Friday, August 1, 2014

आज का श्लोक, ’शर्म’ / ’śarma’

आज का श्लोक, ’शर्म’ / ’śarma’
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’शर्म’ / ’śarma’ - शान्ति, व्याकुलता से मुक्ति, त्राण,

अध्याय 11, श्लोक 25,

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसनिभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥
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(दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वा एव कालानल-सन्निभानि ।
दिशः न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥)
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भावार्थ :
विकराल दाढ़ोंवाले और प्रलयकाल की अग्नि के सदृश प्रज्वलित हुए आपके मुखों को देखते हुए न तो मैं दिशाओं को जान पा रहा हूँ, और न मुझे सुख ही मिल रहा है, अर्थात् मैं अत्यन्त विकल हूँ । हे जगदाधार, जगत् के आश्रय, कृपया आप मुझ पर प्रसन्न हों!    
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’शर्म’ / ’śarma’ -  respite, peace,

Chapter 11, śloka 25,

daṃṣṭrākarālāni ca te mukhāni
dṛṣṭvaiva kālānalasanibhāni |
diśo na jāne na labhe ca śarma
prasīda deveśa jagannivāsa ||
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(daṃṣṭrākarālāni ca te mukhāni
dṛṣṭvā eva kālānala-sannibhāni |
diśaḥ na jāne na labhe ca śarma
prasīda deveśa jagannivāsa ||)
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Meaning :
Seeing Your mouths with ferocious jaws, tusks burning like the fires of extinction engulfing the whole world, I have no respite, nor peace! O The Lord of the divine beings, and The only Shelter of the whole world, Please have mercy on me.
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