आज का श्लोक,
’राजर्षयः’ / ’rājarṣayaḥ’
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’राजर्षयः’ / ’rājarṣayaḥ’ - राजर्षि (बहुवचन)
अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
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(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगो नष्टः परंतपः ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
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अध्याय 9, श्लोक 33,
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥
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(किम् पुनः ब्राह्मणाः पुण्याः भक्ताः राजर्षयः तथा ।
अनित्यम्-असुखम् लोकम् इमम् प्राप्य भजस्व माम् ॥)
--
भावार्थ :
(पिछले श्लोक के क्रम में, ...)
अतः फिर जो ब्राह्मण हैं, पुण्यवान् (पावन) भक्त हैं, तथा राजर्षि हैं (वे तो अवश्य ही उस परागति को प्राप्त होते हैं इसमें संशय नहीं), इसलिए इस अनित्य, सुखरहित संसार में जन्म प्राप्त हुआ है, तो मेरा ही भजन करो ।
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’राजर्षयः’ / ’rājarṣayaḥ’
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’राजर्षयः’ / ’rājarṣayaḥ’ - राजर्षि (बहुवचन)
अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
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(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगो नष्टः परंतपः ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
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अध्याय 9, श्लोक 33,
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥
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(किम् पुनः ब्राह्मणाः पुण्याः भक्ताः राजर्षयः तथा ।
अनित्यम्-असुखम् लोकम् इमम् प्राप्य भजस्व माम् ॥)
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भावार्थ :
(पिछले श्लोक के क्रम में, ...)
अतः फिर जो ब्राह्मण हैं, पुण्यवान् (पावन) भक्त हैं, तथा राजर्षि हैं (वे तो अवश्य ही उस परागति को प्राप्त होते हैं इसमें संशय नहीं), इसलिए इस अनित्य, सुखरहित संसार में जन्म प्राप्त हुआ है, तो मेरा ही भजन करो ।
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’राजर्षयः’ / ’rājarṣayaḥ’ - king-sages, sages born in the family of kings. Royal-sages,
Chapter 4, śloka 2,
evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
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(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayo viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapaḥ ||)
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Meaning :
This yoga that was transferred in succession and was / is acquired traditionally (as described in śloka 1) was / is known by the king-sages (rājarṣi), And in the long passage of time, the same has become almost lost to us.
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Chapter 9, śloka 33,
kiṃ punarbrāhmaṇāḥ puṇyā
bhaktā rājarṣayastathā |
anityamasukhaṃ lokam-
imaṃ prāpya bhajasva mām ||
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(kim punaḥ brāhmaṇāḥ puṇyāḥ
bhaktāḥ rājarṣayaḥ tathā |
anityam-asukham lokam imam
prāpya bhajasva mām ||)
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Meaning :
(This śloka 33, is in continuation of the previous śloka 32, where it has been said that who-so-ever is dedicated to ME, be even if born in a sinful birth, or as a woman, a business-caste, or a lower one, shall attain the state Supreme, irrespective of these defects.)
Then what to say of those who are born as brāhmaṇa, with their heart and minds purified, and of those, who are born in the family of royal- ṛṣi-s (They shall certainly attain the same state Supreme of the Self, 'ME'). Therefore having born in this impermanent birth, full of sorrow, by all possible means, be devoted to ME.
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