Saturday, September 13, 2014

आज का श्लोक, ’राजसम्’ / ’rājasam’

आज का श्लोक, ’राजसम्’ / ’rājasam’
_____________________________

’राजसम्’ / ’rājasam’ - रजोगुण की प्रबलता वाला,

अध्याय 17, श्लोक 12,

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्
--
(अभिसन्धाय तु फलम् दम्भार्थम् अपि च एव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तम् यज्ञम् विद्धि राजसम् ॥)
--
भावार्थ :
किन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! जिस यज्ञ का अनुष्ठान केवल दिखावे (दम्भ) के लिए, या फल को भी दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है, उसे तुम राजस जानो ।
--
अध्याय 17, श्लोक 18,

सत्कारमानपूजार्थमं तपो दम्भेन चैव यत् ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥
--
(सत्कारमानपूजार्थम् तपः दम्भेन च एव यत् ।
क्रियते तत् इह प्रोक्तम्  राजसम् चलम् अध्रुवम् ॥
--
भावार्थ :
जो तप सत्कार, सम्मान और पूजा के लिए तथा इसी प्रकार किसी अन्य स्वार्थ से प्रेरित होकर या, पाखण्डपूर्वक (दिखावे के लिए) किया जाता है, उसे यहाँ राजस प्रकार का, अनिश्चित तथा अनित्य फलवाला कहा गया है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 21,

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥
--
(यत् तु प्रत्युपकारार्थम् फलम् उद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टम् तत् दानम् राजसम् स्मृतम् ॥
--
भावार्थ :
जो दान बदले में सम्मान, गौरव आदि पाने के लिए, या किसी विशेष फल की प्राप्ति की कामना से, या फिर क्लेशपूर्वक, बाध्य होकर दिया जाता है उस दान को राजस दान कहा गया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 8,

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥
--
(दुःखम् इति यत् कर्म कायक्लेश-भयात् त्यजेत् ।
सः कृत्वा राजसम् त्यागम् न एव कर्मफलम् लभेत् ॥)
--
भावार्थ :
कर्ममात्र ही दुःखरूप (क्लेश का कारण) है, ऐसा सोचकर यदि कोई शरीर को क्लेश न उठाना पड़े,  इस भय से कर्तव्य कर्मों का करना भी त्याग दे तो इस प्रकार का राजस त्याग करने पर, इस त्याग के फल की प्राप्ति भी उसे नहीं होती ।
--
अध्याय 18, श्लोक 21,

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्
--
(पृथक्त्वेन तु यत् ज्ञानम् नानाभावान्-पृथक्-विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तत् ज्ञानम् विद्धि राजसम् ॥)
--
भावार्थ :
मनुष्य के उस ज्ञान को, अर्थात् उस बुद्धि को, जिसके द्वारा सभी भूतों (में अवस्थित एकमेव आत्मा) को परस्पर भिन्नता-सहित पृथक्-पृथक् की भाँति ग्रहण किया जाता है, राजसी बुद्धि जानो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 24,

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥
--
(यत् तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासम् तत् राजसम् उदाहृतम् ॥)
--
भावार्थ :
किन्तु, जिस कर्म को भोगों की प्राप्ति के उद्देश्य से, ’मैं’ करता हूँ इस आग्रह के साथ किया जाता है, या फिर जिसे बहुत परिश्रम से किया जाता है, उसको राजस कर्म कहा जाता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 38,

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥)
--
(विषय-इन्द्रिय-संयोगात्-यत्-तत्-अग्रे-अमृतोपमम् ।
परिणामे विषम्-इव तत् सुखम् राजसम् मतम् ॥)
--
भावार्थ :
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है और प्रारम्भ में अमृतोपम (प्रतीत) होता है, किन्तु परिणाम में विष-तुल्य सिद्ध होता है, उसको राजस-सुख कहा गया है ।
--

’राजसम्’ / ’rājasam’ - of the rājasa kind.

Chapter 17, śloka 12,

abhisandhāya tu phalaṃ
dambhārthamapi caiva yat |
ijyate bharataśreṣṭha taṃ
yajñaṃ viddhi rājasam ||
--
(abhisandhāya tu phalam
dambhārtham api ca eva yat |
ijyate bharataśreṣṭha tam
yajñam viddhi rājasam ||)
--
Meaning :
The sacrifice (yajña) that is performed only as ostentation, or even with keeping the fruits in sight,  O bharataśreṣṭha arjuna! know it of the rājasa kind.
--
Chapter 17, śloka 18,

satkāramānapūjārthamaṃ
tapo dambhena caiva yat |
kriyate tadiha proktaṃ
rājasaṃ calamadhruvam ||
--
(satkāramānapūjārtham
tapaḥ dambhena ca eva yat |
kriyate tat iha proktam
rājasam calam adhruvam ||)
--
Meaning :
The austerities that are observed with the intention of receiving some reward in terms wealth, respect, honour or reverence from others, or just for pomp and show only are here said to fall under the category of 'rājasa'. Such an austerity gives temporary, uncertain and unstable effects.  
--
Chapter 17, śloka 21,

yattu pratyupakārārthaṃ
phalamuddiśya vā punaḥ |
dīyate ca parikliṣṭaṃ
taddānaṃ rājasaṃ smṛtam ||
--
(yat tu pratyupakārārtham
phalam uddiśya vā punaḥ |
dīyate ca parikliṣṭam
tat dānam rājasam smṛtam ||
--
Meaning :
The charity / donation offered with expectation of gaining reputation, appreciation in reward of the same, or with a purpose of fulfilling some desire, or again, because of fear or compulsion is termed as of the rājasa kind.
--
Chapter 18, śloka 8,

duḥkhamityeva yatkarma
kāyakleśabhayāttyajet |
sa kṛtvā rājasaṃ tyāgaṃ
naiva tyāgaphalaṃ labhet ||
--
(duḥkham iti yat karma
kāyakleśa-bhayāt tyajet |
saḥ kṛtvā rājasam tyāgam
na eva karmaphalam labhet ||)
--
Meaning :
Because the Action causes pain and discomfort to body, renouncing of such an obligatory duty, is a kind of rājasa tyāga and is in vain, because yields no fruit of renunciation what-so-ever.
--
Note : the fruit of renunciation is peace and harmony in mind, which is not attained when one renounces the duties, because of compulsion or fear.
--
Chapter 18, śloka 21,

pṛthaktvena tu yajjñānaṃ
nānābhāvānpṛthagvidhān |
vetti sarveṣu bhūteṣu
tajjñānaṃ viddhi rājasam ||
--
(pṛthaktvena tu yat jñānam
nānābhāvān-pṛthak-vidhān |
vetti sarveṣu bhūteṣu
tat jñānam viddhi rājasam ||)
--
Meaning :
Know that the intellect (in man) which assumes (The One Reality present in) all beings different from one-another, is of the rājasī /  rājas kind.  
--
Chapter 18, śloka 24,

yattu kāmepsunā karma
sāhaṅkāreṇa vā punaḥ |
kriyate bahulāyāsaṃ
tadrājasamudāhṛtam ||
--
(yat tu kāmepsunā karma
sāhaṅkāreṇa vā punaḥ |
kriyate bahulāyāsam
tat rājasam udāhṛtam ||)
--
Meaning :
But, The action that is prompted by the desire for enjoyment of pleasures, or is done with the attitude of ego, and requires a lot of effort is called  karma of the rājasa kind.
--
Chapter 18, śloka 38,

viṣayendriyasaṃyogād-
yattadagre:'mṛtopamam |
pariṇāme viṣamiva
tatsukhaṃ rājasaṃ smṛtam ||)
--
(viṣaya-indriya-saṃyogāt-
yat-tat-agre-amṛtopamam |
pariṇāme viṣam-iva tat
sukham rājasam matam ||)
--
Meaning :
(And the happiness of the second kind is,) That is caused because of the contact between the objects with their specific senses of enjoyments, and though appears like nectar in the beginning, proves like a poison in the end. Such happiness is known as ’rājasam’ (or owing to the passion-aspect of prakṛti).
--



No comments:

Post a Comment