आज का श्लोक, ’शरीरम्’ / ’śarīram’
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’शरीरम्’ / ’śarīram’ - शरीर, देह,
अध्याय 13, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥
--
(इदम् शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते ।
एतत् यः वेत्ति तम् प्राहुः क्षेत्रज्ञः इति तत्-विदः ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण बोले -
हे कौन्तेय (अर्जुन) ! इस पञ्चभौतिक शरीर को ’क्षेत्र’ कहा जाता है । और जो इस शरीर का जाननेवाला है, उसे तत्वविद् ’क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं ।
--
टिप्पणी :
स्पष्ट है कि शरीर अपने-आपको जानता है या नहीं, यह प्रश्न उठाने पर शरीर की अपनी स्वतन्त्र चेतन-सत्ता को स्वीकार करना होगा, और फिर अपने-आपको उस सत्ता से भिन्न एक और स्वतन्त्र चेतन सत्ता मानना होगा । इस प्रकार हम एक अन्तहीन विभ्रम में पड़ जाते हैं । किन्तु अपने-आप के एक चेतन सत्ता होने में न तो कोई सन्देह किया जा सकता है, न किसी तर्क या अनुभव से इसे असत्य सिद्ध किया जा सकता है । इस प्रकार से शरीर को जाननेवाली किन्तु उससे स्वतन्त्र चेतन सत्ता ही शरीर को (और शरीर जिस जगत् में है उसको भी) जानती है । शरीर को क्षेत्र कहा गया है तथा यह ’जाननेवाला’ तत्व / चेतना ही क्षेत्रज्ञ कहा जाता है ।
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अध्याय 15, श्लोक 8,
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।
--
(शरीरम् यत् अवाप्नोति यत् च उत्क्राम्यति ईश्वरः ।
गृहीत्वा एतानि संयाति वायुः गन्धान् इव आशयात् ॥)
--
भावार्थ :
देह का स्वामी (जीवात्मा) जिस शरीर को धारण करता और जिसका परित्याग करता है, इन (मन-सहित पाँचों इन्द्रियों / मनःषष्ठीनिन्द्रियाणि - श्लोक 7,) को वैसे ही अपने साथ ले जाता है, जैसे वायु जिस स्थान से आती जाती है, वहाँ की गन्ध को अपने साथ ले जाती है ।
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’शरीरम्’ / ’śarīram’ - physical body,
Chapter 13, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
idaṃ śarīraṃ kaunteya
kṣetramityabhidhīyate |
etadyo vetti taṃ prāhuḥ
kṣetrajña iti tadvidaḥ ||
--
(idam śarīram kaunteya
kṣetram iti abhidhīyate |
etat yaḥ vetti tam prāhuḥ
kṣetrajñaḥ iti tat-vidaḥ ||)
--
Meaning :
bhagavān śrīkṛṣṇa said :
O kaunteya (arjuna) ! The sages who know Reality have termed this physical body made of five elements (pañcabhautika śarīra) as 'field' (kṣetra) while the one (consciousness) that knows this body (as mine) is called the owner (kṣetrajña).
--
Chapter 15, śloka 8,
śarīraṃ yadavāpnoti
yaccāpyutkrāmatīśvaraḥ |
gṛhītvaitāni saṃyāti
vāyurgandhānivāśayāt |
--
(śarīram yat avāpnoti
yat ca utkrāmyati īśvaraḥ |
gṛhītvā etāni saṃyāti
vāyuḥ gandhān iva āśayāt ||)
--
Meaning :
The consciouseness (self) while discarding a body or acquiring a new one, takes along-with it, these (the 5 senses and the mind / manaḥṣaṣṭhīnindriyāṇi - śloka7) in the same way as the wind that takes along-with it the scent of a place, it goes through.
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’शरीरम्’ / ’śarīram’ - शरीर, देह,
अध्याय 13, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥
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(इदम् शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते ।
एतत् यः वेत्ति तम् प्राहुः क्षेत्रज्ञः इति तत्-विदः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण बोले -
हे कौन्तेय (अर्जुन) ! इस पञ्चभौतिक शरीर को ’क्षेत्र’ कहा जाता है । और जो इस शरीर का जाननेवाला है, उसे तत्वविद् ’क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि शरीर अपने-आपको जानता है या नहीं, यह प्रश्न उठाने पर शरीर की अपनी स्वतन्त्र चेतन-सत्ता को स्वीकार करना होगा, और फिर अपने-आपको उस सत्ता से भिन्न एक और स्वतन्त्र चेतन सत्ता मानना होगा । इस प्रकार हम एक अन्तहीन विभ्रम में पड़ जाते हैं । किन्तु अपने-आप के एक चेतन सत्ता होने में न तो कोई सन्देह किया जा सकता है, न किसी तर्क या अनुभव से इसे असत्य सिद्ध किया जा सकता है । इस प्रकार से शरीर को जाननेवाली किन्तु उससे स्वतन्त्र चेतन सत्ता ही शरीर को (और शरीर जिस जगत् में है उसको भी) जानती है । शरीर को क्षेत्र कहा गया है तथा यह ’जाननेवाला’ तत्व / चेतना ही क्षेत्रज्ञ कहा जाता है ।
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अध्याय 15, श्लोक 8,
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।
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(शरीरम् यत् अवाप्नोति यत् च उत्क्राम्यति ईश्वरः ।
गृहीत्वा एतानि संयाति वायुः गन्धान् इव आशयात् ॥)
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भावार्थ :
देह का स्वामी (जीवात्मा) जिस शरीर को धारण करता और जिसका परित्याग करता है, इन (मन-सहित पाँचों इन्द्रियों / मनःषष्ठीनिन्द्रियाणि - श्लोक 7,) को वैसे ही अपने साथ ले जाता है, जैसे वायु जिस स्थान से आती जाती है, वहाँ की गन्ध को अपने साथ ले जाती है ।
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’शरीरम्’ / ’śarīram’ - physical body,
Chapter 13, śloka 1,
śrībhagavānuvāca :
idaṃ śarīraṃ kaunteya
kṣetramityabhidhīyate |
etadyo vetti taṃ prāhuḥ
kṣetrajña iti tadvidaḥ ||
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(idam śarīram kaunteya
kṣetram iti abhidhīyate |
etat yaḥ vetti tam prāhuḥ
kṣetrajñaḥ iti tat-vidaḥ ||)
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Meaning :
bhagavān śrīkṛṣṇa said :
O kaunteya (arjuna) ! The sages who know Reality have termed this physical body made of five elements (pañcabhautika śarīra) as 'field' (kṣetra) while the one (consciousness) that knows this body (as mine) is called the owner (kṣetrajña).
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Chapter 15, śloka 8,
śarīraṃ yadavāpnoti
yaccāpyutkrāmatīśvaraḥ |
gṛhītvaitāni saṃyāti
vāyurgandhānivāśayāt |
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(śarīram yat avāpnoti
yat ca utkrāmyati īśvaraḥ |
gṛhītvā etāni saṃyāti
vāyuḥ gandhān iva āśayāt ||)
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Meaning :
The consciouseness (self) while discarding a body or acquiring a new one, takes along-with it, these (the 5 senses and the mind / manaḥṣaṣṭhīnindriyāṇi - śloka7) in the same way as the wind that takes along-with it the scent of a place, it goes through.
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