आज का श्लोक, ’शरीरे’ / ’śarīre’
___________________________
’शरीरे’ / ’śarīre’ - शरीर में,
अध्याय 1, श्लोक 29,
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥
--
(सीदन्ति मम गात्राणि मुखम् च परिशुष्यति ।
वेपथुः च शरीरे मे रोमहर्षः च जायते ॥)
--
भावार्थ :
मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं, मेरा मुख सूखा जा रहा है, मेरा शरीर काँप रहा है, और मेरे रोएँ (भावना के प्रबल आवेग से) खड़े हो रहे हैं ।
--
अध्याय 2, श्लोक 20,
न जायते म्रियते वा कदाचिन्-
नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
--
(न जायते म्रियते वा कदाचित् -
न अयम् भूत्वा अभविता वा न भूयः ।
अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥)
--
भावार्थ :
आत्मा न तो कभी जन्म लेती है, और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होती है, और ऐसा भी नहीं कि व्यक्त होकर फिर अव्यक्त हो जाती हो (जैसा कि शरीर व्यक्त और अव्यक्त होता है )। यह (आत्मा) जन्म-रहित नित्य, शाश्वत और सदा रहनेवाली वस्तु है , जो कि शरीर के मर जाने या मार दिए जाने से नहीं मरती ।
टिप्पणी :
पाठान्तर भेद से उपरोक्त श्लोक ’अभविता’ / ’भविता’ पद के साथ दो रूपों में पाया जाता है । और यह जानना भी इतना ही रोचक होगा कि दोनों ही दृष्टियों से श्लोक का तात्पर्य एक ही प्राप्त होता है ।
--
अध्याय 11, श्लोक 13,
तत्रैकस्थं जगत्कृत्सं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥
--
(तत्र एकस्थम् जगत् कृत्स्नम् प्रविभक्तम् अनेकधा ।
अपश्यत् देवदेवस्य शरीरे पाण्डवः तदा ॥)
--
भावार्थ :
तब देवताओं के देव भगवान श्रीकृष्ण के शरीर (स्वरूप) में पाण्डव (अर्जुन) ने अनेक रूपों और प्रकारों में प्रविभक्त सम्पूर्ण जगत् को वहाँ एक ही स्थान पर अवस्थित देखा ।
--
’शरीरे’ / ’śarīre’ - in the body,
Chapter 1, śloka 29,
sīdanti mama gātrāṇi
mukhaṃ ca pariśuṣyati |
vepathuśca śarīre me
romaharṣaśca jāyate ||
--
(sīdanti mama gātrāṇi
mukham ca pariśuṣyati |
vepathuḥ ca śarīre me
romaharṣaḥ ca jāyate ||)
--
Meaning :
My limbs give way, my mouth is parched, body trembles, and my hair stand on end.
--
Chapter 2, śloka 20,
na jāyate mriyate vā kadācin-
nāyaṃ bhūtvā:'bhavitā vā na bhūyaḥ |
ajo nityaḥ śāśvato:'yaṃ purāṇo
na hanyate hanyamāne śarīre ||
--
(na jāyate mriyate vā kadācit -
na ayam bhūtvā abhavitā vā na bhūyaḥ |
ajaḥ nityaḥ śāśvataḥ ayam purāṇaḥ
na hanyate hanyamāne śarīre ||)
--
Meaning :
Self is neither born, nor dies at any time. 'Self' neither 'becomes'/ 'appears' nor 'dissolves'/disappears' to manifest again. 'Self' is birth-less, is ever-present, eternal and timeless, and dies not even if the body is slain.
--
Note : With a slight change the śloka is found in two forms; one with the word -'abhavitā' , another with the word - 'bhavitā. and could be interpreted in two ways, but to the same conclusion.
--
Chapter 11, śloka 13,
tatraikasthaṃ jagatkṛtsaṃ
pravibhaktamanekadhā |
apaśyaddevadevasya
śarīre pāṇḍavastadā ||
--
(tatra ekastham jagat kṛtsnam
pravibhaktam anekadhā |
apaśyat devadevasya
śarīre pāṇḍavaḥ tadā ||)
--
Meaning :
Then, pāṇḍava (arjuna) saw in the vision of the Lord of the divine beings (bhagavāna śrīkṛṣṇa), in His body (form), the whole universe at one place, divided into many parts, in many ways and kinds.
--
___________________________
’शरीरे’ / ’śarīre’ - शरीर में,
अध्याय 1, श्लोक 29,
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥
--
(सीदन्ति मम गात्राणि मुखम् च परिशुष्यति ।
वेपथुः च शरीरे मे रोमहर्षः च जायते ॥)
--
भावार्थ :
मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं, मेरा मुख सूखा जा रहा है, मेरा शरीर काँप रहा है, और मेरे रोएँ (भावना के प्रबल आवेग से) खड़े हो रहे हैं ।
--
अध्याय 2, श्लोक 20,
न जायते म्रियते वा कदाचिन्-
नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
--
(न जायते म्रियते वा कदाचित् -
न अयम् भूत्वा अभविता वा न भूयः ।
अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥)
--
भावार्थ :
आत्मा न तो कभी जन्म लेती है, और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होती है, और ऐसा भी नहीं कि व्यक्त होकर फिर अव्यक्त हो जाती हो (जैसा कि शरीर व्यक्त और अव्यक्त होता है )। यह (आत्मा) जन्म-रहित नित्य, शाश्वत और सदा रहनेवाली वस्तु है , जो कि शरीर के मर जाने या मार दिए जाने से नहीं मरती ।
टिप्पणी :
पाठान्तर भेद से उपरोक्त श्लोक ’अभविता’ / ’भविता’ पद के साथ दो रूपों में पाया जाता है । और यह जानना भी इतना ही रोचक होगा कि दोनों ही दृष्टियों से श्लोक का तात्पर्य एक ही प्राप्त होता है ।
--
अध्याय 11, श्लोक 13,
तत्रैकस्थं जगत्कृत्सं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥
--
(तत्र एकस्थम् जगत् कृत्स्नम् प्रविभक्तम् अनेकधा ।
अपश्यत् देवदेवस्य शरीरे पाण्डवः तदा ॥)
--
भावार्थ :
तब देवताओं के देव भगवान श्रीकृष्ण के शरीर (स्वरूप) में पाण्डव (अर्जुन) ने अनेक रूपों और प्रकारों में प्रविभक्त सम्पूर्ण जगत् को वहाँ एक ही स्थान पर अवस्थित देखा ।
--
’शरीरे’ / ’śarīre’ - in the body,
Chapter 1, śloka 29,
sīdanti mama gātrāṇi
mukhaṃ ca pariśuṣyati |
vepathuśca śarīre me
romaharṣaśca jāyate ||
--
(sīdanti mama gātrāṇi
mukham ca pariśuṣyati |
vepathuḥ ca śarīre me
romaharṣaḥ ca jāyate ||)
--
Meaning :
My limbs give way, my mouth is parched, body trembles, and my hair stand on end.
--
Chapter 2, śloka 20,
na jāyate mriyate vā kadācin-
nāyaṃ bhūtvā:'bhavitā vā na bhūyaḥ |
ajo nityaḥ śāśvato:'yaṃ purāṇo
na hanyate hanyamāne śarīre ||
--
(na jāyate mriyate vā kadācit -
na ayam bhūtvā abhavitā vā na bhūyaḥ |
ajaḥ nityaḥ śāśvataḥ ayam purāṇaḥ
na hanyate hanyamāne śarīre ||)
--
Meaning :
Self is neither born, nor dies at any time. 'Self' neither 'becomes'/ 'appears' nor 'dissolves'/disappears' to manifest again. 'Self' is birth-less, is ever-present, eternal and timeless, and dies not even if the body is slain.
--
Note : With a slight change the śloka is found in two forms; one with the word -'abhavitā' , another with the word - 'bhavitā. and could be interpreted in two ways, but to the same conclusion.
--
Chapter 11, śloka 13,
tatraikasthaṃ jagatkṛtsaṃ
pravibhaktamanekadhā |
apaśyaddevadevasya
śarīre pāṇḍavastadā ||
--
(tatra ekastham jagat kṛtsnam
pravibhaktam anekadhā |
apaśyat devadevasya
śarīre pāṇḍavaḥ tadā ||)
--
Meaning :
Then, pāṇḍava (arjuna) saw in the vision of the Lord of the divine beings (bhagavāna śrīkṛṣṇa), in His body (form), the whole universe at one place, divided into many parts, in many ways and kinds.
--
No comments:
Post a Comment