Tuesday, September 30, 2014

13/9,

आज का श्लोक,
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अध्याय 13, श्लोक 9,

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
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(असक्तिः अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यम् च समचित्तत्वम्-इष्ट-अनिष्ट-उपपत्तिषु ॥)
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भावार्थ : पुत्र, स्त्री, घर-परिवार इत्यादि के प्रति राग तथा ममत्व (’मेरे होने’ की भावना) का अभाव तथा इष्ट और अनिष्ट, प्रिय-अप्रिय वस्तु प्राप्त होने पर चित्त का समत्व में रहना, ...
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Chapter 13, श्लोक 9,

asaktiranabhiṣvaṅgaḥ
putradāragṛhādiṣu |
nityaṃ ca samacittatva-
miṣṭāniṣṭopapattiṣu ||
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(asaktiḥ anabhiṣvaṅgaḥ
putradāragṛhādiṣu |
nityam ca samacittatvam
iṣṭa-aniṣṭa-upapattiṣu ||)
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Meaning : absence of attachment towards one's wife, children and family, even the place of living,  lack of possessiveness and ownership towards the things, and even-ness of mind in the face of pleasant or unpleasant situations.
(These are the the qualifications of an aspirant that enable him make progress in spiritual growth.)
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18/69,

आज का श्लोक,
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अध्याय 18, श्लोक 69,

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥
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(न च तस्मात् मनुष्येषु कश्चित् मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मात् अन्यः प्रियतरः भुवि ॥)
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भावार्थ :
(पिछले श्लोक में जिसका वर्णन किया गया), मनुष्यों में उससे बढ़कर मेरे लिए और कोई नहीं है, और न उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला कोई है । सम्पूर्ण पृथ्वी पर भी मुझको उससे अधिक प्रिय होनेवाला कोई और नहीं हो सकता ।
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Chapter 18, śloka 69,

na ca tasmānmanuṣyeṣu
kaścinme priyakṛttamaḥ |
bhavitā na ca me tasmā-
danyaḥ priyataro bhuvi ||
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(na ca tasmāt manuṣyeṣu
kaścit me priyakṛttamaḥ |
bhavitā na ca me tasmāt
anyaḥ priyataraḥ bhuvi ||)
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Meaning :
(In continuation to the last śloka 68 of this Chapter), Other than him there is no one among men, who has done My work that I love supreme. And on the earth, there will no one other than him, that would be My Most beloved.    
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18/68,

आज का श्लोक,
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अध्याय 18, श्लोक 68,

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥
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(यः इमम् परमम् गुह्यम् मद्भक्तेषु अभिधास्यति ।
भक्तिम् मयि पराम् कृत्वा माम् एव एष्यति असंशयः ॥)
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भावार्थ :
जो इस परम गूढ तत्व को अत्यन्त प्रीतिपूर्वक मेरे भक्तों के समक्ष प्रस्तुत करेगा, वह मेरी ही परा भक्ति करता हुआ मुझको ही प्राप्त होगा इसमें सन्देह नहीं ।
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Chapter 18, śloka 68,

ya imaṃ paramaṃ guhyaṃ
madbhakteṣvabhidhāsyati |
bhaktiṃ mayi parāṃ kṛtvā
māmevaiṣyatyasaṃśayaḥ ||
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(yaḥ imam paramam guhyam
madbhakteṣu abhidhāsyati |
bhaktim mayi parām kṛtvā
mām eva eṣyati asaṃśayaḥ ||)
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Meaning :
One, who in earnest devotion devotion dedicates this most secret (wisdom) to My devotees, will offer ME worship Supreme through this, and no doubt he shall attain ME.
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18/18,

आज का श्लोक,
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अध्याय 18, श्लोक 18,
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधं कर्मसङ्ग्रहः ॥
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(ज्ञानम् ज्ञेयम् परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणम् कर्म कर्ता इति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥)
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भावार्थ :
ज्ञान, ज्ञेय, तथा उनका ज्ञाता ये तीनों कर्म के प्रारंभ होने के लिए हेतु / प्रेरक-तत्व हैं, जबकि साधन (करण अर्थात् सहायक तत्व), कृत्य एवं अपने आपको उनके करनेवाला समझनेवाली (अभिमानी) बुद्धि कर्ता है । इस साधन, कृत्य तथा कर्ता को सम्मिलित रूप से कर्मसंग्रह कहा जाता है ।
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Chapter 18, śloka 18,

jñānaṃ jñeyaṃ parijñātā
trividhā karmacodanā |
karaṇaṃ karma karteti
trividhaṃ karmasaṅgrahaḥ ||
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(jñānam jñeyam parijñātā
trividhā karmacodanā |
karaṇam karma kartā iti
trividhaḥ karmasaṃgrahaḥ ||)
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Meaning :
Knowledge (of the objective kind) / information (jñāna), object of knowledge (jñeya), and the jñātā, -the entity (who claims to know the object and the knowledge both), these three prompt an action, while the instrument / means of the action (karaṇa), the act (karma) itself and the intellect that claims oneself as the agent of action (kartā), these three together constitute the foundation (support) ( karmasaṃgrah) of the action.  
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18/5,

आज का श्लोक,
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अध्याय 18, श्लोक 5,

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तओअश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥
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(यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यम् कार्यम् एव तत् ।
यज्ञः दानम् तपः च एव पावनानि मनीषिणाम् ॥)
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भावार्थ :
यज्ञ, दान तथा तप जैसे कर्म को कभी नहीं त्यागना चाहिए, उन्हें अवश्य करना चाहिए । यज्ञ दान तथा तप मनीषियों (गंभीर मनन-चिंतन करनेवालों) के चित्त को पावन ही करते हैं ।
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Chapter 18, śloka 5,

yajñadānatapaḥkarma
na tyājyaṃ kāryameva tat |
yajño dānaṃ taoaścaiva
pāvanāni manīṣiṇām ||
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(yajñadānatapaḥkarma
na tyājyam kāryam eva tat |
yajñaḥ dānam tapaḥ ca eva
pāvanāni manīṣiṇām ||)
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Meaning :
Acts of sacrifice (yajña), charity / helping the needy (dāna), and austerity (tapa) should never be given up. Sacrifice, charity and austerity always purify the minds of the earnest seekers of Reality.
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Monday, September 29, 2014

18/3,

आज का श्लोक,
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अध्याय 18, श्लोक 3,

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥
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(त्याज्यम् दोषवत् इति एके कर्म प्राहुः मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यम् इति च अपरे ॥)
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भावार्थ :
कुछ मनीषी (मननशील) कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं इसलिए (स्वरूप से ही) त्याज्य हैं । अन्य कुछ कहते हैं कि अनेक कर्म यद्यपि त्याज्य हैं, किन्तु यज्ञ तप एवं दान त्याज्य नहीं (कर्तव्य) हैं ।
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टिप्पणी :
जो मनीषी कर्म को स्वरूप से ही त्याज्य कहते हैं, वे ऐसा इसलिए कहते हैं कि कर्म (करने) का संकल्प ही मनुष्य के मन में कर्तृत्व का, अपने स्वतन्त्र कर्ता होने का भ्रम उत्पन्न कर देता है । यह कर्तृत्व की भावना ही मूलतः आत्मा (स्वरूप) पर आवरण बन जाती है । और फिर कर्तृत्व की भावना को, कर्तापन के अभिमान को कैसे त्यागें, यह प्रश्न मन में पैदा होता है । फिर कहा जाता है कि सारे कर्म ईश्वर को समर्पित कर दो, या ईश्वर-समर्पित इस बुद्धि से करो कि मैं तो निमित्त मात्र हूँ । किन्तु यदि कोई प्रारंभ में ही इस बात का विचार करता है कि वास्तविक ’कर्ता’ कौन है, तो उसे अपनी मौलिक भूल स्पष्ट हो जाती है । कर्तृत्व के अभिमान से अभिभूत होना ही मौलिक भूल है । यदि हम इस मौलिक भूल को समझ लेते हैं तो ईश्वर को समर्पित करने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है । और यदि नहीं समझते तो फिर ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप तथा आस्था अनास्था का प्रश्न भी उत्पन्न हो जाता है । फिर ’मेरा ईश्वर’ / ’आपका ईश्वर’ का प्रश्न भी ।      
जो अन्य मनीषी कहते हैं कि यज्ञ दान तथा कर्म या यज्ञ, दान एवं तप इन तीन रूपों में किया जानेवाला कर्म कभी त्याज्य नहीं है, इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें ईश्वर-प्रदत्त कर्तव्य कर्म समझते हुए यथाशक्ति कर्तृत्व की भावना से रहित होकर किया जाना चाहिए ।
इस प्रकार दोनों दृष्टियों में अविरोध ही है ।
पुनः शास्त्रों में कर्म के प्रकार के आधार पर उसका वर्गीकरण काम्य, विहित, और निषिद्ध तथा त्याज्य, आदि में किया जाता है । कर्म (तथा कर्मफल) का एक वर्गीकरण संचित, प्रारब्ध तथा आगामी के आधार पर भी किया जाता है ।  
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Chapter 18, śloka 3,

tyājyaṃ doṣavadityeke
karma prāhurmanīṣiṇaḥ |
yajñadānatapaḥkarma
na tyājyamiti cāpare ||
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(tyājyam doṣavat iti eke
karma prāhuḥ manīṣiṇaḥ |
yajñadānatapaḥkarma
na tyājyam iti ca apare ||)
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Meaning :
Some learned men assert that because no action is flawless, one should abstain from all action, while others insist that one should never eschew / escape from performing action such as the sacrifice, charity, and austerity.  are
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Note :
The first view stresses that because the notion 'I do, I perform action therefore the same happens' creates a false (sense of) a 'me', of an agent responsible for the action, and this sense gains weitage, the mind gets overwhelmed with this false sense of 'me'. Thought assumes this 'me' as an independent entity who is the sole authority. This confusion on the part of thought is further strengthened by the idea of 'choice of action'. What is worth-done, what need not, what should not be done in any condition? This gives rise to the idea of freedom, One tends to think; I am free to do / to not do, and the basic flaw in this sequence of logic is lost sight of. What is the entity 'me'? Once the idea that 'I am free to do / not to do' takes place in the mind, the 'I' springs up in thought and assumes an (apparently, not really) independent existence. This 'I' is but a thought only, but of a specific kind, and once possessed by this one could not escape confusion. So action is to be given up in its essence that creates the sense of 'I', and no action is exception to this.
And the first view tells us to carry on all action (karma) that is synonymous to sacrifice, charity and austerity, because that are 'dharma', ordained and part of our essential nature, we can not and should not overlook or escape from them, because that is part of the cosmic functioning. Obviously such action(s) could be performed far more in a better way keepin the sense of 'me', the one who performs them, -forgotten. This way we are free from sin. Because sin is incurred when there is lapse of duty, - deliberately or because of lazyness.
The two views are thus not paradoxical, and stress upon the same teaching.
Again, the 'karma'(and 'karmaphala' / fruits of action) is defined and classified in various ways as kāmya (to fulfill a wish), vihita (duty, as advised by the scriptures), niṣiddha (prohibited by scriptures) and, tyājya (to be shunned). There is still another way of classifying 'karma' as saṃcita (accumulared, done in the past), prārabdha (that which as the effect of the past has started bearing fruit in the present), and āgāmī (that which will bear fruit in future).
Freedom of choice :
Because all tendencies (saṃskāra) are the result of the past, it is not possible for man to affect them in any way. And the external conditions are also beyond one's control. The only way available therefore is to find out exactly 'Who' is affected by 'karma'? Namely, the consciousness / 'me' / sense of 'me'. Having once understood this, one can stay aloof and unaffected. This however needs interest, sense of urgency and earnestness. Maturity is not attained in a moment, though one could sure and readily attain the insight and wisdom .  
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Sunday, September 28, 2014

16/20,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 20,

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिं ॥
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(आसुरीम् योनिम् आपन्नाः मूढाः जन्मनि जन्मनि ।
माम् अप्राप्य एव कौन्तेय ततः यान्ति अधमाम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
वे मूढ, जन्म-जन्म में आसुरी योनि को ही प्राप्त होते हैं, अर्थात् आसुरी गर्भ से जन्म लेते हैं । वे मुझे नहीं प्राप्त होते, और हे कौन्तेय (अर्जुन) ! इसलिए वे अधम गति को ही प्राप्त हो जाते हैं
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Chapter 16, śloka 20,

āsurīṃ yonimāpannā
mūḍhā janmani janmani |
māmaprāpyaiva kaunteya
tato yāntyadhamāṃ gatiṃ ||
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(āsurīm yonim āpannāḥ
mūḍhāḥ janmani janmani |
mām aprāpya eva kaunteya
tataḥ yānti adhamām gatim ||)
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Meaning :
Birth after birth, those dull-witted enter and are born in the evil wombs (āsurī yoni), and so, instead of attaining ME, keep going to inferior and lower planes of existence.    
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16/16,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 16,

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥
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(अनेकचित्तविभ्रान्ताः मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरके अशुचौ ॥)
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भावार्थ :
अनेक प्रकार के चित्तों से भ्रमित हुए, मोहित-बुद्धि के कारण अज्ञान-जाल में फँसे, विषयभोगों में संलिप्त रहनेवाले, अपावन नरकों में गिरते हैं ।
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Chapter 16, śloka 16,

anekacittavibhrāntā
mohajālasamāvṛtāḥ |
prasaktāḥ kāmabhogeṣu
patanti narake:'śucau ||
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(anekacittavibhrāntāḥ
mohajālasamāvṛtāḥ |
prasaktāḥ kāmabhogeṣu
patanti narake aśucau ||)
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Meaning :
Caught into so many confusions and doubts, trapped into ignorance because of deluded mind, craving after and clinging to sensuous pleasures, fall into the hell unholy.
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16/12,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 12,

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥
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(आशापाशशतैः बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थम् अन्यायेन अर्थसञ्चयान् ॥)
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भावार्थ :
सैंकड़ों आशाओं के पाश में बंधे हुए, कामना और क्रोध से मोहित, अन्यायपूर्वक धनसंचय करना चाहते हैं ताकि अपनी कामनाओं और विषयभोगों को तृप्त कर सकें ।
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Chapter 16, śloka 12,

āśāpāśaśatairbaddhāḥ
kāmakrodhaparāyaṇāḥ |
īhante kāmabhogārtha-
manyāyenārthasañcayān ||
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(āśāpāśaśataiḥ baddhāḥ
kāmakrodhaparāyaṇāḥ |
īhante kāmabhogārtham
anyāyena arthasañcayān ||)
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Meaning :
(They) Captivated by a hundred (so many) hopes, addicted to pleasures and anger, seek to hoard wealth to fulfill those many cravings after sensuous pleasures.
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16/11,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 11,

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥
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(चिन्ताम् अपरिमेयाम् च प्रलयान्ताम् उपाश्रिताः ।
कामोपभोगपरमाः एतावत् इति निश्चिताः ॥)
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भावार्थ :
मृत्यु तक बनी रहनेवाली असंख्य चिन्ताओं से ग्रस्त, विषयभोगों में तत्पर रहनेवाले, और इस बारे में कि ’इससे अधिक और क्या है?’ बिल्कुल सुनिश्चित ।
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Chapter 16, śloka 11,

cintāmaparimeyāṃ ca
pralayāntāmupāśritāḥ |
kāmopabhogaparamā
etāvaditi niścitāḥ ||
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(cintām aparimeyām ca
pralayāntām upāśritāḥ |
kāmopabhogaparamāḥ
etāvat iti niścitāḥ ||)
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Meaning :
Possessed by innumerable worries that stay on until death, extreme enjoyment of the sense-objects is their only aim in the life.  
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16/10,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 10,

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥
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कामम् आश्रित्य दुष्पूरम् दम्भमानमदान्विताः ।
मोहात् गृहीत्वा असद्ग्राहान् प्रवर्तन्ते अशुचिव्रताः ॥
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भावार्थ :
दुष्पूर कामना के आश्रित हुए, दम्भ तथा गर्व, और मद (मूढ-हठ) से युक्त अज्ञान के वशीभूत हुए, मिथ्या सिद्धान्तों को (प्रामाणिक सत्य की भाँति) ग्रहण करते हुए भी स्वयं भ्रष्ट आचरणों में संलग्न रहते हैं तथा संसार में भी उसका प्रचार करते हैं ।
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टिप्पणी :
भगवान् बुद्ध कहते हैं - 'तृष्णा दुष्पूर है, (तन्हा दुप्पूरम्)' । यहाँ तृष्णा कामना की समानार्थी है । वे आसुरी प्रवृत्ति वाले जिनका वर्णन इस अध्याय के श्लोक 7 से श्लोक 18 तक किया गया है, इसी दुष्पूरणीय तृष्णा के वशीभूत होने से, ऐसा आचरण करते हैं ।
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Chapter 16, śloka 10,

kāmamāśritya duṣpūraṃ
dambhamānamadānvitāḥ |
mohādgṛhītvāsadgrāhān-
pravartante:'śucivratāḥ ||
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kāmam āśritya duṣpūram
dambhamānamadānvitāḥ |
mohāt gṛhītvā asadgrāhān
pravartante aśucivratāḥ ||
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Meaning :
Being slave to unquenchable (duṣpūra) desire (kāma), possessed by false pride (dambha) and ego (māna) associated with conceit (mada) / arrogance. Because of the deluded mind, having accepted and clinging to false notions, prompted by evil resolves, they work for those aims.
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16/9,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 9,

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥
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(एताम् दृष्टिम् अवष्टभ्य नष्टात्मानः अल्पबुद्धयः ॥
प्रभवन्ति उग्रकर्माणः क्षयाय जगतः अहिताः ॥)
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भावार्थ :
(पिछले दो श्लोकों में जिनका वर्णन किया गया) इनकी भ्रमित दृष्टि को आधार बनाकर अपनी आत्मा को नष्ट करने वाले, क्रूर कर्म करनेवाले अल्पबुद्धि जगत् के अहित और विनाश करने में तत्पर रहते हैं ।  
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Chapter 16, śloka 9,

etāṃ dṛṣṭimavaṣṭabhya
naṣṭātmāno:'lpabuddhayaḥ |
prabhavantyugrakarmāṇaḥ
kṣayāya jagato:'hitāḥ ||
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(etām dṛṣṭim avaṣṭabhya
naṣṭātmānaḥ alpabuddhayaḥ ||
prabhavanti ugrakarmāṇaḥ
kṣayāya jagataḥ ahitāḥ ||)
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Meaning :
(Taking a clue from the confused views of such ignorant and audacious men of evil proclivities / āsurī prakṛti, as described in the earlier śloka 7 and 8), These dim-witted people, lacking conscience of their own, having destroyed themselves, keep on destroying the whole world also through their cruel deeds.
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Saturday, September 27, 2014

16/8,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 8,

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥
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(असत्यम् अप्रतिष्ठम् ते जगत् आहुः अनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतम् किम् अन्यत् कामहैतुकम् ॥)
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भावार्थ :
(पिछले श्लोक 7 में आसुरी प्रकृतिवाले जिन मनुष्यों का वर्ण किया गया), वे कहते हैं कि जगत् का कोई स्रष्टा नहीं है, कोई सुनिश्चित स्थिर अधिष्ठान नहीं है और न ही कोई शासन करनेवाला है जो इसका संचालन करनेवाला, सूत्रधार हो । यह (जगत्) किसी दूसरे से उत्पन्न नहीं हुआ, और कामनाओं की तुष्टि करने के अतिरिक्त इसका कोई अन्य हेतु नहीं है ।
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टिप्पणी :
इसे नास्तिक दर्शन का मूल सिद्धान्त कहा जा सकता है । आसुरी प्रकृतिवाले मानते हैं कि जगत् असत्य है, किन्तु उनका यह कथन आधा-अधूरा है, क्योंकि वे जगत् को अनित्य नहीं कहते । इस बारे में विचार करने की आवश्यकता ही उन्हें नहीं अनुभव होती । क्योंकि जिस जगत् को वे असत्य कहते हैं उसके बारे में आगे और कुछ कहने के लिए कारण ही कहाँ रह जाता है? जब आप स्वप्न को असत्य कह देते हैं तो उसके नित्य-अनित्य होने का तो प्रश्न ही नहीं रह जाता । इसलिए जब वे कहते हैं कि जगत् का कोई सुदृढ आधारभूत अधिष्ठान नहीं है, जिसमें उसकी प्रतिष्ठा / अवस्थिति सुनिश्चित हो सके, तो यह उस पहली मान्यता का ही स्वाभाविक निष्कर्ष है (कि जगत् असत्य है) । और इसलिए तीसरा निष्कर्ष कि इसका कोई सूत्रधार (ईश्वर), इस जगत्-रूपी उपक्रम को संचालित करनेवाला, इसकी व्यवस्था और देख-रेख करनेवाला भी कोई नहीं है, तो यह भी पिछले निष्कर्ष से प्राप्त होनेवाला एक और निष्कर्ष है । फिर जगत् के होने का क्या कारण / प्रयोजन / उद्देश्य हो सकता है? यही कि कामनाओं की तुष्टि करते हुए निरन्तर सुखी रहा जाए । आसुरी प्रकृति वाले इस तर्क को और आगे नहीं बढ़ाते क्योंकि उसके बाद उन्हें इस बारे में सोचने का कोई औचित्य ही नहीं प्रतीत होता ।          
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Chapter 16, śloka 8,

asatyamapratiṣṭhaṃ te
jagadāhuranīśvaram |
aparasparasambhūtaṃ
kimanyatkāmahaitukam ||
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(asatyam apratiṣṭham te
jagat āhuḥ anīśvaram |
aparasparasambhūtam
kim anyat kāmahaitukam ||)
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Meaning :
They, (as described in the previous śloka 7, those with inherent evil tendencies / āsurī prakṛti),  claim that the world is untrue, -in fact is non-existent as such, and neither there is a firm ground that could support and keep secure the world. And obviously, there is no-one, no agency, no authority (īśvara) that has brought the world into existence, and so (even if there is a world) the world exists on its own (aparasparasambhūtam),  looks after the world, and its many activities (of innumerable kinds), which keep going on as we tend to believe. So what could be the possible justification to explain its purpose? None, except to live happily, fulfilling the desires (as long as we are alive).      
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Note :
This śloka 8, explains in volumes about the basis of most of this day 'isms' and ideologies, be they of so-called believers or non-believers. They have reached the pinnacle of human intellect, yet seem to refuse entering the Intelligence. Because spontaneous intelligence clearly points out to us that one's own existence, though not defined (bu always self-evident) is the firm basis that is inseparable with the world where-in we live and tend to think we are this specific body with a particular name and form. Yet this happens in the waking state only and there are other mental states also in my experience, where 'I' find 'myself' in another quite distinct 'world' which we call dream. But then, we are so obsessed with the reality of the waking-state existence that we take it the only reality and the other states of the mind as illusory, fanciful or just unreal. True, those who live on the sense-levels only, do find a common world to 'us' which is perceived through senses only. This physical world. But is not there a fine and extremely strict 'rule' that governs the laws of the science. Is not the rule itself an evidence of an Intelligence that is the rule and the foundation and firm ground of the rule? Is That Intelligence of a mechanical kind? Or, possibly of an artificial one? Is not That Intelligence (inherent in) all that we perceive and we ourselves are? Could we possibly deny and distinguish between Existence and Intelligence?
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15/11,

आज का श्लोक,
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अध्याय 15, श्लोक 11,

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥
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(यतन्तः योगिनः च एनम् पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम् ।
यतन्तः अपि अकृतात्मानः न एनम् पश्यन्ति अचेतसः ॥)
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भावार्थ :
(यद्यपि) इस आत्मतत्व को, इसके लिए यत्न करनेवाले योगी अपने ही अन्तर्हृदय में अवस्थित देखते हैं, (किन्तु) ऐसे अज्ञानीजन, जिन्होंने अपने अन्तःकरण को वैराग्य के अभ्यास द्वारा शुद्ध नहीं किया होता (ऐसे अकृतजन) बहुत यत्न करते हुए भी इसे नहीं देख पाते ।
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Chapter 15, śloka 11,

yatanto yoginaścainaṃ
paśyantyātmanyavasthitam |
yatanto:'pyakṛtātmāno
nainaṃ paśyantyacetasaḥ ||
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(yatantaḥ yoginaḥ ca enam
paśyanti ātmani avasthitam |
yatantaḥ api akṛtātmānaḥ
na enam paśyanti acetasaḥ ||)
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Meaning :
The aspiring yogī-s who practice discrimination (viveka) and dispassion (vairāgya) see this Self in their own heart as the ever-abiding Reality. But those ignorant, who have not cleansed and purified their heart and mind, despite making great efforts towards the same, can never see this Self, .    
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15/4,

आज का श्लोक,
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अध्याय 15, श्लोक 4,

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥
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(ततः पदम् तत् परिमार्गितव्यम्
यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः ।
तम् एव आद्यम् पुरुषम् प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥)
--
भावार्थ :
(पिछले श्लोक 3 में कहे गए ’असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा’ से आगे तुरन्त बाद  यह श्लोक ’ततः’ से प्रारम्भ होता है।  दृढ वैराग्यरूपी शस्त्र से उस संसार-रूपी, या मन-रूपी अश्वत्थ को काटकर), तब उस पद के संबंध में ध्यान से अनुसंधान किया जाना चाहिए, जिसमें गए हुए पुनः संसार में नहीं लौटते । उसी आद्य पुरुष की शरण में (मैं) जाता हूँ जहाँ से / जिससे कि संसार-रूपी (या मन-रूपी) पुरातन प्रवृत्ति उद्भूत् होती है ।
--
टिप्पणी :
यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा ’प्रपद्ये’ शब्द का प्रयोग दृष्टव्य है । ’प्रपद्ये’ का अर्थ है,  ’की दिशा में जाता हूँ’ ।
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Chapter 15, śloka 4,

tataḥ padaṃ tatparimārgitavyaṃ
yasmingatā na nivartanti bhūyaḥ |
tameva cādyaṃ puruṣaṃ prapadye
yataḥ pravṛttiḥ prasṛtā purāṇī ||
--
(tataḥ padam tat parimārgitavyam
yasmin gatāḥ na nivartanti bhūyaḥ |
tam eva ādyam puruṣam prapadye
yataḥ pravṛttiḥ prasṛtā purāṇī ||)
--
Meaning :
(The previous śloka 3, ends with the words 'asaṅgaśastreṇa dṛḍhena chittvā', and immediately there-after, this śloka 4, starts with the word 'tataḥ', meaning 'next', 'then' ... having cut asunder this aśvattha-tree, which is either the world of our perceptions and its image in the mind, or the mind itself made of diverse modes ’vṛtti-s’, then, ...)
Then one should inquire with keen attention and earnestness into that state (the Brahman), which having once attained, one never returns to this mundane existence full of sorrow. He (That State) is the primordial puruṣa eternal, Who is the origin, from where emanate  the everlasting tendencies in the form of mind / world.
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Note :
The word 'prapadye' used here by Lord śrīkṛṣṇa, is evident that He preaches, what He practices.
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Friday, September 26, 2014

13/11,

आज का श्लोक,
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अध्याय 13, श्लोक 11,

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
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(अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतत् ज्ञानम् इति प्रोक्तम् अज्ञानम् यत् अतः अन्यथा ॥)
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भावार्थ :
अध्यात्मज्ञान में नित्य अवस्थिति, तत्वज्ञान के तात्पर्य का दर्शन, इसे ज्ञान कहा जाता है, और जो इनसे भिन्न है, उसे अज्ञान (कहा जाता है) ।  
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टिप्पणी :
अधि + आत्म, के अनुसार ’मैं’- वृत्ति के सक्रिय होने से पहले जो है, वह ’अध्यात्म’ है, ’मैं’-वृत्ति अनित्य है, जबकि ’अध्यात्म’ नित्य है । इस प्रकार से नित्य-अनित्य का विवेक अध्यात्मज्ञान है, और तत्वज्ञान के तात्पर्य का दर्शन, इन दोनों का योग ज्ञान है । तत्वज्ञान के तात्पर्य को समझने से पहले ’ततम्’ को समझना आवश्यक है क्योंकि जो ’ततम्’ है, वही ’तत्व’ है ।
इसे इस प्रकार से देखें :
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अध्याय 2, श्लोक 17,

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
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भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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अध्याय 8, श्लोक 22,

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
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(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं,  वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
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अध्याय 9, श्लोक 4,

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥
--
(मया ततम् इदम् सर्वम् जगत् अव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥)
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भावार्थ :
मुझ अव्यक्तस्वरूप (निराकार) से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है । और सम्पूर्ण भूत मेरे ही आश्रय से मुझमें स्थित हैं, न कि मैं उनमें ।
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अध्याय 11, श्लोक 38,

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
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(त्वम् आदिदेवः पुरुषः पुराणः
त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम् ।
वेत्ता असि वेद्यम् च परम् निधानम्
त्वया ततम् विश्वम् अनन्तरूप ॥
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भावार्थ :
आप आदिदेव हैं, पुरुष सनातन हैं, आप इस जगत् के परम आश्रय हैं । आप ही एकमात्र जाननेवाले (ज्ञाता), जिसे जाना जाता है वह जानने-योग्य तत्व (ज्ञेय), तथा परम धाम हैं, हे अनन्तरूप! समस्त विश्व आपसे ओत-प्रोत है ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,)  जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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Chapter 13, śloka 11,

adhyātmajñānanityatvaṃ
tatvajñānārthadarśanam |
etajjñānamiti prokta-
majñānaṃ yadato:'nyathā ||
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(adhyātmajñānanityatvam
tattvajñānārthadarśanam |
etat jñānam iti proktam
ajñānam yat ataḥ anyathā ||)
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Meaning :
The Self that is prior to the sense of 'I', where-from this sense originates and associated with the physical body sports in the body, is 'adhyātma'. The awareness of this Self and knowing that Self is eternal, while the sense of 'I' is transitory is 'adhyātmajñānanityatvaṃ'. Knowing and seeing the 'tat' / 'Brahman' / 'tatva'/ 'tatam' everywhere within oneself and in the world outside oneself, is 'tatvajñānārthadarśanam'. To understand this better let us have a look at the following :
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Chapter 2, śloka 17,

avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 8, śloka 22, 

puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
--
(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
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Meaning :
O pārtha  (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him, is attained only through devotion extreme.
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Chapter 11, śloka 38,

tvamādidevaḥ puruṣaḥ purāṇa-
stvamasya viśvasya paraṃ nidhānam |
vettāsi vedyaṃ ca paraṃ ca dhāma
tvayā tataṃ viśvamanantarūpa||
--
(tvam ādidevaḥ puruṣaḥ purāṇaḥ
tvam asya viśvasya param nidhānam |
vettā asi vedyam ca param nidhānam
tvayā tatam viśvam anantarūpa ||
--
Meaning :
You are the Divinity prime (ādideva), Spirit (puruṣa) Eternal (purāṇa), You are The abode supreme of this All (viśva), O Manifest in Infinite forms (anantarūpa) ! You pervade all this existence.
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Chapter 18, śloka 46,

yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
--
(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
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Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
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13/5,

अध्याय 13, श्लोक 5,

महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्चचेन्द्रियगोचराः ॥
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(महाभूतानि अहङ्कारः बुद्धिः अव्यक्तम् एव च ।
इन्द्रियाणि दशैकम् च पञ्च च इन्द्रियगोचराः ॥)
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भावार्थ :
पाँच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी), अहंकार, बुद्धि, एवं अव्यक्त, दस इन्द्रियाँ, एक मन, तथा पाँच इन्द्रियगम्य तत्व, ..
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टिप्पणी :
इस अध्याय के प्रथम श्लोक में इस देह को ’क्षेत्र’ की, तथा इसे ’जाननेवाले’ को ’क्षेत्रज्ञ’ की संज्ञा दी गई । दूसरे श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी भिन्न भिन्न क्षेत्रों में ’क्षेत्रज्ञ’ मुझको ही जानो । यह ’क्षेत्र’ किस प्रकार का है, किस स्वरूप का है, तथा उसके विकार क्या हैं और उनका परिणाम (प्रभाव) क्या है इस बारे में संक्षेप में वे आगे कहेंगे, इसे वे श्लोक तीन में ध्यान से सुनने के लिए अर्जुन से कहते हैं । श्लोक चार में कुछ अतिरिक्त जानकारी इस संबंध में है । इस श्लोक 5 में वे इस ’क्षेत्र’ के मूल उपादानों का वर्णन करते हैं ।
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Chapter 13, śloka 5,

mahābhūtānyahaṅkāro
buddhiravyaktameva ca |
indriyāṇi daśaikaṃ ca
pañcacendriyagocarāḥ ||
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(mahābhūtāni ahaṅkāraḥ
buddhiḥ avyaktam eva ca |
indriyāṇi daśaikam ca
pañca ca indriyagocarāḥ ||)
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Meaning :
This body (’kṣetra’) is made of / comprises of 5 gross elements (5 mahābhūta-s), ego (ahaṅkāra), intellect (buddhi), the potential latent as the seed (avyakta), 10 senses (indriya-s), 1 mind (manaḥ / citta), and the 5 kind of elements (That are perceived, through the 5 senses, (tanmātrā-s).
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Note :
These all together constitute the 'observed' (kṣetra).  
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12/5,

आज का श्लोक,
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अध्याय 12, श्लोक 5,

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यतासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
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(क्लेशः अधिकतरः तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिः दुःखम् देहवद्भिः अवाप्यते ॥)
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भावार्थ :
(ईश्वर को उसके) अव्यक्त स्वरूप में ग्रहणकर, उस आधार पर उपासना करनेवाले अपेक्षाकृत अधिक क्लेश उठाते हैं, क्योंकि देहभाव में बद्ध के लिए उस निराकार अव्यक्त स्वरूप का बोध ग्रहण कर पाना कष्ट का ही कारण होता है ।
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टिप्पणी :
ईश्वर का चिन्तन दो प्रकार से किया जाता है । प्रथम यह कि ऐसी किसी चेतन सत्ता के अस्तित्व का भान होना, जो जीव की तुलना में अनन्त सामर्थ्यवान है, जो जीव को जानती है और जीव के सम्पूर्ण अस्तित्व का एकमात्र आश्रय है, किन्तु जीव उसे नहीं जान सकता, क्योंकि जीव की बुद्धि सीमित और अल्पप्राय है । यहाँ तक कि उस बुद्धि को कौन संचालित और प्रेरित करता है, इसका जीव स्वयं अनुमान या कल्पना तक नहीं कर सकता । फिर भी वह इस तथ्य पर ध्यान देकर उस परम सत्ता के अस्तित्व के प्रति जागरूक तो हो ही सकता है । किन्तु इसके बाद प्रश्न उठता है कि जीव उसके यथार्थ स्वरूप से कैसे परिचित हो? तब उसके बारे में उसे ’अव्यक्त’ कह देने से मात्र से तो उसके दर्शन नहीं हो जाते । इसलिए उसके अव्यक्त स्वरूप (को जानने) के प्रति आसक्त बुद्धि रखनेवाले प्रायः क्लेशों में पड़ जाते हैं । किन्तु यदि ईश्वर के संबंध में केवल बौद्धिक चर्चा को छोड़कर, उसके प्रति समर्पण की भावना रखे, तो वह परमेश्वर अवश्य ही भक्त का भार उठा लेता है, अर्थात् उसे क्लेशों से बचा लेता है । अन्यथा वह परमेश्वर तो वैसे भी सम्पूर्ण अस्तित्व का ही भार उठाता ही है । इसलिए उसका चिन्तन इन दो प्रकारों से किया जाता है ।  
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Chapter 12, śloka 5,

kleśo:'dhikatarasteṣā-
mavyatāsaktacetasām |
avyaktā hi gatirduḥkhaṃ
dehavadbhiravāpyate ||
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(kleśaḥ adhikataraḥ teṣām
avyaktāsaktacetasām |
avyaktā hi gatiḥ duḥkham
dehavadbhiḥ avāpyate ||)
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Meaning :
Those who contemplate and meditate upon The Supreme by thinking of Him in His Immanent form, tend to suffer much more, because it is very difficult for human beings to conceive and grasp His Truth in any such abstract form.
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Note : In comparison, those who realize the limitations of  the body, sense, intellect and the mind, soon discover that There IS an Intelligence Who looks after everything of this world and them too. And prompted by this simple conviction and wisdom dedicate all their worries and troubles to Him, and just keep quiet. They attain Him far more easily, even though if they see Him in any of the names and forms according to their inclination and temperament.
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11/10,

आज का श्लोक,
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अध्याय 11, श्लोक 10,

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥
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(अनेकवक्त्रनयनम् अनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥)
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भावार्थ :
अनेक मुखों और नेत्रों से युक्त अनेक अद्भुत् दर्शनोंवाले, अनेक दिव्य भूषणों से युक्त, और अनेक दिव्य आयुधों (शस्त्रों) को हाथों में उठाए हुए, ... ।
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Chapter 11, śloka 10,

anekavaktranayana-
manekādbhutadarśanam |
anekadivyābharaṇaṃ
divyānekodyatāyudham ||
--
(anekavaktranayanam
anekādbhutadarśanam |
anekadivyābharaṇaṃ
divyānekodyatāyudham ||)
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Meaning :
With many faces and eyes, with many wonderful countenances, With many divine ornaments, and wielding many weapons in hands,...
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Thursday, September 25, 2014

10/38,

आज का श्लोक,
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अध्याय 10, श्लोक 38,

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥
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(दण्डः दमयताम् अस्मि नीतिः अस्मि जिगीषताम् ।
मौनम् च एव अस्मि गुह्यानाम् ज्ञानम् ज्ञानवताम् अहम् ॥)
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भावार्थ :
शासन करनेवालों की शासन / शासित करने की शक्ति मैं हूँ, जीतने का यत्न करने (और जीतने) वालों की नीति मैं हूँ, अस्तित्व के गूढ रहस्यों को जाननेवालों का मौन मैं हूँ, तथा ज्ञानीजनों का ज्ञान मैं हूँ । अपने-आप के परम रहस्य को जान लेनेवाले प्रायः मौन रहते हैं, और ऐसे ही ज्ञानियों का ज्ञान मैं हूँ ।
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टिप्पणी :
दम् > दाम्यति, रोकना, इन्द्रिय-दमन या दुष्ट वृत्तियों का दमन, जिसे ’दण्ड’ की सहायता से किया जाता है । इन्द्रियाँ और प्रवृत्तियाँ स्वच्छन्द पशु हैं, जिन्हें बलपूर्वक ही नियन्त्रण में रखा जाता है, वह बल मानसिक रूप में संकल्प और उन्हें शासन में रखने की आवश्यकता को अनुभव करने पर ही जागृत होता है । जीतने का यत्न करनेवाले यदि अनीति पर चलते हैं तो अन्ततः हार जाते हैं, जिसे दूसरे शब्दों में कहा जाता है, : ’सत्यमेव जयते’ । इसी ’नीति’ शब्द को हम पुनः इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय 18 के अन्तिम श्लोक के अन्त में विद्यमान देखते हैं  ।
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Chapter 10, śloka 38,

daṇḍo damayatāmasmi
nītirasmi jigīṣatām |
maunaṃ caivāsmi guhyānāṃ
jñānaṃ jñānavatāmaham ||
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(daṇḍaḥ damayatām asmi
nītiḥ asmi jigīṣatām |
maunam ca eva asmi guhyānām
jñānam jñānavatām aham ||)
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Meaning :
I AM the sceptre (rājadaṇḍa) of the ruler, I AM the ethics (nīti) of the victorius, I AM the silence (mauna) of those who know the secret, and I AM the wisdom (jñāna) of the wise (jñānavān).
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Note :
The word daṇḍaḥ has many connotations. For a ruler, it means the sceptre, for a seeker (saṃnyāsī), this word means control over the outgoing senses and mind.
2. नयति, यया नीयते सा नीतिः, > nayati, yayā nīyate sā nītiḥ > which takes one (to goal, success) is nīti.
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10/20,

आज का श्लोक,
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अध्याय 10, श्लोक 20,

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
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(अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहम् आदिः च मध्यं च भूतानाम् अन्तः एव च ॥)
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भावार्थ :
हे गुडाकेश (अर्जुन)! मैं ’आत्मा’, समस्त भूतों के हृदय में अन्तर्यामी होकर अवस्थित हूँ  । तथा समस्त भूतों का आदि, मध्य एवं अन्त भी मैं ही (हूँ)  ।
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टिप्पणी :
’गुडाका’ अर्थात् निद्रा, निद्रा पर विजय प्राप्त होने के कारण अर्जुन को यह संबोधन प्राप्त हुआ । गुडाकेश का एक अन्य अर्थ है घने केश हैं जिसके ।
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Chapter 10, śloka  20,

ahamātmā guḍākeśa
sarvabhūtāśayasthitaḥ |
ahamādiśca madhyaṃ ca
bhūtānāmanta eva ca ||
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(aham ātmā guḍākeśa
sarvabhūtāśayasthitaḥ |
aham ādiḥ ca madhyaṃ ca
bhūtānām antaḥ eva ca ||)
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Meaning :
O  (arjuna)! I ever abide in the innermost core of the hearts of all beings (as consciousness). I AM the beginning, the middle and also the end of all beings.
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Notes :
1. In saṃskṛta, guḍāka means slumber / in-attention. guḍākeśa is one who has conquered in-attention.
2. It is easy to see that 'consciousness' is the first intimation of the 'Self'. 'Self' and 'consciousness' are identical, but then comes up a 'self' that is the whole trouble.
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10/11,

आज का श्लोक,
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अध्याय 10, श्लोक 11,

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
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(तेषाम् एव अनुकम्पार्थम् अहम् अज्ञानजम् तमः ।
नाशयामि आत्मभावस्थः ज्ञानदीपेन भास्वता ॥)
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भावार्थ :
उन (मुझमें समर्पित चित्तयुक्त, मुझमें ही प्राण हैं जिनके, ...श्लोक 10 के अनुक्रम में आगे) पर अनुग्रह करते हुए, उनकी दृष्टि को रुद्ध करनेवाले अज्ञान से उत्पन्न हुए अन्धकार (मिथ्या ज्ञान) का मैं उनके अन्तर्तम में ज्ञान का दीप प्रज्ज्वलित करता हूँ और उसके आलोक से उस अन्धकार को मिटाता हूँ ।  
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Chapter 10, śloka 11,

teṣāmevānukampārtha-
mahamajñānajaṃ tamaḥ |
nāśayāmyātmabhāvastho
jñānadīpena bhāsvatā ||
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(teṣām eva anukampārtham
aham ajñānajam tamaḥ |
nāśayāmi ātmabhāvasthaḥ
jñānadīpena bhāsvatā ||)
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Meaning :
Upon them (those who have dedicated themselves to ME, have their very being merged in ME, .... as described in the earlier  śloka 10, ...) I shower MY Grace, ro remove the darkness (tamaḥ) that is spread before them and they are surrounded by because of their ignorance (false knowledge). I lit the lamp of awareness of the Self that is shining ever there in their heart, and let the light destroy their darkness.
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9/34,

आज का श्लोक,
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अध्याय 9, श्लोक 34,

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामैवेष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥
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(मन्मना भव मद्भक्तः मद्याजी माम् नमस्कुरु ।
माम् एव एष्यसि युक्त्वा एवम् आत्मानम् मत्परायणः ॥)
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भावार्थ :
तुम, मुझमें संलग्न मन-बुद्धि रहो, मेरा यजन (उपासना, पूजा) करो, मुझे नमन करो, इस प्रकार से मेरे परायण होकर, अपने-आपको मुझसे युक्तकर, तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे ।
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Chapter 9, śloka 34,

manmanā bhava madbhakto
madyājī māṃ namaskuru |
māmaiveṣyasi yuktvaiva-
mātmānaṃ matparāyaṇaḥ ||
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(manmanā bhava madbhaktaḥ
madyājī mām namaskuru |
mām eva eṣyasi yuktvā evam
ātmānam matparāyaṇaḥ ||)
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Meaning :
Devote ME with your whole heart and mind, offer ME attention and regard, pray to ME, following ME in this way, having connected to ME in this way, you shall certainly attain ME.
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Note :
I and ME in this (and most of this text) could be translated equally well as 'Self' also.
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9/27,

आज का श्लोक,
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अध्याय 9, श्लोक 27,

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
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(यत् करोषि यत् अश्नासि यत् जुहोषि ददासि यत् ।
यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ॥)
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भावार्थ :
हे कौन्तेय (अर्जुन)! तुम जो भी कर्म / कार्य करते हो, जो खाते हो, जो हवन (त्याग अथवा यज्ञ) करते हो, जो दान करते हो, जो तप करते हो, उसको मुझे अर्पित कर दो ।
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टिप्पणी :
कर्म को जब इस दृष्टि से किया जाता है कि वह परमात्मा के लिए किया जाना चाहिए, न कि केवल अपने लिए, जो प्राप्त हुआ है, जो सबके लिए हितकारी हो, न कि केवल अपने या अपने परिवार, समुदाय या राष्ट्र या मनुष्य-मात्र के लिए बल्कि समष्टि अस्तित्व के लिए है, तो ही यह कहा जा सकता है कि हमने उस कर्म को ईश्वर-समर्पित बुद्धि से किया है । हवन का अर्थ है देवताओं के निमित्त अग्नि में द्रव्य आदि का अर्पण, जिन्हें देवताओं के अस्तित्व पर सन्देह है, वे भले ही इसे न करें, और न उनसे ऐसा करने का आग्रह किया जा सकता है । किन्तु हवन या यज्ञ को व्यापक अर्थ में लें तो यह सृष्टि स्वयं एक निरन्तर यज्ञ है, जहाँ पञ्चमहाभूतों के पञ्चीकरण (परस्पर संयोग) से प्रकृति का उन्मेष होता है, फिर ऊर्जा और पदार्थ के संयोग से अर्थात् भौतिक तथा रासायनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ब्रह्म-यज्ञ होता है, जिसे संपन्न करनेवाले चेतन कर्ता (देवता) को ब्रह्मा की उपाधि दी जाती है । स्पष्ट है कि इस यज्ञ का अधिष्ठाता देवता (अध्याय 8 के 2 में वर्णित अधियज्ञ) पुरुषोत्तम परमेश्वर ही है, यज्ञ और कर्म की अनन्यता समझने के लिए अध्याय 3 के श्लोक 8 से श्लोक 30 तक का अवलोकन किया जा सकता है । दान और तप भी यज्ञ के ही विशिष्ट रूप हैं ।
--
   
Chapter 9, śloka 27,

yatkaroṣi yadaśnāsi
yajjuhoṣi dadāsi yat |
yattapasyasi kaunteya
tatkuruṣva madarpaṇam ||
--
(yat karoṣi yat aśnāsi
yat juhoṣi dadāsi yat |
yat tapasyasi kaunteya
tat kuruṣva madarpaṇam ||)
--
Meaning :
Whatever you do, what you eat, what sacrifice you perform by way of ( havana, and yajña, - ritual offerings made into Fire, to invoke and contact heavenly, ethereal, divine spirits that look after the whole existence), or to help earthly beings like trees, animals, birds and as a whole nature in her many forms, what austerities you practice, dedicate all to ME.
--
Note :
Here we note that we either need contemplating about the Cosmic Supreme Being Which, though beyond the grasp of our senses and intellect, and discover / know Him through pure intelligence and devote to Him, that is not our imagination or fancy but a firm conviction about His existence, Or we try to find out the purport of 'ME' in all its various aspects. If we are earnest, it is not difficult to have a glipse of Him or of The Reality, usually we fail to see and keep on doubting or discussing about the existence of.
2. To understand that yajña is verily karma only, śloka-s  8 onward 9, 10, ... of Chapter 3 are helpful.
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9/26,

आज का श्लोक,
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अध्याय 9, श्लोक 26,

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
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(पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम् यः मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तत् अहम् भक्त्युपहृतम् अश्नामि प्रयतात्मनः ॥)
--
भावार्थ :
पत्र (जैसे बेलपत्र या तुलसीपत्र), पुष्प, फल, तथा जल आदि, जो कुछ भी कोई भी शुद्ध-चित्त भक्त मुझे भक्ति से अर्पित करता है, उसकी भक्ति से प्रेमपूर्वक प्राप्त हुए उस उपहार को मैं प्रीति से ग्रहण करता हूँ ।
--
टिप्पणी :
यहाँ ’अश्नामि’ का शब्दशः तात्पर्य होगा ’खाता हूँ ।’ इसलिए जब हम इष्ट की मूर्ति में परमेश्वर की भावना रखते हुए उसे कुछ अर्पित करते हैं तो परमेश्वर उसे अपने-आप में विलीन कर लेता है, अर्थात् अर्पित की गई वह वस्तु परमात्मा का अंश हो जाती है । हमारे प्रकार इस प्रकार के भक्ति रूपी यज्ञ से बची सामग्री (प्रसाद) प्रत्यक्ष वह परमेश्वर ही होता है, और उसे ग्रहण कर / खाकर हम परमेश्वर से अभिन्न हो जाते हैं ।
--
Chapter 9, śloka 26,

patraṃ puṣpaṃ phalaṃ toyaṃ
yo me bhaktyā prayacchati |
tadahaṃ bhaktyupahṛta-
maśnāmi prayatātmanaḥ ||
--
(patram puṣpam phalam toyam
yaḥ me bhaktyā prayacchati |
tat aham bhaktyupahṛtam
aśnāmi prayatātmanaḥ ||)
--
Meaning :
With love and devotion, who so ever of pure in heart and mind offers ME leaf, flower, or even water, I accept the same with absolute love and honor.
--

9/13,

आज का श्लोक,
______________________

अध्याय 9, श्लोक 13,

महात्मनस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यवयम् ॥
--
(महात्मनः तु माम् पार्थ दैवीम् प्रकृतिम् आश्रिताः ।
भजन्ति अनन्यमनसः ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
किन्तु  हे पार्थ (अर्जुन)! महात्माजन, जो मेरी दैवी (परा) प्रकृति के आश्रित हैं मुझको सम्पूर्ण भूतों का आदि जानते हुए अनन्यमन से मेरी भक्ति करते हैं ।
--
टिप्पणी :
उक्त श्लोक का संबंध इस अध्याय 9 के पहले के दो श्लोकों 10 तथा 11 से है, जिनमें परमात्मा के स्वरूप से अनभिज्ञ रहकर उनकी उपेक्षा करनेवाले, मोहिनी (अपरा) प्रकृति के वशीभूत लोगों का वर्णन किया गया है ।
--
Chapter 9, śloka 13,

mahātmanastu māṃ pārtha
daivīṃ prakṛtimāśritāḥ |
bhajantyananyamanaso
jñātvā bhūtādimavyavayam ||
--
(mahātmanaḥ tu mām pārtha
daivīm prakṛtim āśritāḥ |
bhajanti ananyamanasaḥ
jñātvā bhūtādimavyayam ||)
--
Meaning :
On the other hand, O pārtha (arjuna)! The meritorius souls, who take shelter in MY Superior Manifestation (parā prakṛti / pure consciousness), being aware that I AM The Beginning of all beings, dedicate themselves completely to ME with undivided devotion.      
--

9/11,

आज का श्लोक,
_____________________

अध्याय 9, श्लोक 11,
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
--
(अवजानन्ति माम् मूढाः मानुषीम् तनुम् आश्रितम् ।
परम् भाव अजानन्तः मम भूतमहेश्वरम् ॥)
--
भावार्थ :
सब प्राणियों के एकमात्र परमेश्वर, मुझ मनुष्य-शरीर धारण करनेवाले के परम भाव (यथार्थ स्वरूप) से अनभिज्ञ मूढबुद्धि, मेरी (परमेश्वर की) उपेक्षा करते हैं ।
 --
टिप्पणी :
अध्याय 10 के श्लोक 22 में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना / आत्म अथवा परमेश्वर का उल्लेख ’चेतना’ या ’अस्मि-चेतना’ के रूप में किया है । इस अस्मि-चेतना (मैं हूँ, अपने अस्तित्व का सहज बोध जो प्राणि-मात्र में अनायास होता है) ने ही शरीर को धारण किया होता है, न कि शरीर ने अस्मि-चेतना को, इस अस्मि-चेतना के यथार्थ तत्व के प्रति उदासीन, इसकी अवहेलना करनेवाले इस अस्मि-चेतना के स्रोत (परमेश्वर) से अनभिज्ञ रह जाते हैं ।
--
Chapter 9, śloka 11,

avajānanti māṃ mūḍhā
mānuṣīṃ tanumāśritam |
paraṃ bhāvamajānanto
mama bhūtamaheśvaram ||
--
(avajānanti mām mūḍhāḥ
mānuṣīm tanum āśritam |
param bhāva ajānantaḥ
mama bhūtamaheśvaram ||)
--
Meaning :
Those who are unaware that I AM The Lord of all beings, The Supreme Consciousness, Myself is manifest in the form of this physical body (and the world),. They ignore ME and tend to treat ME as a mere human being.
--

Wednesday, September 24, 2014

आज का श्लोक, ’रक्षांसि’ / ’rakṣāṃsi

आज का श्लोक,  ’रक्षांसि’ / ’rakṣāṃsi’ 
_____________________________

’रक्षांसि’ / ’rakṣāṃsi’ - राक्षसगण,

अध्याय 11, श्लोक 36,

अर्जुन उवाच :

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते  ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः  ॥
--
(स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्-प्रहृष्यति अनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशः द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन बोले :
हे हृषीकेश  ! तुममें ही तुम्हारे ही भीतर, संपूर्ण जगत् तुम्हारी विशिष्ट कीर्ति के में प्रहर्षित होता है, तुममें ही खेलता रमता है । राक्षसगण भी डरकर भी तुममें ही अवस्थित विभिन्न दिशाओं में दौड़ते हैं  और सिद्धों के सभी संघ भी तुममें ही तुम्हें नमन करते हैं ।
--
’रक्षांसि’ / ’rakṣāṃsi’ - the demons,

Chapter 11, śloka 36,

arjuna uvāca :
sthāne hṛṣīkeśa tava prakīrtyā
jagatprahṛṣyatyanurajyate  |
rakṣāṃsi bhītāni diśo dravanti
sarve namasyanti ca siddhasaṃghāḥ  ||
--
(sthāne hṛṣīkeśa tava prakīrtyā
jagat-prahṛṣyati anurajyate ca |
rakṣāṃsi bhītāni diśaḥ dravanti
sarve namasyanti ca siddhasaṅghāḥ ||)
--
Meaning :
O hṛṣīkeśa (śrīkṛṣṇa)! Indeed the whole world has existence within You, and it rejoices and sports within you only because of your glory. Demons frightened, run in all directions, and the sages and seers bow down before Thee!
--

आज का श्लोक, ’रजसः’ / ’rajasaḥ’

आज का श्लोक, ’रजसः’ / ’rajasaḥ’
___________________________

’रजसः’ / ’rajasaḥ’ - रजोगुण का,

अध्याय 14, श्लोक 16,

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥
--
(कर्मणः सुकृतस्य आहुः सात्त्विकम् निर्मलम् फलम् ।
रजसः तु फलम् दुःखम् अज्ञानम् तमसः फलम् ॥)
--
भावार्थ :
श्रेष्ठ (सात्त्विक) कर्म का फल तो सात्त्विक अर्थात् क्लेश-निवारण, निर्मल, ज्ञान तथा वैराग्य प्रदायक कहा गया है, जबकि राजस कर्म का फल दुःख और तामस का फल अज्ञान कहा गया है ।
--
अध्याय 14, श्लोक 17,

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥
--
(सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानम् रजसः लोभः एव च ।
प्रमादमोहौ तमसः भवतः अज्ञानम् एव च ॥)
--
भावार्थ :
सत्त्व (सत्त्वगुण) से ज्ञान का उद्भव होता है, रज (रजोगुण) से लोभ का, और तम (तमोगुण) से प्रमाद एवं मोह तथा अज्ञान का भी उद्भव होता है ।

--

’रजसः’ / ’rajasaḥ’ - of confusion, of passion (rajoguṇa),

Chapter 14, śloka 16,

karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ
sāttvikaṃ nirmalaṃ phalam |
rajasastu phalaṃ duḥkham-
ajñānaṃ tamasaḥ phalam ||
--
(karmaṇaḥ sukṛtasya āhuḥ
sāttvikam nirmalam phalam |
rajasaḥ tu phalam duḥkham
ajñānam tamasaḥ phalam ||)
--
Meaning :
Clarity, peace and happiness, is said the fruit of a noble action (sāttvika-karma), while misery and sorrow is said the fruit of the action done in confusion (rajoguṇa), and ignorance and delusion is said the fruit of the action done without care .
--
Chapter 14, śloka 17,

sattvātsañjāyate jñānaṃ
rajaso lobha eva ca |
pramādamohau tamaso
bhavato:'jñānameva ca ||
--
(sattvāt sañjāyate jñānam
rajasaḥ lobhaḥ eva ca |
pramādamohau tamasaḥ
bhavataḥ ajñānam eva ca ||)
--
Meaning :
From  (sattva-guṇa) / attribute of harmony, comes the knowledge, from  (rajoguṇa) / attribute of passion, comes the greed, while from tamoguṇa / the attribute of inertia,  come the pramāda, / idleness, and moha / distraction, and ajñāna / ignorance as well.
 --

आज का श्लोक, ’रजसि’ / ’rajasi’

आज का श्लोक, ’रजसि’ / ’rajasi’ 
_________________________

’रजसि’ / ’rajasi’ - रजोगुण में,

अध्याय 14, श्लोक 12,

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥
--
(लोभः प्रवृत्तिः आरम्भः कर्मणाम् अशमः स्पृहा ।
रजसि    एतानि    जायन्ते    विवृद्धे    भरतर्षभ ॥)
--
भावार्थ :
हे भरतर्षभ (अर्जुन)! लोभ, प्रवृत्ति (रुचि) कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, और लालसा, रजोगुण के बढ़ जाने पर चित्त में ये सभी जन्म लेते हैं ।
--
अध्याय 14, श्लोक 15,

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥
--
(रजसि प्रलयम् गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनः तमसि मूढयोनिषु जायते ॥)
--
भावार्थ :
रजोगुण जब चित्त में प्रबल होता है, उस अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले कर्मों में आसक्ति रखनेवालों में उत्पन्न होते हैं । और तमोगुण जब चित्त में प्रबल होता है, उस अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले मूढयोनि में उत्पन्न होते हैं ।
--
’रजसि’ / ’rajasi’ - in the tendencies of passion, (rajoguṇa),
 
Chapter 14, śloka 12,

lobhaḥ pravṛttirārambhaḥ 
karmaṇāmaśamaḥ spṛhā |
rajasyetāni jāyante 
vivṛddhe bharatarṣabha ||
--
(lobhaḥ pravṛttiḥ ārambhaḥ 
karmaṇām aśamaḥ spṛhā |
rajasi    etāni    jāyante    
vivṛddhe    bharatarṣabha ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha  (arjuna)! When the mode of passion (rajoguṇa) predominates (in the mind, -over satoguṇa  and tamoajoguṇa), one is overtaken by greed, activity, urge for the activity, restlessness and cravings for enjoyment.
--
Chapter 14, śloka 15,

rajasi pralayaṃ gatvā 
karmasaṅgiṣu jāyate |
tathā pralīnastamasi 
mūḍhayoniṣu jāyate ||
--
(rajasi pralayam gatvā 
karmasaṅgiṣu jāyate |
tathā pralīnaḥ tamasi 
mūḍhayoniṣu jāyate ||)
--
Meaning :
One, who dies in a state of mind, when the passion (rajoguṇa) is prevailing, he attains the next birth among the people who are obsessed with activity. And one, who dies in a state of mind, when the sloth (tamoguṇa) is prevailing, he attains the next birth in the wombs of impure, dull and animal tendencies 
-- 

आज का श्लोक, ’रजः’ / ’rajaḥ’

आज का श्लोक, ’रजः’ / ’rajaḥ’
___________________________

’रजः’ / ’rajaḥ’ - रजोगुण, चञ्चलता, विक्षेप, व्यग्रता,

अध्याय 14, श्लोक 5,

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥
--
(सत्त्वम् रजः तमः इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)! सत्त्वगुण, रजोगुण, एवं तमोगुण प्रकृति से उत्पन्न ये तीनों गुण अविनाशी स्वरूप वाले देही (चेतन-तत्त्व) को देह में बाँधते हैं ।
--
अध्याय 14, श्लोक 7,

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥
--
(रजः रागात्मकम् विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तत् निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥)
--
भावार्थ :
हे कौन्तेय (अर्जुन)! रागके स्वरूपवाले  रजोगुण को कामना (लालसा) तथा आसक्ति (लिप्तता) से उत्पन्न हुआ जानो, जो (रजोगुण) देह के स्वामी (जीव) को कर्म तथा उसके फल की आशा से बाँधता है ।
--
अध्याय 14, श्लोक 9,

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्त्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥
--
(सत्त्वम् सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयति उत ॥)
--
भावार्थ :
(आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को आवृत्त कर) सत्त्वगुण तो चित्त को सुख में प्रवृत्त करता है, रजोगुण कर्म में प्रवृत्त करता है, तथा हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण ज्ञान को ढाँककर चित्त को प्रमाद में प्रवृत्त करता है ।)
टिप्पणी : इस प्रकार तीनों गुण आत्मा के स्वरूप को आवरित रखते हैं ।
--
अध्याय 14, श्लोक 10,

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
--
(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
--
भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 1,

अर्जुन उवाच :
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥
--
(ये शास्त्रविधिम् उत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषाम् निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया -
जो लोग शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट विधि का, (उनसे अनभिज्ञ होने से, या परिस्थितियों के कारण) निर्वाह नहीं कर पाते, किन्तु श्रद्धा से युक्त होते हैं, उनकी निष्ठा को हे कृष्ण! सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक में से किस श्रेणी में रखा जा सकता है?
--

’रजः’ / ’rajaḥ’  - rajoguṇa, distraction, passion,

Chapter 14, śloka 5,

sattvaṃ rajastama iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahābāho
dehe dehinamavyayam ||
--
(sattvam rajaḥ tamaḥ iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahā bāho
dehe dehinam avyayam ||)
--
Meaning :
sattva, raja and tama,  these three attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti) bind him to the body, to the one (the consciousness associated with the body), who takes himself as the body.
--
Chapter 14, śloka 7,

rajo rāgātmakaṃ viddhi
tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam |
tannibadhnāti kaunteya
karmasaṅgena dehinam ||
--
(rajaḥ rāgātmakam viddhi
tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam |
tat nibadhnāti kaunteya
karmasaṅgena dehinam ||)
--
Meaning :
Know the rajo-guṇa (passion), that is of the nature of identification, is born of desire and longings for pleasures. And the same (rajo-guṇa) binds the embodied being (soul / jīva) with the action (karma) and the hope of the fruits (karmaphala) of that action (karma)
--
Chapter 14, śloka 9,

sattvaṃ sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛttya tu tamaḥ
pramāde sañjayatyuta ||
--
(sattvam sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛtya tu tamaḥ
pramāde sañjayati uta ||)
--
Meaning :
bhArata (arjuna)! Driven by the attribute of harmony (sattvaṃ), the mind ( citta ) gets identified with joy and peace, driven by the attribute of passion (rajaḥ / rajas), the mind gets identified with  action, and driven by the attribute of inertia (tamaḥ / tamas) the mind gets identified with sloth, idleness.
--
Chapter 14, śloka 10,

rajastamaścābhibhūya
sattvaṃ bhavati bhārata |
rajaḥ sattvaṃ tamaścaiva
tamaḥ sattvaṃ rajastathā ||
--
(rajaḥ tamaḥ ca abhibhūya
sattvam bhavati bhārata |
rajaḥ sattvam tamaḥ ca eva
tamaḥ sattvam rajaḥ tathā ||)
--
Meaning : Overpowering rajoguṇa and tamoguṇa, satoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and tamoguṇa, rajoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and rajoguṇa tamoguṇa prevails.
--
Chapter 17, śloka 1,

arjuna uvāca :
ye śāstravidhimutsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣāṃ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvamāho rajastamaḥ ||
--
(ye śāstravidhim utsṛjya
yajante śraddhayānvitāḥ |
teṣām niṣṭhā tu kā kṛṣṇa
sattvam āho rajaḥ tamaḥ ||)
--
Meaning :
arjuna :
What kind of the conviction (niṣṭhā) is of those, who are devoted ( śraddhayānvitāḥ) to the Supreme principle (that maintains this whole existence), but don't quite follow the specific injunctions as are laid down in the scriptures (just because of the circumstances).
--

आज का श्लोक, ’रजोगुणसमुद्भवः’ / ’rajoguṇasamudbhavaḥ’

आज का श्लोक,
’रजोगुणसमुद्भवः’ / ’rajoguṇasamudbhavaḥ’ 
_________________________________

’रजोगुणसमुद्भवः’ / ’rajoguṇasamudbhavaḥ’ - रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला,

अध्याय 3, श्लोक 37,

श्रीभगवानुवाच :
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
--
(कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुणसमुद्भवः
महाशनः महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम् ॥)
--
भावार्थ :
श्रीभगवान् ने कहा :
यह काम, यह क्रोध, यह रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला, यह बहुत खाने जिसकी भूख कभी शान्त नहीं होती अर्थात् निरन्तर भोग करनेवाला, महापापी अर्थात् महादुष्ट, इसे ही वैरी अर्थात् शत्रु जानो ।
--
टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक को गत श्लोक 36 के साथ पढ़ा जाना चाहिए  ।

[अध्याय 3, श्लोक 36,
अर्जुन उवाच :
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
--
(अथ केन प्रयुक्तः अयम् पापम् चरति पूरुषः ।
अनिच्छन् अपि वार्ष्णेय बलात्-इव नियोजितः ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न पूछा :
हे वार्ष्णेय (वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्ण) ! मनुष्य किसके द्वारा प्रेरित किया जाकर, न चाहता हुआ भी जैसे उसे बल से बाध्य किया जा रहा हो, पाप का आचरण करता है?
--

’रजोगुणसमुद्भवः’ / ’rajoguṇasamudbhavaḥ’  - born of passion (rajoguṇa)

Chapter 3, śloka 37,

śrībhagavānuvāca :

kāma eṣa krodha eṣa
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśano mahāpāpmā
viddhyenamiha vairiṇam ||
--
(kāmaḥ eṣaḥ krodhaḥ eṣaḥ
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśanaḥ mahāpāpmā
viddhi enam iha vairiṇam ||)
--
Meaning :
Know this lust, this anger which is ever so hungry and is never satiated, is the great sinner, is the enemy, that arises from rajoguṇa.
--
Note :
This śloka 37 was the answer given by śrīkṛṣṇa to arjuna, in the following śloka 36, :
Chapter 3, śloka 36,

arjuna uvāca :
atha kena prayukto:'yaṃ
pāpaṃ carati pūruṣaḥ |
anicchannapi vārṣṇeya
balādiva niyojitaḥ ||
--
(atha kena prayuktaḥ ayam
pāpam carati pūruṣaḥ |
anicchan api vārṣṇeya
balāt-iva niyojitaḥ ||)
--
arjuna asked :
O vārṣṇeya (bhagavān śrīkṛṣṇa) ! Who tempts man to indulge in committing sin, where-by even though un-willing, one is, as if forced to do the same?  

आज का श्लोक, ’रणसमुद्यमे’ / ’raṇasamudyame’

आज का श्लोक,
’रणसमुद्यमे’ / ’raṇasamudyame’  
___________________________

’रणसमुद्यमे’ / ’raṇasamudyame’  - युद्ध रूपी उद्योग में,

अध्याय 1, श्लोक 22,

यावदेतान्निरीक्ष्येऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ॥
--
(यावत् एतान् निरीक्ष्ये अहम् योद्धुकामान् अवस्थितान् ।
कैः मया सह योद्धव्यम् अस्मिन् रणसमुद्यमे ॥)
--
भावार्थ :
जब तक मैं रणक्षेत्र में डटे, युद्ध की अभिलाषा से आए हुए, विरोधी पक्ष के योद्धाओं को एवम् यह कि इस युद्ध रूपी उद्योग में, इस संग्राम में उनमें से किस-किससे मुझे युद्ध करना योग्य है, यह देख लूँ, ...
--
’रणसमुद्यमे’ / ’raṇasamudyame’ - in this enterprise, that is this war,

Chapter 1, śloka 22,

yāvadetānnirīkṣye:'haṃ 
yoddhukāmānavasthitān |
kairmayā saha yoddhavya-
masminraṇasamudyame ||
--
(yāvat etān nirīkṣye aham 
yoddhukāmān avasthitān |
kaiḥ mayā saha yoddhavyam 
asmin raṇasamudyame ||)
--
Meaning :
Until I observe all those warriors who have come here with a wish to engage in the war, and who I deserve to have a fight with, and who is worthy of this,  in this enterprise, that is this war,..., 
--

आज का श्लोक, ’रणात्’ / ’raṇāt’

आज का श्लोक, ’रणात्’ / ’raṇāt’
_________________________

’रणात्’ / ’raṇāt’ - रण से, युद्ध से,

अध्याय 2, श्लोक 35,

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
--
(भयात् रणात् उपरतम् मंस्यन्ते त्वाम् महारथा ॥
येषाम् च त्वम् बहुमतः भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥)
--
भावार्थ :
वे ही महारथी जिनकी दृष्टि में पहले कभी तुम बहुत मान्य थे, तुम्हें भय से रण छोड़कर भाग जानेवाला समझेंगे और तुम उनकी दृष्टि में तुच्छ समझे जाओगे ।
--

’रणात्’ / ’raṇāt’ - from the war,

Chapter 2, śloka 35,

bhayādraṇāduparataṃ
maṃsyante tvāṃ mahārathāḥ |
yeṣāṃ ca tvaṃ bahumato
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||
--
(bhayāt raṇāt uparatam
maṃsyante tvām mahārathā ||
yeṣām ca tvam bahumataḥ
bhūtvā yāsyasi lāghavam ||)
--
Meaning :
Those great warriors that presently admire you, will think you escaped from the battle because of fear, and will treat you as coward and worthless.
--

आज का श्लोक, ’रणे’ / ’raṇe’

आज का श्लोक, ’रणे’ / ’raṇe’
________________________

’रणे’ / ’raṇe’ - युद्ध में, रणक्षेत्र में,

अध्याय 1, श्लोक 46,
--
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
--
(यदि माम् -अप्रतीकारम्-अशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा: रणे हन्युः तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥)
--
भावार्थ:
यदि मुझ निहत्थे पर धृतराष्ट्र के पुत्र शस्त्र लेकर आक्रमण करें और वे मुझे मार  डालें , तो यह तो और भी अच्छा होगा ।
--
अध्याय 11, श्लोक 34,
--
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
--
(द्रोणम् च भीष्मम् च जयद्रथम् च
कर्णम् तथा अन्यान् अपि योधवीरान् ।
मया हतान् त्वम् जहि मा व्यथिष्ठाः
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥)
--
भावार्थ :
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ,, कर्ण और दूसरे भी ऐसे महायोद्धा मेरे द्वारा पहले से ही मारे जा चुके हैं, तुम इसलिए (निमित्तमात्र बनते हुए) मार डालो, उनसे भयभीत होकर व्यथित मत होओ । तुम युद्ध में अवश्य ही जीतोगे, और शत्रुओं को परास्त करोगे ।
--
’शस्त्रपाणयः’ / ’śastrapāṇayaḥ’ - those with weapons, armed,

’रणे’ / ’raṇe’  - in the war, on the battle-field,


Chapter 1, śloka 46,

yadi māmapratīkāram-
aśastraṃ śastrapāṇayaḥ |
dhārtarāṣṭrā raṇe hanyus-
tanme kṣemataraṃ bhavet ||
--
(yadi mām -apratīkāram-
aśastraṃ śastrapāṇayaḥ |
dhārtarāṣṭrā: raṇe hanyuḥ
tanme kṣemataraṃ bhavet ||)
--
Meaning :
It will be even better, if the weapon-wielding sons of dhṛtarāṣṭra kill me, while I am unarmed and not resisting.
--
Chapter 11, śloka 34,
--
droṇaṃ ca bhīṣmaṃ ca jayadrathaṃ ca
karṇaṃ tathānyānapi yodhavīrān |
mayā hatāṃstvaṃ jahi mā vyathiṣṭhā
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||
--
(droṇam ca bhīṣmam ca jayadratham ca
karṇam tathā anyān api yodhavīrān |
mayā hatān tvam jahi mā  vyathiṣṭhāḥ
yudhyasva jetāsi raṇe sapatnān ||)
--
Meaning :
droṇa, bhīṣma, jayadratha, and karṇa, and all other such great warriors have been killed by me already. Therefore, don't fear and hesitate, Fight and kill them. You shall conquer these enemies.
--





आज का श्लोक, ’रताः’ / ’ratāḥ’

आज का श्लोक,  ’रताः’ / ’ratāḥ’
________________________

’रताः’ / ’ratāḥ’ - संलग्न, रत,

अध्याय 5, श्लोक 25,
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः
--
(लभन्ते ब्रहनिर्वाणम् ऋषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधाः यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः
--
भावार्थ :
जिनके समस्त पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके समस्त संशय छिन्न हो चुके हैं, आत्मा के निदिध्यासन में सतत संलग्न, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत ऐसे ऋषि परब्रह्मरूपी शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाते हैं ।
--

अध्याय 12, श्लोक 4,

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितेरताः
--
(संनियम्य इन्द्रियग्रामम् सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्वभूतहिते रताः ॥)
--
भावार्थ :
अपनी समस्त इन्द्रियों को भली प्रकार से नियन्त्रण में रखते हुए, सर्वत्र समदृष्टि रखते हुए जो सब भूतों के हित में संलग्न रहते हैं, वे मुझको प्राप्त हो जाते हैं ।
--

’रताः’ / ’ratāḥ’ - busy, occupied with,

Chapter 5,  śloka 25,

labhante brahmanirvāṇam-
ṛṣayaḥ kṣīṇakalmaśāḥ |
chinnadvaidhā yatātmānaḥ
sarvabhūtahite ratāḥ ||
--
(labhante brahanirvāṇam
ṛṣayaḥ kṣīṇakalmaṣāḥ |
chinnadvaidhāḥ yatātmānaḥ
sarvabhūtahite ratāḥ ||
--
Meaning :
Those with all their sins destroyed, and all their doubts cleared away, the sages (ṛṣayaḥ) ever engaged in the contemplation of the Self, ever concerned with the the welfare of all beings, attain the brahmanirvāṇam (Brahman, the form of peace ultimate).
--

Chapter 12, śloka 4,

sanniyamyendriyagrāmaṃ
sarvatra samabuddhayaḥ |
te prāpnuvanti māmeva
sarvabhūtahiteratāḥ ||
--
(saṃniyamya indriyagrāmam
sarvatra samabuddhayaḥ |
te prāpnuvanti mām eva
sarvabhūtahite ratāḥ ||)
--
Meaning :
Those who keeping the senses well under control, always with even-mind devoted for the welfare of all beings, they also attain Me.
 --
Chapter 12, śloka 4,

sanniyamyendriyagrāmaṃ
sarvatra samabuddhayaḥ |
te prāpnuvanti māmeva
sarvabhūtahiteratāḥ ||
--
(saṃniyamya indriyagrāmam
sarvatra samabuddhayaḥ |
te prāpnuvanti mām eva
sarvabhūtahite ratāḥ ||)
--
Meaning :
Those who keeping the senses well under control, look at all with the same disposition always with even-mind devoted for the welfare of all beings, they do attain Me.
 --






आज का श्लोक, ’रथम्’ / ’ratham’

आज का श्लोक, ’रथम्’ / ’ratham’  
_________________________

’रथम्’ / ’ratham’  - रथ को,

अध्याय 1, श्लोक 21,

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच :
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥
--
(हृषीकेशम् तदा वाक्यम् इदम् आह महीपते ।
अर्जुन उवाच :
सेनयोः उभयोः मध्ये रथम् स्थापय मे अच्युत ॥)
--
भावार्थ :
हे राजन् ! तब, उस समय, हृषीकेश (भगवान् श्रीकृष्ण) से (अर्जुन ने) ये शब्द कहे :
अर्जुन ने कहा :
हे अच्युत (कृष्ण)! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में लाकर रखो ।
--

’रथम्’ / ’ratham’   - the chariot,

Chapter 1, śloka 21,

hṛṣīkeśaṃ tadā vākya-
midamāha mahīpate |
arjuna uvāca :
senayorubhayormadhye
rathaṃ sthāpaya me:'cyuta ||
--
(hṛṣīkeśam tadā vākyam
idam āha mahīpate |
arjuna uvāca :
senayoḥ ubhayoḥ madhye
ratham sthāpaya me acyuta ||)
--
Meaning : O King! At that moment arjuna said these words to hṛṣīkeśa (Lord śrīkṛṣṇa)
arjuna said :
acyuta (kṛṣṇa)! Please place my chariot in the mid of the two armies.
--

आज का श्लोक, ’रथोत्तमम्’ / ’rathottamam’

आज का श्लोक,
’रथोत्तमम्’ /  ’rathottamam’ 
__________________________

’रथोत्तमम्’ /  ’rathottamam’ - श्रेष्ठ रथ को,

अध्याय 1, श्लोक 24,

सञ्जय उवाच -
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्
--
(एवम्-उक्तः हृषीकेशः गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोः उभयोः मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥)
--
भावार्थ :
सञ्जय ने कहा  - हे भारत (हे धृतराष्ट्र)! गुडाकेश (अर्जुन) द्वारा इस प्रकार से (गत श्लोक में जैसा वर्णित है, उस क्रम में ) कहे जाने पर, हृषीकेश (श्रीकृष्ण भगवान्) ने  दोनों सेनाओं के मध्य रथ खड़ा कर , ...
--
’रथोत्तमम्’ /  ’rathottamam’ - the magnificent chariot,

Chapter 1, śloka 24,

sañjaya uvāca -

evamukto hṛṣīkeśo
guḍākeśena bhārata |
senayorubhayormadhye
sthāpayitvā rathottamam ||
--
(evam-uktaḥ hṛṣīkeśaḥ
guḍākeśena bhārata |
senayoḥ ubhayoḥ madhye
sthāpayitvā rathottamam ||)
--
Meaning :

sañjaya, said (to king dhṛtarāṣṭra,)

O bhārata (King dhṛtarāṣṭra)! Thus addressed by guḍākeśa (arjuna),  hṛṣīkeśa (Lord śrīkṛṣṇa) brought forth the magnificent chariot in the middle of both the armies.
--

आज का श्लोक, ’रथोपस्थे’ / ’rathopasthe’

आज का श्लोक, ’रथोपस्थे’ / ’rathopasthe’ 
________________________________

’रथोपस्थे’ / ’rathopasthe’  - रथ के पिछले भाग में

अध्याय 1, श्लोक 47,

सञ्जय उवाच :
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥
--
(एवम् उक्त्वा अर्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थे उपाविशत् ।
विसृज्य सशरम् चापम् शोकसंविग्नमानसः ॥)
--
भावार्थ :
शोक से संविग्न (उद्विग्न) मन से  ऐसा कहकर अर्जुन रणभूमि में बाण-सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में  बैठ गया ।
--
’रथोपस्थे’ / ’rathopasthe’  - in the rear part of the chariot,
 
Chapter 1, śloka 47,

sañjaya uvāca :
evamuktvārjunaḥ saṅkhye 
rathopastha upāviśat |
visṛjya saśaraṃ cāpaṃ 
śokasaṃvignamānasaḥ ||
--
(evam uktvā arjunaḥ saṅkhye 
rathopasthe upāviśat |
visṛjya saśaram cāpam 
śokasaṃvignamānasaḥ ||)
--
Meaning :
sañjaya said :
saying so, arjuna with his heart heavy and mind agitated by grief,  having put his bow and arrow aside, sat speechless in the rear part of the chariot on the battle-field.
--  

आज का श्लोक, ’रमते’ / ’ramate’

आज का श्लोक, ’रमते’ /  ’ramate’
____________________________

’रमते’ /  ’ramate’ - लिप्त होते हैं, संलग्न होते हैं,

अध्याय 5, श्लोक 22,

ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
--
(ये हि संस्पर्शजाः भोगाः दुःखयोनयः एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥)
--
भावार्थ :
विषयों और इन्द्रियों के पारस्परिक संपर्क से उत्पन्न होनेवाले जितने भी भोग हैं (यद्यपि वे सुख्प्रद दिखलाई देते हों, परिणाम में) वे दुःख के ही हेतु हैं । उन आद्यन्तवन्त (जिनका प्रारंभ और अन्त है), ऐसे भोगों में हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र) अर्जुन ! विवेकीजन नहीं लिप्त होते ।
--
अध्याय 18, श्लोक 36,

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥
--
(सुखम् तु इदानीम् त्रिविधम् श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अब हे भरतर्षभ (अर्जुन)! अब तुम मुझसे यह सुनो कि सुख अर्थात् आनन्द  (किस तरह से) तीन प्रकार का होता है । (पहला वह) जहाँ मनुष्य (का मन) अभ्यास करते करते ही रमने लगता है और दुःख के अन्त (निरोध) को प्राप्त हो जाता है ।
--
’रमते’ /  ’ramate’ - indulge in, take pleasure in,

Chapter 5, śloka 22,

ye hi saṃsparśajā bhogāḥ
duḥkhayonaya eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||
--
(ye hi saṃsparśajāḥ bhogāḥ
duḥkhayonayaḥ eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||)
--
Meaning :
O kaunteya (arjuna)! The pleasures that are enjoyed by the contact of senses with the objects are the cause of misery only. They always have a beginning and an end. Wise never indulge in them.    
--
Chapter 18, śloka 36,

sukhaṃ tvidānīṃ trividhaṃ
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsādramate yatra
duḥkhāntaṃ ca nigacchati ||
--
(sukham tu idānīm trividham
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsāt ramate yatra
duḥkhāntam ca nigacchati ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! Now hear from Me about the Happiness that is of three kinds. (The first is: ) Which is achieved and enjoyed through long efforts and practice, where-by the sorrow comes to the final end. And, ...
--


आज का श्लोक, ’रमन्ति’ / ’ramanti’

आज का श्लोक, ’रमन्ति’ / ’ramanti’
___________________________

’रमन्ति’ / ’ramanti’ - निमग्न होते हैं, प्रसन्न रहते हैं,

अध्याय 10, श्लोक 9,

मच्चित्ता मद्गतप्राणाः बोधयन्तं परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
--
(मच्चित्ताः मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च माम् नित्यम् तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥)
--
भावार्थ :
मुझ (परमेश्वर) में जिनका चित्त रमा हुआ है, मुझ (परमेश्वर) में जिनके प्राण हैं, परस्पर एक दूसरे को मेरा (परमेश्वर का) बोध प्रदान करते हुए, मुझ नित्यस्वरूप (परमेश्वर) की महिमा कहते-सुनते हुए वे नित्य आत्म-सन्तुष्ट तथा प्रसन्न रहते हैं ।    
--
टिप्पणी :
साँख्य के आधार पर ’ईश्वर’ को द्वैत-अद्वैत की अपनी अपनी भावना, मान्यता और आग्रह के अनुसार किसी भी रूप में ग्रहण किया जा सकता है । यहाँ तक कि ईश्वर का नाम लिए बिना भी उसकी सत्ता के संबंध में विचार और अनुसंधान किया जा सकता है । एक ओर गीता में वर्णित विभिन्न श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अपने-आपको परमेश्वर कहते प्रतीत होते हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपने आपको उससे अभिन्न भी कहते हैं, किन्तु अनेक स्थानों पर परमेश्वर का उल्लेख अन्य पुरुषवाची सर्वनाम ’वह’ के रूप में, विशेष रूप से अध्याय 18 के श्लोक 61 तथा श्लोक 62 में, भी करते हैं ।
--
’रमन्ति’ / ’ramanti’  - elate,

Chapter 10, śloka 9,

maccittā madgataprāṇāḥ
bodhayantaṃ parasparam |
kathayantaśca māṃ nityaṃ
tuṣyanti ca ramanti ca ||
--
(maccittāḥ madgataprāṇāḥ
bodhayantaḥ parasparam |
kathayantaśca mām nityam
tuṣyanti ca ramanti ca ||)
--
Meaning :
Having their attention (citta) absorbed in 'ME', having their life-breath (prāṇa) through ME, sharing with one-another the awareness of MY Glory, talking about MY Eternal Reality, they (My devotes) are contented and full of bliss.
--
Note :
The 'Me' / 'I' in the words of Lord śrīkṛṣṇa, refers directly to The Supreme Reality (the ’puruṣa’ principle,  in ’sāṅkhya’) and therefore The Supreme Authority (’īśvara’) is that ’puruṣa’ principle only. The Authority that is Manifest and Immanent as the 'self', The Lord of the existence, and The world. The self and world keep appearing and disappearing in the consciousness, which is neither personal or collective nor cosmic, but manifests in these three forms, though beyond them also. On this basis one can interpret the various śloka-s in this text (śrīmadbhagvadgītā) according to one's inclination of mind and there is essentially no contradiction though it may be seen by different intellectuals in so many ways.
--
     

आज का श्लोक, ’रविः’ / ’raviḥ’

आज का श्लोक, ’रविः’ / ’raviḥ’ 
_______________________

’रविः’ / ’raviḥ’ - सूर्य,

अध्याय 10, श्लोक 21,

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥
--
आदित्यनाम् अहम् विष्णुः ज्योतिषाम् रविः अंशुमान् ।
मरीचिः मरुताम् अस्मि नक्षत्राणाम् अहम् शशी ॥)
--
भावार्थ :
अदिति के बारह पुत्रों (आदित्यों) में मैं विष्णु, तथा ज्योतियों में रश्मियों का स्वामी सूर्य, मरुतों में विद्यमान मरीचि अर्थात् तेज हूँ, और नक्षत्रों का स्वामी मैं चन्द्रमा ।
--
अध्याय 13, श्लोक 33,

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
--
(यथा प्रकाशयति एकः कृत्स्नम् लोकम् इमम् रविः
क्षेत्रम् क्षेत्री तथा कृत्स्नम् प्रकाशयति भारत ॥)
--
भावार्थ :
जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण जगत् को आलोकित करता है, उसी प्रकार हे भारत (अर्जुन)! एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ), सम्पूर्ण क्षेत्र को आलोकित करता है ।
--
टिप्पणी :
क्षेत्र तथा क्षेत्री / क्षेत्र के बारे में इस अध्याय के प्रथम श्लोक में ही स्पष्ट कह दिया गया है, अर्थात् यह शरीर ही क्षेत्र है, जबकि इस शरीर को जाननेवाला, इसे ’मेरा’ कहनेवाला चेतन तत्व (चेतना / बोध) ही क्षेत्रज्ञ है ।
--
’रविः’  / ’raviḥ’  - the Sun

Chapter 10, śloka 21,

ādityānāmahaṃ viṣṇur-
jyotiṣāṃ raviraṃśumān |
marīcirmarutāmasmi
nakṣatrāṇāmahaṃ śaśī ||
--
ādityanām ahaṃ viṣṇuḥ
jyotiṣām raviḥ aṃśumān |
marīciḥ marutām asmi
nakṣatrāṇām aham śaśī ||)
--
Meaning :
Aong the 12 sons of aditi, I AM viṣṇu,  Among the luminaries (heavenly Lights), the Sun Radiant, of the 49 marut-s, marīci  I AM, among the constellations, the Moon I AM.
--
Chapter 13, śloka 33,

yathā prakāśayatyekaḥ
kṛtsnaṃ lokamimaṃ raviḥ |
kṣetraṃ kṣetrī tathā kṛtsnaṃ
prakāśayati bhārata ||
--
(yathā prakāśayati ekaḥ
kṛtsnam lokam imam raviḥ |
kṣetram kṣetrī tathā kṛtsnam
prakāśayati bhārata ||)
--
Meaning :
Just like the Sun, who alone illuminates this whole world, the one Intelligence (kṣetrī, - who is the only support and evidence of all) / kṣetrajña alone illuminates the whole field (kṣetra) of perception.  
--
Note :
1. In relation to a physical body, namely a person, the kṣetra (field) of his perceptions defines and illuminates his 'world'. Similarly, O bhārata (arjuna) ! In relation to the Whole existence, The Self / Supreme Intelligence, is the One alone, that supports the Whole world.
2. In the very beginning of this Chapter 13, śloka 1, the terms kṣetra and kṣetrajña / kṣetrī,  have been already well-defined. Accordingly, this body is termed as kṣetra (field), while the consciousness that is aware of having this body as 'mine' is termed as kṣetrajña / kṣetrī.
--

आज का श्लोक, ’रसनम्’ / ’rasanam’

आज का श्लोक, ’रसनम्’ / ’rasanam’ 
____________________________

’रसनम्’ / ’rasanam’ - रसना, जीभ, स्वादेन्द्रिय,

अध्याय 15, श्लोक 9,
--
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥
--
(श्रोत्रम् चक्षुः स्पर्शम् च रसनम् घ्राणम् एव च ।
अधिष्ठाय मनः च अयम् विषयान् उपसेवते ॥)
--
भावार्थ :
श्रोत्र (कान), चक्षु (नेत्र) त्वचा, जिह्वा तथा नासा और मन के माध्यम से ही यह (जीवात्मा) विषयों का उपभोग करता है ।
--

’रसनम्’ / ’rasanam’  - toungue, as the sense of taste,

Chapter 15, śloka 9,

śrotraṃ cakṣuḥ sparśanaṃ ca
rasanaṃ ghrāṇameva ca |
adhiṣṭhāya manaścāyaṃ
viṣayānupasevate ||
--
(śrotram cakṣuḥ sparśam ca
rasanam ghrāṇam eva ca |
adhiṣṭhāya manaḥ ca ayam
viṣayān upasevate ||)

--
Meaning :
This 'self', -the personified consciousness, by means of the sense-organs such as ears, eyes, touch, tongue, nose, and mind, perceives, savors, appreciates the  form and nature, color and taste, flavor and smell of various objects.
--


आज का श्लोक, ’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’

आज का श्लोक, ’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’
_______________________________

’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ - लालसा,

अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
--
(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
--
टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
--
’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ -  craving for the pleasures, longing for,

Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
--
(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
--
Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
--

आज का श्लोक, ’रसः’ / ’rasaḥ’,

आज का श्लोक, ’रसः’ / ’rasaḥ’ 
________________________

 ’रसः’ / ’rasaḥ’ - आसक्ति, सुख की आशा, जल-तत्व (आप्) की तन्मात्रा,

अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
--
(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
--
टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
--
अध्याय 7, श्लोक 8,

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥
--
(रसः अहम् अप्सु कौन्तेय प्रभा अस्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषम् नृषु ॥)
--
भावार्थ :
हे कौन्तेय (अर्जुन)! जलों में ’रस’ नामक तन्मात्रा, चन्द्रमा एवं सूर्य में प्रकाश (प्रतिबिम्बित आभास अर्थात् चैतन्य),  समस्त वेदों में प्रणव अर्थात् ओंकार, तथा आकाश में शब्द, और मनुष्यों में पौरुष हूँ ।
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टिप्पणी :
पञ्च तन्मात्राएँ पञ्च-प्राणों के गुणधर्मवाली हैं । इसलिए रस, स्पर्श, गन्ध, शब्द, तथा प्रकाश, ’समान’, ’व्यान’, ’अपान’, ’उदान’, तथा प्राण के समान धर्मवाले हैं । इस दृष्टि से जल तत्त्वतः रस है । चन्द्रमा एवं सूर्य आदि में दिखलाई देनेवाला प्रकाश / अग्नि / ’प्रभा’ किसी चेतन सत्ता के लिए, उस (चेतन सत्ता) के ही प्रमाण से अस्तित्वमान है । वह चेतन-सत्ता ’प्रकाश’ को प्रमाण है, न कि प्रकाश उसका (प्रमाण) । शब्द ’आकाश’ का गुण है, गन्ध पृथ्वी का, ’प्रणव’ वेद का, प्रकाश सूर्य तथा चन्द्र अर्थात् अग्नि का, और पौरुष / चेतनता जीवमात्र का । ’आकाश’ का तात्पर्य यहाँ स्थान-विशेष से है जैसे वायु से युक्त स्थान, जल या अन्य किसी पदार्थ में व्याप्त ’स्थान’ ।
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’रसः’ / ’rasaḥ’  -  craving for the pleasures, longing for, essence (tanmātrā) of water,

Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
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(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
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Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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Chapter 7, śloka 8,

raso:'hamapsu kaunteya
prabhāsmi śaśisūryayoḥ |
praṇavaḥ sarvavedeṣu
śabdaḥ khe pauruṣaṃ nṛṣu ||
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(rasaḥ aham apsu kaunteya
prabhā asmi śaśisūryayoḥ |
praṇavaḥ sarvavedeṣu
śabdaḥ khe pauruṣam nṛṣu ||)
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Meaning : O kaunteya, arjuna, the essence of the flow / taste, (rasa) of water, the light of the Moon and the Sun, The One sacred syllable (praṇava / OM) of the veda, I am the sound in the space, and consciousness / life in the humans / beings.
Note :
The 5 elements (mahābhūta) and 5 vital forces (prāṇa), and 5 gross elements (sthūlabhūta) are essence of one-another. Their manifest qualities (guṇa) as is perceived by the 5 senses, - flow (taste), touch, smell, sound, and sight (vision) respectively are synonymous of water, air, earth, space and light. These 5 senses are 'tanmātrā'. The 'Light' is a bit of a different quality (guṇa), that the one emitted by the Sun and the Moon (or fire) is directly revealed to 'one', 'seen' by one, by a 'conscious entity', and while it proves the existence of 'one', -a 'conscious entity' in the human body, the other four (senses) are but inferred only.  The 'conscious entity' or the 'consciousness' that is associated with a specific body (pura) is (puruṣa). The physical body may be a 'male' or a 'female', but the 'consciousness' that claims one-self the owner of the body is always beyond the attributes of the body. The 'male' / 'female' applies to the body only.
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