Saturday, September 27, 2014

16/8,

आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 8,

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥
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(असत्यम् अप्रतिष्ठम् ते जगत् आहुः अनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतम् किम् अन्यत् कामहैतुकम् ॥)
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भावार्थ :
(पिछले श्लोक 7 में आसुरी प्रकृतिवाले जिन मनुष्यों का वर्ण किया गया), वे कहते हैं कि जगत् का कोई स्रष्टा नहीं है, कोई सुनिश्चित स्थिर अधिष्ठान नहीं है और न ही कोई शासन करनेवाला है जो इसका संचालन करनेवाला, सूत्रधार हो । यह (जगत्) किसी दूसरे से उत्पन्न नहीं हुआ, और कामनाओं की तुष्टि करने के अतिरिक्त इसका कोई अन्य हेतु नहीं है ।
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टिप्पणी :
इसे नास्तिक दर्शन का मूल सिद्धान्त कहा जा सकता है । आसुरी प्रकृतिवाले मानते हैं कि जगत् असत्य है, किन्तु उनका यह कथन आधा-अधूरा है, क्योंकि वे जगत् को अनित्य नहीं कहते । इस बारे में विचार करने की आवश्यकता ही उन्हें नहीं अनुभव होती । क्योंकि जिस जगत् को वे असत्य कहते हैं उसके बारे में आगे और कुछ कहने के लिए कारण ही कहाँ रह जाता है? जब आप स्वप्न को असत्य कह देते हैं तो उसके नित्य-अनित्य होने का तो प्रश्न ही नहीं रह जाता । इसलिए जब वे कहते हैं कि जगत् का कोई सुदृढ आधारभूत अधिष्ठान नहीं है, जिसमें उसकी प्रतिष्ठा / अवस्थिति सुनिश्चित हो सके, तो यह उस पहली मान्यता का ही स्वाभाविक निष्कर्ष है (कि जगत् असत्य है) । और इसलिए तीसरा निष्कर्ष कि इसका कोई सूत्रधार (ईश्वर), इस जगत्-रूपी उपक्रम को संचालित करनेवाला, इसकी व्यवस्था और देख-रेख करनेवाला भी कोई नहीं है, तो यह भी पिछले निष्कर्ष से प्राप्त होनेवाला एक और निष्कर्ष है । फिर जगत् के होने का क्या कारण / प्रयोजन / उद्देश्य हो सकता है? यही कि कामनाओं की तुष्टि करते हुए निरन्तर सुखी रहा जाए । आसुरी प्रकृति वाले इस तर्क को और आगे नहीं बढ़ाते क्योंकि उसके बाद उन्हें इस बारे में सोचने का कोई औचित्य ही नहीं प्रतीत होता ।          
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Chapter 16, śloka 8,

asatyamapratiṣṭhaṃ te
jagadāhuranīśvaram |
aparasparasambhūtaṃ
kimanyatkāmahaitukam ||
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(asatyam apratiṣṭham te
jagat āhuḥ anīśvaram |
aparasparasambhūtam
kim anyat kāmahaitukam ||)
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Meaning :
They, (as described in the previous śloka 7, those with inherent evil tendencies / āsurī prakṛti),  claim that the world is untrue, -in fact is non-existent as such, and neither there is a firm ground that could support and keep secure the world. And obviously, there is no-one, no agency, no authority (īśvara) that has brought the world into existence, and so (even if there is a world) the world exists on its own (aparasparasambhūtam),  looks after the world, and its many activities (of innumerable kinds), which keep going on as we tend to believe. So what could be the possible justification to explain its purpose? None, except to live happily, fulfilling the desires (as long as we are alive).      
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Note :
This śloka 8, explains in volumes about the basis of most of this day 'isms' and ideologies, be they of so-called believers or non-believers. They have reached the pinnacle of human intellect, yet seem to refuse entering the Intelligence. Because spontaneous intelligence clearly points out to us that one's own existence, though not defined (bu always self-evident) is the firm basis that is inseparable with the world where-in we live and tend to think we are this specific body with a particular name and form. Yet this happens in the waking state only and there are other mental states also in my experience, where 'I' find 'myself' in another quite distinct 'world' which we call dream. But then, we are so obsessed with the reality of the waking-state existence that we take it the only reality and the other states of the mind as illusory, fanciful or just unreal. True, those who live on the sense-levels only, do find a common world to 'us' which is perceived through senses only. This physical world. But is not there a fine and extremely strict 'rule' that governs the laws of the science. Is not the rule itself an evidence of an Intelligence that is the rule and the foundation and firm ground of the rule? Is That Intelligence of a mechanical kind? Or, possibly of an artificial one? Is not That Intelligence (inherent in) all that we perceive and we ourselves are? Could we possibly deny and distinguish between Existence and Intelligence?
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