Wednesday, September 24, 2014

आज का श्लोक, ’रमन्ति’ / ’ramanti’

आज का श्लोक, ’रमन्ति’ / ’ramanti’
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’रमन्ति’ / ’ramanti’ - निमग्न होते हैं, प्रसन्न रहते हैं,

अध्याय 10, श्लोक 9,

मच्चित्ता मद्गतप्राणाः बोधयन्तं परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
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(मच्चित्ताः मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च माम् नित्यम् तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥)
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भावार्थ :
मुझ (परमेश्वर) में जिनका चित्त रमा हुआ है, मुझ (परमेश्वर) में जिनके प्राण हैं, परस्पर एक दूसरे को मेरा (परमेश्वर का) बोध प्रदान करते हुए, मुझ नित्यस्वरूप (परमेश्वर) की महिमा कहते-सुनते हुए वे नित्य आत्म-सन्तुष्ट तथा प्रसन्न रहते हैं ।    
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टिप्पणी :
साँख्य के आधार पर ’ईश्वर’ को द्वैत-अद्वैत की अपनी अपनी भावना, मान्यता और आग्रह के अनुसार किसी भी रूप में ग्रहण किया जा सकता है । यहाँ तक कि ईश्वर का नाम लिए बिना भी उसकी सत्ता के संबंध में विचार और अनुसंधान किया जा सकता है । एक ओर गीता में वर्णित विभिन्न श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अपने-आपको परमेश्वर कहते प्रतीत होते हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपने आपको उससे अभिन्न भी कहते हैं, किन्तु अनेक स्थानों पर परमेश्वर का उल्लेख अन्य पुरुषवाची सर्वनाम ’वह’ के रूप में, विशेष रूप से अध्याय 18 के श्लोक 61 तथा श्लोक 62 में, भी करते हैं ।
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’रमन्ति’ / ’ramanti’  - elate,

Chapter 10, śloka 9,

maccittā madgataprāṇāḥ
bodhayantaṃ parasparam |
kathayantaśca māṃ nityaṃ
tuṣyanti ca ramanti ca ||
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(maccittāḥ madgataprāṇāḥ
bodhayantaḥ parasparam |
kathayantaśca mām nityam
tuṣyanti ca ramanti ca ||)
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Meaning :
Having their attention (citta) absorbed in 'ME', having their life-breath (prāṇa) through ME, sharing with one-another the awareness of MY Glory, talking about MY Eternal Reality, they (My devotes) are contented and full of bliss.
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Note :
The 'Me' / 'I' in the words of Lord śrīkṛṣṇa, refers directly to The Supreme Reality (the ’puruṣa’ principle,  in ’sāṅkhya’) and therefore The Supreme Authority (’īśvara’) is that ’puruṣa’ principle only. The Authority that is Manifest and Immanent as the 'self', The Lord of the existence, and The world. The self and world keep appearing and disappearing in the consciousness, which is neither personal or collective nor cosmic, but manifests in these three forms, though beyond them also. On this basis one can interpret the various śloka-s in this text (śrīmadbhagvadgītā) according to one's inclination of mind and there is essentially no contradiction though it may be seen by different intellectuals in so many ways.
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