आज का श्लोक,
’रसात्मकः’ / ’rasātmakaḥ’
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’रसात्मकः’ / ’rasātmakaḥ’ - रसस्वरूप अर्थात् अमृतस्वरूप, जीवनदायी, प्राणदायी,
अध्याय 15, श्लोक 13,
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥
--
(गाम् आविश्य च भूतानि धारयामि अहम् ओजसा ।
पुष्णामि च ओषधीः सर्वाः सोमः भूत्वा रसात्मकः ॥)
--
भावार्थ :
और पृथ्वी में प्रवेश कर (व्याप्त होकर) अपने ओज से मैं सब भूतों को धारण करता हूँ । रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों / वनस्पतियों को पुष्टि प्रदान करता हूँ ।
--
टिप्पणी : सामान्य दृष्टि से ’सोम’ का तात्पर्य ’चन्द्रमा’ ग्रहण किया जाता है, किन्तु श्रीमद्भग्वद्गीता के शाङ्कर भाष्य में जो अर्थ भगवान् शङ्कर आचार्य द्वारा प्रदान किया गया है, वह अक्षरशः इस प्रकार है :
" किं च पृथिव्यां जाता ओषधीः सर्वा ब्रीहियवाद्याः पुष्णामि पुष्टिमती रसास्वादुमतीः च करोमि सोमो भूत्वा रसात्मकः सोमः सर्वरसात्मको रसस्वभावः सर्वरसानाम् आकरः सोमः स हि सर्वा ओषधीः स्वात्मरसानुप्रवेशेन पुष्णाति ॥१३॥"
जहाँ सोम चन्द्रमा का पर्याय है, ऐसा नहीं दिखलाई देता ।
यहाँ भी मनुष्य की अपनी मानसिकता और परिपक्वता के अनुसार पौराणिक तथा वैदिक दृष्टिकोण से समग्र तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है ।
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’रसात्मकः’ / ’rasātmakaḥ’ - full of delight, life-giving,
Chapter 15, śloka 13,
gāmāviśya ca bhūtāni
dhārayāmyahamojasā |
puṣṇāmi cauṣadhīḥ sarvāḥ
somo bhūtvā rasātmakaḥ ||
--
(gām āviśya ca bhūtāni
dhārayāmi aham ojasā |
puṣṇāmi ca oṣadhīḥ sarvāḥ
somaḥ bhūtvā rasātmakaḥ ||)
--
Meaning :
Entering and pervading the Earth, I enrich and support all the beings through my strength (ojasa). I nourish all the herbs and flora, the vegetation, in the form of nectarine 'soma', the essence and juice of life.
--
Note :
Here once again, the meaning of 'soma' may be taken in the vaidika / paurāṇika parlance according to one's orientation and mind-set.
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’रसात्मकः’ / ’rasātmakaḥ’
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’रसात्मकः’ / ’rasātmakaḥ’ - रसस्वरूप अर्थात् अमृतस्वरूप, जीवनदायी, प्राणदायी,
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥
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(गाम् आविश्य च भूतानि धारयामि अहम् ओजसा ।
पुष्णामि च ओषधीः सर्वाः सोमः भूत्वा रसात्मकः ॥)
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भावार्थ :
और पृथ्वी में प्रवेश कर (व्याप्त होकर) अपने ओज से मैं सब भूतों को धारण करता हूँ । रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों / वनस्पतियों को पुष्टि प्रदान करता हूँ ।
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टिप्पणी : सामान्य दृष्टि से ’सोम’ का तात्पर्य ’चन्द्रमा’ ग्रहण किया जाता है, किन्तु श्रीमद्भग्वद्गीता के शाङ्कर भाष्य में जो अर्थ भगवान् शङ्कर आचार्य द्वारा प्रदान किया गया है, वह अक्षरशः इस प्रकार है :
" किं च पृथिव्यां जाता ओषधीः सर्वा ब्रीहियवाद्याः पुष्णामि पुष्टिमती रसास्वादुमतीः च करोमि सोमो भूत्वा रसात्मकः सोमः सर्वरसात्मको रसस्वभावः सर्वरसानाम् आकरः सोमः स हि सर्वा ओषधीः स्वात्मरसानुप्रवेशेन पुष्णाति ॥१३॥"
जहाँ सोम चन्द्रमा का पर्याय है, ऐसा नहीं दिखलाई देता ।
यहाँ भी मनुष्य की अपनी मानसिकता और परिपक्वता के अनुसार पौराणिक तथा वैदिक दृष्टिकोण से समग्र तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है ।
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’रसात्मकः’ / ’rasātmakaḥ’ - full of delight, life-giving,
Chapter 15, śloka 13,
gāmāviśya ca bhūtāni
dhārayāmyahamojasā |
puṣṇāmi cauṣadhīḥ sarvāḥ
somo bhūtvā rasātmakaḥ ||
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(gām āviśya ca bhūtāni
dhārayāmi aham ojasā |
puṣṇāmi ca oṣadhīḥ sarvāḥ
somaḥ bhūtvā rasātmakaḥ ||)
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Meaning :
Entering and pervading the Earth, I enrich and support all the beings through my strength (ojasa). I nourish all the herbs and flora, the vegetation, in the form of nectarine 'soma', the essence and juice of life.
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Note :
Here once again, the meaning of 'soma' may be taken in the vaidika / paurāṇika parlance according to one's orientation and mind-set.
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