आज का श्लोक, ’राजसाः’ / ’rājasāḥ’
_____________________________
’राजसाः’ / ’rājasāḥ’ - रजोगुण की प्रबलता युक्त,
अध्याय 7, श्लोक 12,
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
--
(ये च एव सात्त्विकाः भावाः राजसाः तामसाः च ये ।
मत्तः एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि ॥
--
भावार्थ :
ये जो भी सात्त्विक, और ये जो राजस और तामस भाव हैं, वे उनका उद्भव मुझसे ही होता है, उन्हें इस तरह से जानो । और मैं उनमें नहीं हूँ बल्कि वे ही मुझमें हैं ।
--
टिप्पणी :
प्रथम दृष्टि में इस वक्तव्य में विरोधाभास दिखलाई देगा, किन्तु जब हम ’परमात्मा’ का अर्थ ’चित्’ ’सत्’ और आनन्द रूपी अविकारी सत्ता समझें और उसे ’अहम्’ कहें तो हम ’उत्तम पुरुष’ / ’पुरुषोत्तम’ का मर्म अवश्य देख लेंगे । वास्तव में अहम् एवम् अहंकार दोनों भिन्न तत्त्वों के नाम हैं । अहंकार सदैव सीमित और खण्डित होता है, ’अहम्’ सदा असीमित, अखण्ड, और ....।परमात्मा विशुद्ध चैतन्य मात्र है, उसमें ’अस्मि’ की भावना तक नहीं है । इस दृष्टि से जीव भी वही है । किन्तु किसी देह-विशेष में व्यक्त हुआ वही चैतन्य, देह के नाम-रूप से अपने पृथक् होने का विचार कर लेता है । और तब भी उसे यह स्पष्ट नहीं होता कि इस ’पृथक्’ सत्ता के रूप में वह क्या है ।’जानना’ और ’होना’ ’चित्’ और ’सत्’ तब भी उसके लिए स्वतःप्रमाणित सत्य होते हैं, जबकि यह ’पृथक्-ता’ का विचार मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ अन्य विचारों की तरह का ही एक विचार ही होता है । किन्तु इस अर्थ में यह शेष सभी विचारों से भिन्न होता है कि यह दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में सतत् बना रहता है । यद्यपि निद्रावस्था में यह ’पृथक्-ता’ का विचार दूसरे सभी की तरह ही विलीन हो जाता है और ’चित्’ और ’सत्’ यथावत् तब भी अविच्छिन्न रहते हैं । क्योंकि निद्रा टूटने पर दूसरे विचार, और उनकी पृष्ठभूमि में विद्यमान ’पृथक्-ता’ पुनः आ धमकते हैं, जबकि उनके अभाव में निद्रा की गहरी अवस्था में भी मनुष्य मात्र को किसी अद्भुत् आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है । संक्षेप में कहें तो गहरी निद्रा में ’चित्’, ’सत्’ और ’आनन्द’ भी प्रत्यक्ष ही जाने जाते हैं । हाँ यह अवश्य है कि ’विचार’ की भाषा में उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । किन्तु इस तथ्य पर ध्यान देने से कि ’चित्’ ’सत्’ और ’आनन्द’ ही वस्तुतः पृथक्-ता की भावना की भी आधारभूत पृष्ठभूमि है, और हमारा चित्त कभी कभी अनायास ही इस आधारभूत पृष्ठभूमि को जागृत अवस्था में भी छू लेता है, हम उसे उस परमात्मा की तरह देख सकते हैं जिसका वर्णन उपरोक्त श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने ’अहम्’ नाम देकर किया है । वे संस्कृत व्याकरण के ’उत्तम पुरुष’ एकवचन ’अहम्’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसमें सात्त्विक राजस और तामस सारे भाव उठते-गिरते रहते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं .....,
--
अध्याय 14, श्लोक 18,
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥
--
(ऊर्ध्वम् गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्थाः अधः गच्छन्ति तामसाः ॥)
--
भावार्थ :
सत्त्वगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला चेतना की उच्चतर स्थितियों की ओर गतिशील होता है, रजोगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला जहाँ का तहाँ रहता है, और जघन्यगुण (निन्दनीय) वृत्ति में स्थित रहनेवाला अधोगति की ओर गतिशील होता है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 4,
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ।
--
(यजन्ते सात्त्विकाः देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणान् च अन्ये यजन्ते तामसाः जनाः ॥)
--
भावार्थ :
सात्त्विक- प्रकृति के मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस- प्रकृति वाले यक्ष तथा राक्षसों का तथा अन्य अर्थात् तामस प्रकृति वाले प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ।
--
टिप्पणी :
प्रसंगवश यहाँ अध्याय 9 के श्लोक 25 का उल्लेख उपयोगी है ।
अध्याय 9, श्लोक 25,
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
--
(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
--
भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है ।
--
टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
--
अध्याय 8, श्लोक 21,
अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
--
(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
--
भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
--
’राजसाः’ / ’rājasāḥ’ - having predominance of rajoguṇa,
Chapter 7, śloka 12,
ye caiva sāttvikā bhāvā
rājasāstāmasāśca ye |
matta eveti tānviddhi
na tvahaṃ teṣu te mayi ||
--
(ye ca eva sāttvikāḥ bhāvāḥ
rājasāḥ tāmasāḥ ca ye |
mattaḥ eva iti tān viddhi
na tu aham teṣu te mayi ||
--
Meaning :
These tendencies of sāttvika (of harmony, peace and light ), of rājasa (passion, restlessness, confusion), and also tāmasa (indolence, inertia, ignorance and darkness) of mind though all they have their emergence from ME; know well, They are in ME, and not I, in them.
--
There is a ground where-from and where-in these tendencies emerge, express them-self and dissolve again and again. That ground is 'consciousness' which is devoid of even the 'I'-sense of being 'some-one'. This 'I'-sense, -of being 'some-one' is a thought and inference on the part of intellect (the faculty of brain). This 'I'-sense, intellect and tendencies keep rising and setting, but the ground neither rises nor sets. This ground is The timeless consciousness, undivided, unlimited, while the 'person', a bundle of memories associated with and caught together in 'I'-sense is always a person, limited in a specific body, time and space. Knowing thus ...
--
Chapter 14, śloka 18,
ūrdhvaṃ gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthā
adho gacchanti tāmasāḥ ||
--
(ūrdhvam gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthāḥ
adhaḥ gacchanti tāmasāḥ ||)
--
Meaning :
Those who try to stay in the purity of consciousness, (in the state of mind where one is aware of just being only), attain the elevated state, those who remain as they are and are lead by their modes (vṛtti) of mind keep stagnant, while those who indulge in the evil tendencies of delusion and ignorance keep falling.
--
Chapter 17, śloka 4,
yajante sāttvikā devān-
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretānbhūtagaṇāṃś-
cānye yajante tāmasā janāḥ |
--
(yajante sāttvikāḥ devān
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretān bhūtagaṇān ca anye
yajante tāmasāḥ janāḥ ||)
--
Meaning :
Those of the sāttvika tendencies worship the spiritual entities of the divine nature, and those of the rājasa tendencies worship spiritual entities like yakṣa and rākṣasa, who possess occult powers. While those having tāmasa tendencies worship the spirits of physical elements, - of the de[parted souls.
--
Note :
Here a reference to the śloka 25 of Chapter 9 is relevant :
Chapter 9, śloka 25,
yānti devavratā devān-
pitr̥̄nyānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājino:'pi mām |
--
(yānti devavratāḥ devān
pitr̥̄n yānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājinaḥ api mām ||)
--
Meaning :
Those who worship spiritual entities of the divine nature (deva, devatā), attain their place (swarga-loka), while those who worship the fore-fathers (pitaras), attain their abode (pitṛloka), Those who worship the physical elements ( bhūta-s / spirits) attain their state of being after the death of this physical body, And those who are devoted to ME attain Me / My abode only.
--
Note :
What is śrīkṛṣṇa's abode, He is referring to, by saying 'MY'?
This has been pointed out in 21 of Chapter 8 of this sacred text śrīmadbhagvadgītā, in the following words :
Chapter 8, śloka 21,
avyakto:'kṣara ityāhus-
tamāhuḥ paramāṃ gatiṃ |
yaṃ prāpya na nivartante
taddhāma paramaṃ mama ||
--
(avyaktaḥ akṣaraḥ iti uktaḥ
tam āhuḥ paramām gatim |
yam prāpya na nivartante
tat dhāma paramam mama ||)
--
Meaning :
'Immanent, not manifest, Imperishable, Eternal,...', the Supreme state, that is described in these words, is My abode ultimate, having attained this, no one ever returns (in the world of birth and rebirth of endless misery)
--
Note : And though we fail to note the direct instruction given by śrīkṛṣṇa in śrīmadbhagvadgītā, this secret has been clearly and repeatedly, frequently revealed before us, by the sages and Guru-s like śrī ramaṇa maharṣi and śrī nisargadatta mahārāja.
--
_____________________________
’राजसाः’ / ’rājasāḥ’ - रजोगुण की प्रबलता युक्त,
अध्याय 7, श्लोक 12,
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
--
(ये च एव सात्त्विकाः भावाः राजसाः तामसाः च ये ।
मत्तः एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि ॥
--
भावार्थ :
ये जो भी सात्त्विक, और ये जो राजस और तामस भाव हैं, वे उनका उद्भव मुझसे ही होता है, उन्हें इस तरह से जानो । और मैं उनमें नहीं हूँ बल्कि वे ही मुझमें हैं ।
--
टिप्पणी :
प्रथम दृष्टि में इस वक्तव्य में विरोधाभास दिखलाई देगा, किन्तु जब हम ’परमात्मा’ का अर्थ ’चित्’ ’सत्’ और आनन्द रूपी अविकारी सत्ता समझें और उसे ’अहम्’ कहें तो हम ’उत्तम पुरुष’ / ’पुरुषोत्तम’ का मर्म अवश्य देख लेंगे । वास्तव में अहम् एवम् अहंकार दोनों भिन्न तत्त्वों के नाम हैं । अहंकार सदैव सीमित और खण्डित होता है, ’अहम्’ सदा असीमित, अखण्ड, और ....।परमात्मा विशुद्ध चैतन्य मात्र है, उसमें ’अस्मि’ की भावना तक नहीं है । इस दृष्टि से जीव भी वही है । किन्तु किसी देह-विशेष में व्यक्त हुआ वही चैतन्य, देह के नाम-रूप से अपने पृथक् होने का विचार कर लेता है । और तब भी उसे यह स्पष्ट नहीं होता कि इस ’पृथक्’ सत्ता के रूप में वह क्या है ।’जानना’ और ’होना’ ’चित्’ और ’सत्’ तब भी उसके लिए स्वतःप्रमाणित सत्य होते हैं, जबकि यह ’पृथक्-ता’ का विचार मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ अन्य विचारों की तरह का ही एक विचार ही होता है । किन्तु इस अर्थ में यह शेष सभी विचारों से भिन्न होता है कि यह दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में सतत् बना रहता है । यद्यपि निद्रावस्था में यह ’पृथक्-ता’ का विचार दूसरे सभी की तरह ही विलीन हो जाता है और ’चित्’ और ’सत्’ यथावत् तब भी अविच्छिन्न रहते हैं । क्योंकि निद्रा टूटने पर दूसरे विचार, और उनकी पृष्ठभूमि में विद्यमान ’पृथक्-ता’ पुनः आ धमकते हैं, जबकि उनके अभाव में निद्रा की गहरी अवस्था में भी मनुष्य मात्र को किसी अद्भुत् आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है । संक्षेप में कहें तो गहरी निद्रा में ’चित्’, ’सत्’ और ’आनन्द’ भी प्रत्यक्ष ही जाने जाते हैं । हाँ यह अवश्य है कि ’विचार’ की भाषा में उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । किन्तु इस तथ्य पर ध्यान देने से कि ’चित्’ ’सत्’ और ’आनन्द’ ही वस्तुतः पृथक्-ता की भावना की भी आधारभूत पृष्ठभूमि है, और हमारा चित्त कभी कभी अनायास ही इस आधारभूत पृष्ठभूमि को जागृत अवस्था में भी छू लेता है, हम उसे उस परमात्मा की तरह देख सकते हैं जिसका वर्णन उपरोक्त श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने ’अहम्’ नाम देकर किया है । वे संस्कृत व्याकरण के ’उत्तम पुरुष’ एकवचन ’अहम्’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसमें सात्त्विक राजस और तामस सारे भाव उठते-गिरते रहते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं .....,
--
अध्याय 14, श्लोक 18,
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥
--
(ऊर्ध्वम् गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्थाः अधः गच्छन्ति तामसाः ॥)
--
भावार्थ :
सत्त्वगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला चेतना की उच्चतर स्थितियों की ओर गतिशील होता है, रजोगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला जहाँ का तहाँ रहता है, और जघन्यगुण (निन्दनीय) वृत्ति में स्थित रहनेवाला अधोगति की ओर गतिशील होता है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 4,
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ।
--
(यजन्ते सात्त्विकाः देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणान् च अन्ये यजन्ते तामसाः जनाः ॥)
--
भावार्थ :
सात्त्विक- प्रकृति के मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस- प्रकृति वाले यक्ष तथा राक्षसों का तथा अन्य अर्थात् तामस प्रकृति वाले प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ।
--
टिप्पणी :
प्रसंगवश यहाँ अध्याय 9 के श्लोक 25 का उल्लेख उपयोगी है ।
अध्याय 9, श्लोक 25,
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
--
(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
--
भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है ।
--
टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
--
अध्याय 8, श्लोक 21,
अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
--
(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
--
भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
--
’राजसाः’ / ’rājasāḥ’ - having predominance of rajoguṇa,
Chapter 7, śloka 12,
ye caiva sāttvikā bhāvā
rājasāstāmasāśca ye |
matta eveti tānviddhi
na tvahaṃ teṣu te mayi ||
--
(ye ca eva sāttvikāḥ bhāvāḥ
rājasāḥ tāmasāḥ ca ye |
mattaḥ eva iti tān viddhi
na tu aham teṣu te mayi ||
--
Meaning :
These tendencies of sāttvika (of harmony, peace and light ), of rājasa (passion, restlessness, confusion), and also tāmasa (indolence, inertia, ignorance and darkness) of mind though all they have their emergence from ME; know well, They are in ME, and not I, in them.
--
There is a ground where-from and where-in these tendencies emerge, express them-self and dissolve again and again. That ground is 'consciousness' which is devoid of even the 'I'-sense of being 'some-one'. This 'I'-sense, -of being 'some-one' is a thought and inference on the part of intellect (the faculty of brain). This 'I'-sense, intellect and tendencies keep rising and setting, but the ground neither rises nor sets. This ground is The timeless consciousness, undivided, unlimited, while the 'person', a bundle of memories associated with and caught together in 'I'-sense is always a person, limited in a specific body, time and space. Knowing thus ...
--
Chapter 14, śloka 18,
ūrdhvaṃ gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthā
adho gacchanti tāmasāḥ ||
--
(ūrdhvam gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthāḥ
adhaḥ gacchanti tāmasāḥ ||)
--
Meaning :
Those who try to stay in the purity of consciousness, (in the state of mind where one is aware of just being only), attain the elevated state, those who remain as they are and are lead by their modes (vṛtti) of mind keep stagnant, while those who indulge in the evil tendencies of delusion and ignorance keep falling.
--
Chapter 17, śloka 4,
yajante sāttvikā devān-
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretānbhūtagaṇāṃś-
cānye yajante tāmasā janāḥ |
--
(yajante sāttvikāḥ devān
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretān bhūtagaṇān ca anye
yajante tāmasāḥ janāḥ ||)
--
Meaning :
Those of the sāttvika tendencies worship the spiritual entities of the divine nature, and those of the rājasa tendencies worship spiritual entities like yakṣa and rākṣasa, who possess occult powers. While those having tāmasa tendencies worship the spirits of physical elements, - of the de[parted souls.
--
Note :
Here a reference to the śloka 25 of Chapter 9 is relevant :
Chapter 9, śloka 25,
yānti devavratā devān-
pitr̥̄nyānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājino:'pi mām |
--
(yānti devavratāḥ devān
pitr̥̄n yānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājinaḥ api mām ||)
--
Meaning :
Those who worship spiritual entities of the divine nature (deva, devatā), attain their place (swarga-loka), while those who worship the fore-fathers (pitaras), attain their abode (pitṛloka), Those who worship the physical elements ( bhūta-s / spirits) attain their state of being after the death of this physical body, And those who are devoted to ME attain Me / My abode only.
--
Note :
What is śrīkṛṣṇa's abode, He is referring to, by saying 'MY'?
This has been pointed out in 21 of Chapter 8 of this sacred text śrīmadbhagvadgītā, in the following words :
Chapter 8, śloka 21,
avyakto:'kṣara ityāhus-
tamāhuḥ paramāṃ gatiṃ |
yaṃ prāpya na nivartante
taddhāma paramaṃ mama ||
--
(avyaktaḥ akṣaraḥ iti uktaḥ
tam āhuḥ paramām gatim |
yam prāpya na nivartante
tat dhāma paramam mama ||)
--
Meaning :
'Immanent, not manifest, Imperishable, Eternal,...', the Supreme state, that is described in these words, is My abode ultimate, having attained this, no one ever returns (in the world of birth and rebirth of endless misery)
--
Note : And though we fail to note the direct instruction given by śrīkṛṣṇa in śrīmadbhagvadgītā, this secret has been clearly and repeatedly, frequently revealed before us, by the sages and Guru-s like śrī ramaṇa maharṣi and śrī nisargadatta mahārāja.
--
No comments:
Post a Comment