आज का श्लोक, ’राजविद्या’ / ’rājavidyā’
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’राजविद्या’ / ’rājavidyā’ - सब विद्याओं का राजा, सर्वश्रेष्ठ,
अध्याय 9, श्लोक 2,
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥
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(राजविद्या राजगुह्यम् पवित्रम् इदम् उत्तमम् ।
प्रत्यक्ष अवगमम् धर्म्यम् सुसुखम् कर्तुम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
यह राजविद्या, सर्वाधिक गुह्य, पवित्र तथा उत्तम है । इसका अवगम (समझकर बुद्धि में धारण करना और अभ्यास करना) धर्म के अनुकूल, अत्यन्त सुखदायी तथा किए जाने योग्य (व्यावहारिक) अनन्त अविनाशी फलवाला है ।
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टिप्पणी :
इस पूरे अध्याय 9 में ’अहं-वृत्ति’ के माध्यम से आत्म-ज्ञान तक पहुँचने का साधन स्पष्ट किया गया है । और इसलिए यह अध्याय जहाँ एक ओर अत्यन्त गूढ है, वहीं सरल-चित्त शुद्ध बुद्धि वाले के लिए अवश्य ही सरलता से ग्राह्य है । इस अध्याय के इस श्लोक 2 से अन्तिम श्लोक 34 तक ’अहं-पद’ के सन्दर्भ में मननीय है ।
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’राजविद्या’ / ’rājavidyā’ - the king of all learning,
Chapter 9, śloka 2,
rājavidyā rājaguhyaṃ
pavitramidamuttamam |
pratyakṣāvagamaṃ dharmyaṃ
susukhaṃ kartumavyayam ||
--
(rājavidyā rājaguhyam
pavitram idam uttamam |
pratyakṣa avagamam dharmyam
susukham kartum avyayam ||)
--
Meaning :
This king of learning (rājavidyā) is the most secret, sacred and Supreme. It is directly grasped and learnt, it is worth practicing, easily followed, resulting in bliss ever-lasting and supreme.
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Note :
This entire Chapter deals with the way of spiritual-quest centered around the 'I-sense'. From the very beginning (śloka 2) to the last śloka 34, The focus is on the 'I-sense', 'I-thought' and the different aspects of this 'I', which is so well-known and intimate to all living beings, yet so secret and at the same time very difficult to understand. And though this 'I' and 'I AM' is the seed, it is verily the tree of wisdom Supreme that is dealt with in this great text of (śrīmadbhagvadgītā).
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’राजविद्या’ / ’rājavidyā’ - सब विद्याओं का राजा, सर्वश्रेष्ठ,
अध्याय 9, श्लोक 2,
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥
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(राजविद्या राजगुह्यम् पवित्रम् इदम् उत्तमम् ।
प्रत्यक्ष अवगमम् धर्म्यम् सुसुखम् कर्तुम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
यह राजविद्या, सर्वाधिक गुह्य, पवित्र तथा उत्तम है । इसका अवगम (समझकर बुद्धि में धारण करना और अभ्यास करना) धर्म के अनुकूल, अत्यन्त सुखदायी तथा किए जाने योग्य (व्यावहारिक) अनन्त अविनाशी फलवाला है ।
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टिप्पणी :
इस पूरे अध्याय 9 में ’अहं-वृत्ति’ के माध्यम से आत्म-ज्ञान तक पहुँचने का साधन स्पष्ट किया गया है । और इसलिए यह अध्याय जहाँ एक ओर अत्यन्त गूढ है, वहीं सरल-चित्त शुद्ध बुद्धि वाले के लिए अवश्य ही सरलता से ग्राह्य है । इस अध्याय के इस श्लोक 2 से अन्तिम श्लोक 34 तक ’अहं-पद’ के सन्दर्भ में मननीय है ।
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’राजविद्या’ / ’rājavidyā’ - the king of all learning,
Chapter 9, śloka 2,
rājavidyā rājaguhyaṃ
pavitramidamuttamam |
pratyakṣāvagamaṃ dharmyaṃ
susukhaṃ kartumavyayam ||
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(rājavidyā rājaguhyam
pavitram idam uttamam |
pratyakṣa avagamam dharmyam
susukham kartum avyayam ||)
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Meaning :
This king of learning (rājavidyā) is the most secret, sacred and Supreme. It is directly grasped and learnt, it is worth practicing, easily followed, resulting in bliss ever-lasting and supreme.
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Note :
This entire Chapter deals with the way of spiritual-quest centered around the 'I-sense'. From the very beginning (śloka 2) to the last śloka 34, The focus is on the 'I-sense', 'I-thought' and the different aspects of this 'I', which is so well-known and intimate to all living beings, yet so secret and at the same time very difficult to understand. And though this 'I' and 'I AM' is the seed, it is verily the tree of wisdom Supreme that is dealt with in this great text of (śrīmadbhagvadgītā).
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