आज का श्लोक, ’रमते’ / ’ramate’
____________________________
’रमते’ / ’ramate’ - लिप्त होते हैं, संलग्न होते हैं,
अध्याय 5, श्लोक 22,
ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
--
(ये हि संस्पर्शजाः भोगाः दुःखयोनयः एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥)
--
भावार्थ :
विषयों और इन्द्रियों के पारस्परिक संपर्क से उत्पन्न होनेवाले जितने भी भोग हैं (यद्यपि वे सुख्प्रद दिखलाई देते हों, परिणाम में) वे दुःख के ही हेतु हैं । उन आद्यन्तवन्त (जिनका प्रारंभ और अन्त है), ऐसे भोगों में हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र) अर्जुन ! विवेकीजन नहीं लिप्त होते ।
--
अध्याय 18, श्लोक 36,
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥
--
(सुखम् तु इदानीम् त्रिविधम् श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अब हे भरतर्षभ (अर्जुन)! अब तुम मुझसे यह सुनो कि सुख अर्थात् आनन्द (किस तरह से) तीन प्रकार का होता है । (पहला वह) जहाँ मनुष्य (का मन) अभ्यास करते करते ही रमने लगता है और दुःख के अन्त (निरोध) को प्राप्त हो जाता है ।
--
’रमते’ / ’ramate’ - indulge in, take pleasure in,
Chapter 5, śloka 22,
ye hi saṃsparśajā bhogāḥ
duḥkhayonaya eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||
--
(ye hi saṃsparśajāḥ bhogāḥ
duḥkhayonayaḥ eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||)
--
Meaning :
O kaunteya (arjuna)! The pleasures that are enjoyed by the contact of senses with the objects are the cause of misery only. They always have a beginning and an end. Wise never indulge in them.
--
Chapter 18, śloka 36,
sukhaṃ tvidānīṃ trividhaṃ
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsādramate yatra
duḥkhāntaṃ ca nigacchati ||
--
(sukham tu idānīm trividham
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsāt ramate yatra
duḥkhāntam ca nigacchati ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! Now hear from Me about the Happiness that is of three kinds. (The first is: ) Which is achieved and enjoyed through long efforts and practice, where-by the sorrow comes to the final end. And, ...
--
____________________________
’रमते’ / ’ramate’ - लिप्त होते हैं, संलग्न होते हैं,
अध्याय 5, श्लोक 22,
ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
--
(ये हि संस्पर्शजाः भोगाः दुःखयोनयः एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥)
--
भावार्थ :
विषयों और इन्द्रियों के पारस्परिक संपर्क से उत्पन्न होनेवाले जितने भी भोग हैं (यद्यपि वे सुख्प्रद दिखलाई देते हों, परिणाम में) वे दुःख के ही हेतु हैं । उन आद्यन्तवन्त (जिनका प्रारंभ और अन्त है), ऐसे भोगों में हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र) अर्जुन ! विवेकीजन नहीं लिप्त होते ।
--
अध्याय 18, श्लोक 36,
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥
--
(सुखम् तु इदानीम् त्रिविधम् श्रुणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
अब हे भरतर्षभ (अर्जुन)! अब तुम मुझसे यह सुनो कि सुख अर्थात् आनन्द (किस तरह से) तीन प्रकार का होता है । (पहला वह) जहाँ मनुष्य (का मन) अभ्यास करते करते ही रमने लगता है और दुःख के अन्त (निरोध) को प्राप्त हो जाता है ।
--
’रमते’ / ’ramate’ - indulge in, take pleasure in,
Chapter 5, śloka 22,
ye hi saṃsparśajā bhogāḥ
duḥkhayonaya eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||
--
(ye hi saṃsparśajāḥ bhogāḥ
duḥkhayonayaḥ eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||)
--
Meaning :
O kaunteya (arjuna)! The pleasures that are enjoyed by the contact of senses with the objects are the cause of misery only. They always have a beginning and an end. Wise never indulge in them.
--
Chapter 18, śloka 36,
sukhaṃ tvidānīṃ trividhaṃ
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsādramate yatra
duḥkhāntaṃ ca nigacchati ||
--
(sukham tu idānīm trividham
śruṇu me bharatarṣabha |
abhyāsāt ramate yatra
duḥkhāntam ca nigacchati ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! Now hear from Me about the Happiness that is of three kinds. (The first is: ) Which is achieved and enjoyed through long efforts and practice, where-by the sorrow comes to the final end. And, ...
--
No comments:
Post a Comment