आज का श्लोक, ’शक्यम्’ / ’śakyam’
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’शक्यम्’ / ’śakyam’- जिसे किया / पाया जा सके, जो हो सके, संभव,
अध्याय 11, श्लोक 4,
मन्यसे यदि तच्छक्यं मयाद्र्ष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ।
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(मन्यसे यदि तत् शक्यम् मया द्रष्टुम् इति प्रभो ।
योगेश्वर ततः मे त्वम् दर्शय आत्मानम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
हे प्रभु (कृष्ण)! यदि आप यह मानते हैं कि आपका वह अपना अव्यय स्वरूप देख पाना मेरे लिए संभव है तो हे योगेश्वर ! कृपया मुझे उसके दर्शन कराइये ।
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अध्याय 18, श्लोक 11,
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥
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(न हि देहभृता शक्यम् त्यक्तुम् कर्माणि अशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी सः त्यागी इति अभिधीयते ॥)
--
भावार्थ :
क्योंकि किसी भी देहधारी के लिए यह तो संभव ही नहीं कि वह कर्ममात्र को, सभी कर्मों को त्याग दे । हाँ, यह अवश्य ही संभव है कि वह (कर्म के फल में आसक्ति न रखते हुए, इस प्रकार) कर्मफल को ही त्याग दे, और वह (ऐसा मनुष्य) वास्तविक त्यागी जाना जाता है ।
टिप्पणी :
और इस प्रकार से ’त्याग’ करने की योग्यता उसे ही प्राप्त होती है जो ’सांख्य-योग’ अर्थात् ’बुद्धि-योग’ से ’कर्ता’ के स्वरूप का अनुसंधान करता हुआ एक चैतन्यघन परमात्मा से ही सब कुछ उद्भूत्, अवस्थित और पुनः विलीन होता है, इस निष्ठा को प्राप्त हो जाता है । पुनः इस निष्ठा को प्राप्त होने हेतु भी पात्रता / अधिकारिता का होना अपरिहार्य है । और यह विवेक, वैराग्य, शम-दम आदि षट्-संपत्ति तथा मुमुक्षा के परिपक्व होने पर अपने आप होता है । तब मनुष्य के हृदय में अवस्थित वह तत्व स्वयं ही अनुग्रह करता है, जिसकी आवरण और विक्षेप शक्ति के कारण इससे पहले तक जीव अज्ञान में डूबा हुआ होता है ।
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’शक्यम्’ / ’śakyam’- जिसे किया / पाया जा सके, जो हो सके, संभव,
अध्याय 11, श्लोक 4,
मन्यसे यदि तच्छक्यं मयाद्र्ष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ।
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(मन्यसे यदि तत् शक्यम् मया द्रष्टुम् इति प्रभो ।
योगेश्वर ततः मे त्वम् दर्शय आत्मानम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
हे प्रभु (कृष्ण)! यदि आप यह मानते हैं कि आपका वह अपना अव्यय स्वरूप देख पाना मेरे लिए संभव है तो हे योगेश्वर ! कृपया मुझे उसके दर्शन कराइये ।
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अध्याय 18, श्लोक 11,
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥
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(न हि देहभृता शक्यम् त्यक्तुम् कर्माणि अशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी सः त्यागी इति अभिधीयते ॥)
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भावार्थ :
क्योंकि किसी भी देहधारी के लिए यह तो संभव ही नहीं कि वह कर्ममात्र को, सभी कर्मों को त्याग दे । हाँ, यह अवश्य ही संभव है कि वह (कर्म के फल में आसक्ति न रखते हुए, इस प्रकार) कर्मफल को ही त्याग दे, और वह (ऐसा मनुष्य) वास्तविक त्यागी जाना जाता है ।
टिप्पणी :
और इस प्रकार से ’त्याग’ करने की योग्यता उसे ही प्राप्त होती है जो ’सांख्य-योग’ अर्थात् ’बुद्धि-योग’ से ’कर्ता’ के स्वरूप का अनुसंधान करता हुआ एक चैतन्यघन परमात्मा से ही सब कुछ उद्भूत्, अवस्थित और पुनः विलीन होता है, इस निष्ठा को प्राप्त हो जाता है । पुनः इस निष्ठा को प्राप्त होने हेतु भी पात्रता / अधिकारिता का होना अपरिहार्य है । और यह विवेक, वैराग्य, शम-दम आदि षट्-संपत्ति तथा मुमुक्षा के परिपक्व होने पर अपने आप होता है । तब मनुष्य के हृदय में अवस्थित वह तत्व स्वयं ही अनुग्रह करता है, जिसकी आवरण और विक्षेप शक्ति के कारण इससे पहले तक जीव अज्ञान में डूबा हुआ होता है ।
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’शक्यम्’ / ’śakyam’ - possible, that could be done, happen, possibly,
Chapter 11, śloka 4,
manyase yadi tacchakyaṃ
mayādrṣṭumiti prabho |
yogeśvara tato me tvaṃ
darśayātmānamavyayam |
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(manyase yadi tat śakyam
mayā draṣṭum iti prabho |
yogeśvara tataḥ me tvam
darśaya ātmānam avyayam ||)
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Meaning :
O Lord (kṛṣṇa)! If You think for me that I could possibly see Your That Eternal form, kindly show me,
O yogeśvara ( Lord of yoga) !
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Chapter 18, śloka 11,
na hi dehabhṛtā śakyaṃ
tyaktuṃ karmāṇyaśeṣataḥ |
yastu karmaphalatyāgī
sa tyāgītyabhidhīyate ||
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(na hi dehabhṛtā śakyam
tyaktum karmāṇi aśeṣataḥ |
yastu karmaphalatyāgī
saḥ tyāgī iti abhidhīyate ||)
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Meaning :
As long as the sense of identity with the body persists, it is not possible for one to give up actions completely. But it is always possible to give up the fruits of action and one who understands and can do so, is a tyāgī indeed.
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