  the nature and essence of 'karma' has been explained in detail, and one who can renounce the Action by a right understanding of how originally a 'karma' / Action takes  place, only because by means of 3 guṇa, (attributes) of  prakṛti arranges so, can easily get rid of the false notion; 'I do / I do not do (perform) any action.'
Further help in this can be obtained from the śloka  27 of chapter 3, where the same truth has been pointed out in the following words:

prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ |
ahaṅkāravimūḍhātmā
kartāhamiti manyate ||
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(prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ |
ahaṅkāravimūḍha-ātmā
kartā-aham-iti manyate ||)
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Meaning :
All actions happen, because by means of 3 guṇa-s (attributes), prakṛti arranges so, but the man under the illusion / false notion of ego and thence by 'I do / I have to do'-idea, accepts himself as the one responsible for them. (If this idea could be seen as a false notion only, one at once renounces the fruit of action as well.)
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