Monday, September 22, 2014

9/3,

आज का श्लोक,
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अध्याय 9, श्लोक 3,

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥
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(अश्रद्दधानाः पुरुषाः धर्मस्य अस्य परन्तप ।
अप्राप्य माम् निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥)
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भावार्थ :
इस (राजविद्या के) धर्म के प्रति श्रद्धारहित मनुष्य, हे परन्तप (अर्जुन)! मुझे न प्राप्त होकर, मृत्युरूपी संसार में सतत भटकते रहते हैं ।
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टिप्पणी :
पिछले श्लोक 2 में राजविद्या को प्रत्यक्ष पहचानी जा सकनेवाली, आचरणगम्य, तथा धर्म्य कहा गया था । एक ओर उसे राजगुह्य अर्थात् परम गूढ, कहा गया, वहीं दूसरी ओर इसे ’प्रत्यक्षावगम’ भी कहा गया । और इसमें विरोधाभास प्रतीत हो सकता है, किन्तु थोड़ा ध्यान से देखें तो इस अध्याय में ’अहं-प्रत्यय’ के अवलोकन के माध्यम से आत्म-ज्ञान का मार्ग दिखलाया गया है । ’अहं-प्रत्यय’ अर्थात् ’मैं’-विचार, ’मैं’-वृत्ति, जिससे कोई अनभिज्ञ नहीं हो सकता । इसलिए इसका प्रत्यक्ष बोध हर किसी को अनायास होने के कारण, इसको ’प्रत्यक्षावगम’ कहा गया । किन्तु इतने से ही तो हर किसी को आत्म-ज्ञान नहीं हो जाता । क्योंकि यह ’मैं’-विचार सिर्फ़ संकेतक है, यह सिर्फ़ दिशा इंगित करता है न कि वह तत्व है जिसकी ओर यह संकेतक इंगित करता है । और जब कोई इस संकेतक से दिशा समझकर उस दिशा में अनुसंधान करता है तो वह ’मुझे’ प्राप्त हो जाता है । इसलिए दूसरी दृष्टि से यह राजविद्या परम गुह्य भी है ।
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अध्याय 9, श्लोक 2,
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥
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(राजविद्या राजगुह्यम् पवित्रम् इदम् उत्तमम् ।
प्रत्यक्ष अवगमम् धर्म्यम् सुसुखम् कर्तुम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
यह राजविद्या, सर्वाधिक गुह्य, पवित्र तथा उत्तम विद्या है । इसका अवगम (समझकर बुद्धि में धारण करना और अभ्यास करना) धर्म के अनुकूल, अत्यन्त सुखदायी तथा किए जाने योग्य (व्यावहारिक) अनन्त अविनाशी फलवाला है ।
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टिप्पणी :
इस पूरे अध्याय 9 में ’अहं-वृत्ति’ के माध्यम से आत्म-ज्ञान तक पहुँचने का साधन स्पष्ट किया गया है । और इसलिए यह अध्याय जहाँ एक ओर अत्यन्त गूढ है, वहीं सरल-चित्त शुद्ध बुद्धि वाले के लिए अवश्य ही सरलता से ग्राह्य है । इस अध्याय के इस श्लोक 2 से अन्तिम श्लोक 34 तक ’अहं-पद’ के सन्दर्भ में मननीय है ।
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Chapter 9, śloka 3 ,
aśraddadhānāḥ puruṣā
dharmasyāsya parantapa |
aprāpya māṃ nivartante
mṛtyusaṃsāravartmani ||
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(aśraddadhānāḥ puruṣāḥ
dharmasya asya parantapa |
aprāpya mām nivartante
mṛtyusaṃsāravartmani ||)
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Meaning : Those who have no trust in following this dharma, of this (rājavidyā), O parantapa (arjuna)! They never attain ME, but keep on going indefinitely through the cycles of birth and rebirth in this world, that is but another form of death only.
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This whole chapter lays emphasis on 'I-sense' that is so obvious yet so inexplicable and difficult to understand and learn about the essence and meaning of. Therefore this 'I' / Self / Self Supreme has been described  in 2 of Chapter 9, as :
’राजविद्या राजगुह्यम् ... प्रत्याक्षावगमं धर्म्यम् ...’, The most secret, yet very simple and is understood directly and easily. The word 'pratyakṣa' means 'im-mediate' that again means without a medium, but few, those who are earnest and dedicated to this, get the clue and seek it in the 'I', in the very heart of one's core-being.
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Chapter 9, śloka 2,
rājavidyā rājaguhyaṃ
pavitramidamuttamam |
pratyakṣāvagamaṃ dharmyaṃ
susukhaṃ kartumavyayam ||
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(rājavidyā rājaguhyam
pavitram idam uttamam |
pratyakṣa avagamam dharmyam
susukham kartum avyayam ||)
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Meaning :
This king of learning (rājavidyā) is the wisdom most secret, sacred and Supreme. It is directly grasped and learnt, it is worth practicing, easily followed, resulting in bliss ever-lasting and supreme.
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Note :
This entire Chapter deals with the way of spiritual-quest centered around the 'I-sense'. From the very beginning (śloka 2) to the last śloka 34, The focus is on the 'I-sense', 'I-thought' and the different aspects of this 'I', which is so well-known and intimate to all living beings, yet so secret and at the same time very difficult to understand. And though this 'I' and 'I AM' is the seed, it is verily the tree of wisdom Supreme that is dealt with in this great text of (śrīmadbhagvadgītā).
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