Friday, September 26, 2014

13/11,

आज का श्लोक,
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अध्याय 13, श्लोक 11,

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
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(अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतत् ज्ञानम् इति प्रोक्तम् अज्ञानम् यत् अतः अन्यथा ॥)
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भावार्थ :
अध्यात्मज्ञान में नित्य अवस्थिति, तत्वज्ञान के तात्पर्य का दर्शन, इसे ज्ञान कहा जाता है, और जो इनसे भिन्न है, उसे अज्ञान (कहा जाता है) ।  
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टिप्पणी :
अधि + आत्म, के अनुसार ’मैं’- वृत्ति के सक्रिय होने से पहले जो है, वह ’अध्यात्म’ है, ’मैं’-वृत्ति अनित्य है, जबकि ’अध्यात्म’ नित्य है । इस प्रकार से नित्य-अनित्य का विवेक अध्यात्मज्ञान है, और तत्वज्ञान के तात्पर्य का दर्शन, इन दोनों का योग ज्ञान है । तत्वज्ञान के तात्पर्य को समझने से पहले ’ततम्’ को समझना आवश्यक है क्योंकि जो ’ततम्’ है, वही ’तत्व’ है ।
इसे इस प्रकार से देखें :
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अध्याय 2, श्लोक 17,

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
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भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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अध्याय 8, श्लोक 22,

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
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(पुरुषः सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया ।
यस्य अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन) जिससे और जिसमें यह सब दृश्य जगत् ओत-प्रोत है, सर्वभूत जिसके ही भीतर अवस्थित हैं,  वह पुरुष (परमात्मा) तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
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अध्याय 9, श्लोक 4,

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥
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(मया ततम् इदम् सर्वम् जगत् अव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्वस्थितः ॥)
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भावार्थ :
मुझ अव्यक्तस्वरूप (निराकार) से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है । और सम्पूर्ण भूत मेरे ही आश्रय से मुझमें स्थित हैं, न कि मैं उनमें ।
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अध्याय 11, श्लोक 38,

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
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(त्वम् आदिदेवः पुरुषः पुराणः
त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम् ।
वेत्ता असि वेद्यम् च परम् निधानम्
त्वया ततम् विश्वम् अनन्तरूप ॥
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भावार्थ :
आप आदिदेव हैं, पुरुष सनातन हैं, आप इस जगत् के परम आश्रय हैं । आप ही एकमात्र जाननेवाले (ज्ञाता), जिसे जाना जाता है वह जानने-योग्य तत्व (ज्ञेय), तथा परम धाम हैं, हे अनन्तरूप! समस्त विश्व आपसे ओत-प्रोत है ।
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अध्याय 18, श्लोक 46,

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
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(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
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भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,)  जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
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Chapter 13, śloka 11,

adhyātmajñānanityatvaṃ
tatvajñānārthadarśanam |
etajjñānamiti prokta-
majñānaṃ yadato:'nyathā ||
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(adhyātmajñānanityatvam
tattvajñānārthadarśanam |
etat jñānam iti proktam
ajñānam yat ataḥ anyathā ||)
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Meaning :
The Self that is prior to the sense of 'I', where-from this sense originates and associated with the physical body sports in the body, is 'adhyātma'. The awareness of this Self and knowing that Self is eternal, while the sense of 'I' is transitory is 'adhyātmajñānanityatvaṃ'. Knowing and seeing the 'tat' / 'Brahman' / 'tatva'/ 'tatam' everywhere within oneself and in the world outside oneself, is 'tatvajñānārthadarśanam'. To understand this better let us have a look at the following :
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Chapter 2, śloka 17,

avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 8, śloka 22, 

puruṣaḥ sa paraḥ pārtha
bhaktyā labhyastvananyayā |
yasyāntaḥsthāni bhūtāni
yena sarvamidaṃ tatam ||
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(puruṣaḥ saḥ paraḥ pārtha
bhaktyā labhyaḥ tu ananyayā |
yasya antaḥsthāni bhūtāni
yena sarvam idam tatam ||)
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Meaning :
O pārtha  (arjuna)! The Supreme, wherein abides the whole existence, is all over and everywhere yet transcends all, and all beings are within Him, is attained only through devotion extreme.
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Chapter 11, śloka 38,

tvamādidevaḥ puruṣaḥ purāṇa-
stvamasya viśvasya paraṃ nidhānam |
vettāsi vedyaṃ ca paraṃ ca dhāma
tvayā tataṃ viśvamanantarūpa||
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(tvam ādidevaḥ puruṣaḥ purāṇaḥ
tvam asya viśvasya param nidhānam |
vettā asi vedyam ca param nidhānam
tvayā tatam viśvam anantarūpa ||
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Meaning :
You are the Divinity prime (ādideva), Spirit (puruṣa) Eternal (purāṇa), You are The abode supreme of this All (viśva), O Manifest in Infinite forms (anantarūpa) ! You pervade all this existence.
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Chapter 18, śloka 46,

yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
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(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
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Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
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