आज का श्लोक, ’विस्तारम्’ / ’vistāram’
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’विस्तारम्’ / ’vistāram’ - के विस्तार को,
अध्याय 13, श्लोक 30,
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
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(यदा भूत-पृथक्-भावम् एकस्थम् अनुपश्यति ।
ततः एव च विस्तारम् ब्रह्म सम्पद्यते तथा ॥)
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भावार्थ :
[पिछले श्लोक 29 में कहा गया, : जब कोई इसे देख / जान लेता है कि समस्त कर्म प्रकृति के ही द्वारा किये जा रहे हैं तथा अपने-आप को अकर्ता की भाँति देख / जान लेता है, तो वह वस्तुतः देखता है ।] और तदनुसार यह कि विभिन्न भूतों की पृथकता की भावना का आधिष्ठान एकमेव है और उस एक का ही विस्तार अनेक भूत हैं, तब वह उस ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
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’विस्तारम्’ / ’vistāram’ - the vast expansion of brahma / Brahman.
Chapter 13, śloka 30,
yadā bhūtapṛthagbhāvam-
ekasthamanupaśyati |
tata eva ca vistāraṃ
brahma sampadyate tadā ||
--
(yadā bhūta-pṛthak-bhāvam
ekastham anupaśyati |
tataḥ eva ca vistāram
brahma sampadyate tathā ||)
--
In the last śloka 29, it was said :
when one realizes that all actions (karma) in each and every aspect are done by (prakṛti > 3 attributes) only, and along-with also realizes one-self as not the one that ever does them, he sees indeed (The Reality).
In this present śloka 30, the same truth is reiterated :
And when one realizes that the sense of separation from the other beings comes from the same source which is the only foundation and supports of all beings, one at once identifies one-self with That ( Brahman)
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’विस्तारम्’ / ’vistāram’ - के विस्तार को,
अध्याय 13, श्लोक 30,
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
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(यदा भूत-पृथक्-भावम् एकस्थम् अनुपश्यति ।
ततः एव च विस्तारम् ब्रह्म सम्पद्यते तथा ॥)
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भावार्थ :
[पिछले श्लोक 29 में कहा गया, : जब कोई इसे देख / जान लेता है कि समस्त कर्म प्रकृति के ही द्वारा किये जा रहे हैं तथा अपने-आप को अकर्ता की भाँति देख / जान लेता है, तो वह वस्तुतः देखता है ।] और तदनुसार यह कि विभिन्न भूतों की पृथकता की भावना का आधिष्ठान एकमेव है और उस एक का ही विस्तार अनेक भूत हैं, तब वह उस ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
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’विस्तारम्’ / ’vistāram’ - the vast expansion of brahma / Brahman.
Chapter 13, śloka 30,
yadā bhūtapṛthagbhāvam-
ekasthamanupaśyati |
tata eva ca vistāraṃ
brahma sampadyate tadā ||
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(yadā bhūta-pṛthak-bhāvam
ekastham anupaśyati |
tataḥ eva ca vistāram
brahma sampadyate tathā ||)
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In the last śloka 29, it was said :
when one realizes that all actions (karma) in each and every aspect are done by (prakṛti > 3 attributes) only, and along-with also realizes one-self as not the one that ever does them, he sees indeed (The Reality).
In this present śloka 30, the same truth is reiterated :
And when one realizes that the sense of separation from the other beings comes from the same source which is the only foundation and supports of all beings, one at once identifies one-self with That ( Brahman)
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