Thursday, September 18, 2014

6/12.

आज का श्लोक,
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अध्याय 6, श्लोक 12,

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
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(तत्र एकाग्रम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगम् आत्म-विशुद्धये ॥)
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भावार्थ :
(पिछले श्लोक 11 से आगे, ...)
वहाँ, उस शुद्ध स्वच्छ भूमि पर, ... मन को एकाग्र अर्थात् मन में एक संकल्प को आगे रखते हुए, चित्त तथा इन्द्रियों की गतिविधि को संयत / नियन्त्रण में रखते हुए, आसन पर बैठकर, आत्म-शुद्धि के लिए योग का अवलंबन ले ।
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टिप्पणी :
मन में एक संकल्प के रहने पर अन्य सब संकल्प उसमें लीन हो जाते हैं और अन्ततः वह संकल्प भी आधारभूत चेतना में लीन हो जाता है । यह सिद्धान्त अर्थात् योग का विज्ञान है जिसे प्रयोग द्वारा परीक्षित और सिद्ध किया जाना चाहिए ।
चित्त तथा इन्द्रियों को संयत करने से आशय है कि ध्यानपूर्वक उन्हें बाह्य विषयों से परावृत कर (लौटाकर) अपने विशिष्ट संकल्प की ओर लाने का अभ्यास किया जाए । यह संकल्प इष्ट देवता की साकार आकृति, नाम, मन्त्र, या श्वासोच्छ्वास की गतिविधि भी हो सकता है । यह संकल्प प्रश्न-रूप में अपने / आत्मा / परमात्मा के स्वरूप या ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में जिज्ञासा के रूप में भी हो सकता है । यह संकल्प, वृत्तिमात्र की प्रकृति को समझने की चेष्टा, या वृत्ति के स्रोत को जानने के प्रयास के रूप में भी हो सकता है । यह इस पर निर्भर है कि साधक का मन तथा संस्कार उसे किस ओर प्रवृत्त करते हैं । कोई-कोई सिद्धि या भौतिक कामनाओं की पूर्ति या कौतूहल से प्रेरित होकर भी किसी विशेष प्रयास में संलग्न हो सकता है, किन्तु तब प्राय उसे अन्त में निराशा ही हाथ लगती है । इसलिए ’आत्म-विशुद्धि’ बुनियादी आवश्यकता है, जिसके लिए योगसाधन किया जाना चाहिए । ध्यान तथा आत्मानुसंधान का भेद समझना भी बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान् श्री रमणमहर्षि द्वारा रचित् ’उपदेश-सार’ तथा ’सद्दर्शनम्’ संक्षेप में बहुत गूढ शिक्षा प्रदान करते हैं, विस्तार से समझने के लिए इनका अवलोकन अवश्य करना चाहिए, ऐसा कहा जा सकता है ।

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Chapter 6, śloka 12,

tatraikāgraṃ manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśyāsane yuñjyād-
yogamātmaviśuddhaye ||
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(tatra ekāgram manaḥ kṛtvā
yatacittendriyakriyaḥ |
upaviśya āsane yuñjyāt
yogam ātma-viśuddhaye ||)
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Meaning :
(starting from the preceding śloka 11, ... There on the clean ground, one should fix the seat for meditation, ...) and keeping the mind one-pointed, controlling the senses and the intellect / thought / (citta), not allowing the attention to go outward toward the objects of the mind and the senses, one should sit comfortably on this seat, and try to fix the attention on the 'Self' / 'self' in whatever way one can start with with the purpose of purification of the mind.
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Note :
According to one's temperament and conditioning of the mind, predisposition, one can either contemplate about the nature of consciousness, or keep a single thought at the fore, excluding all other thought(s), either through effort, or through ignoring them and reminding oneself of the purpose of meditation repeatedly. One can also chant a sacred syllable / mantra, or visualize the form of some divine aspect of the Supreme Reality, in what-ever one would like to. One can investigate in a hundred ways and meditate in a thousand ways, but the core aim here is the purification of the mind. If you miss this, you miss all.
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