आज का श्लोक,
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अध्याय 3, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच :
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥
--
(ज्यायसी चेत् कर्मणः ते मता बुद्धिः जनार्दन ।
तत् किम् कर्मणि घोरे माम् नियोजयसि केशव ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया :
हे जनार्दन (श्रीकृष्ण) यदि आप कर्म की अपेक्षा बुद्धि को श्रेष्ठ मानते हैं, तो मुझको हे केशव (श्रीकृष्ण) ! इस घोर कर्म में क्यों संलग्न कर रहे हैं?
--
टिप्पणी :
अर्जुन ने बुद्धि और ज्ञान के भेद पर ध्यान नहीं दिया इसलिए इस विषय में वे संशयग्रस्त हैं । इसलिए इस अध्याय के अगले श्लोक 2 में जब वे ’बुद्धि’ शब्द का प्रयोग करते हुए प्रश्न पूछते हैं तो भगवान् श्रीकृष्ण (इस अध्याय के तीसरे श्लोक में) अर्जुन के प्रश्न की त्रुटि का निवारण करते हुए ’बुद्धि’ के स्थान पर ’ज्ञान’ शब्द का प्रयोग करते हैं और स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान (साँख्य-ज्ञान) तथा कर्म में विरोध नहीं है, इसके अगले अध्याय 5 के श्लोक 4 में पुनः स्पष्ट करते हैं, और कहते हैं कि निष्काम कर्म करते हुए, कर्मयोग में इस प्रकार से दृढता से अवस्थित मनुष्य तथा ज्ञानयोग अर्थात् साँख्य-ज्ञान में दृढता से अवस्थित दोनों मनुष्यों को एक ही फल प्राप्त होता है । यह ध्यान देने योग्य है कि ’बुद्धि’ से अर्जुन का तात्पर्य है मन की संकल्प-विकल्प तथा निर्णय करने की क्षमता, जबकि भगवान् श्रीकृष्ण का ’ज्ञान’ से आशय है ’साँख्य-ज्ञान’।
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अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
--
(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
--
Chapter 3, śloka 1,
jyāyasī cetkarmaṇaste
matā buddhirjanārdana |
tatkiṃ karmaṇi ghore māṃ
niyojayasi keśava ||
--
(jyāyasī cet karmaṇaḥ te
matā buddhiḥ janārdana |
tat kim karmaṇi ghore mām
niyojayasi keśava ||)
--
Meaning :
arjuna said :
O janārdana (śrīkṛṣṇa)! If You say that intellect (buddhi) is superior to action (karma), O keśava (śrīkṛṣṇa) ! Why do you urge me engaging in this action (karma), horrible?
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अध्याय 3, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच :
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥
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(ज्यायसी चेत् कर्मणः ते मता बुद्धिः जनार्दन ।
तत् किम् कर्मणि घोरे माम् नियोजयसि केशव ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न किया :
हे जनार्दन (श्रीकृष्ण) यदि आप कर्म की अपेक्षा बुद्धि को श्रेष्ठ मानते हैं, तो मुझको हे केशव (श्रीकृष्ण) ! इस घोर कर्म में क्यों संलग्न कर रहे हैं?
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टिप्पणी :
अर्जुन ने बुद्धि और ज्ञान के भेद पर ध्यान नहीं दिया इसलिए इस विषय में वे संशयग्रस्त हैं । इसलिए इस अध्याय के अगले श्लोक 2 में जब वे ’बुद्धि’ शब्द का प्रयोग करते हुए प्रश्न पूछते हैं तो भगवान् श्रीकृष्ण (इस अध्याय के तीसरे श्लोक में) अर्जुन के प्रश्न की त्रुटि का निवारण करते हुए ’बुद्धि’ के स्थान पर ’ज्ञान’ शब्द का प्रयोग करते हैं और स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान (साँख्य-ज्ञान) तथा कर्म में विरोध नहीं है, इसके अगले अध्याय 5 के श्लोक 4 में पुनः स्पष्ट करते हैं, और कहते हैं कि निष्काम कर्म करते हुए, कर्मयोग में इस प्रकार से दृढता से अवस्थित मनुष्य तथा ज्ञानयोग अर्थात् साँख्य-ज्ञान में दृढता से अवस्थित दोनों मनुष्यों को एक ही फल प्राप्त होता है । यह ध्यान देने योग्य है कि ’बुद्धि’ से अर्जुन का तात्पर्य है मन की संकल्प-विकल्प तथा निर्णय करने की क्षमता, जबकि भगवान् श्रीकृष्ण का ’ज्ञान’ से आशय है ’साँख्य-ज्ञान’।
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अध्याय 5, श्लोक 1,
अर्जुन उवाच -
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
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(सन्न्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि ।
यत्-श्रेयः एतयोः एकं तत् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्न्यास (त्याग) की बात करते हैं, किन्तु फिर साथ ही योग की भी प्रशंसा कर रहे हैं । इन दोनों में से कौन सा एक दूसरे की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है, इस बारे में मुझसे सुनिश्चित रूप से कहें ।
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Chapter 3, śloka 1,
jyāyasī cetkarmaṇaste
matā buddhirjanārdana |
tatkiṃ karmaṇi ghore māṃ
niyojayasi keśava ||
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(jyāyasī cet karmaṇaḥ te
matā buddhiḥ janārdana |
tat kim karmaṇi ghore mām
niyojayasi keśava ||)
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Meaning :
arjuna said :
O janārdana (śrīkṛṣṇa)! If You say that intellect (buddhi) is superior to action (karma), O keśava (śrīkṛṣṇa) ! Why do you urge me engaging in this action (karma), horrible?
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