आज का श्लोक,
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अध्याय 16, श्लोक 10,
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥
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कामम् आश्रित्य दुष्पूरम् दम्भमानमदान्विताः ।
मोहात् गृहीत्वा असद्ग्राहान् प्रवर्तन्ते अशुचिव्रताः ॥
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भावार्थ :
दुष्पूर कामना के आश्रित हुए, दम्भ तथा गर्व, और मद (मूढ-हठ) से युक्त अज्ञान के वशीभूत हुए, मिथ्या सिद्धान्तों को (प्रामाणिक सत्य की भाँति) ग्रहण करते हुए भी स्वयं भ्रष्ट आचरणों में संलग्न रहते हैं तथा संसार में भी उसका प्रचार करते हैं ।
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टिप्पणी :
भगवान् बुद्ध कहते हैं - 'तृष्णा दुष्पूर है, (तन्हा दुप्पूरम्)' । यहाँ तृष्णा कामना की समानार्थी है । वे आसुरी प्रवृत्ति वाले जिनका वर्णन इस अध्याय के श्लोक 7 से श्लोक 18 तक किया गया है, इसी दुष्पूरणीय तृष्णा के वशीभूत होने से, ऐसा आचरण करते हैं ।
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Chapter 16, śloka 10,
kāmamāśritya duṣpūraṃ
dambhamānamadānvitāḥ |
mohādgṛhītvāsadgrāhān-
pravartante:'śucivratāḥ ||
--
kāmam āśritya duṣpūram
dambhamānamadānvitāḥ |
mohāt gṛhītvā asadgrāhān
pravartante aśucivratāḥ ||
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Meaning :
Being slave to unquenchable (duṣpūra) desire (kāma), possessed by false pride (dambha) and ego (māna) associated with conceit (mada) / arrogance. Because of the deluded mind, having accepted and clinging to false notions, prompted by evil resolves, they work for those aims.
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अध्याय 16, श्लोक 10,
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥
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कामम् आश्रित्य दुष्पूरम् दम्भमानमदान्विताः ।
मोहात् गृहीत्वा असद्ग्राहान् प्रवर्तन्ते अशुचिव्रताः ॥
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भावार्थ :
दुष्पूर कामना के आश्रित हुए, दम्भ तथा गर्व, और मद (मूढ-हठ) से युक्त अज्ञान के वशीभूत हुए, मिथ्या सिद्धान्तों को (प्रामाणिक सत्य की भाँति) ग्रहण करते हुए भी स्वयं भ्रष्ट आचरणों में संलग्न रहते हैं तथा संसार में भी उसका प्रचार करते हैं ।
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टिप्पणी :
भगवान् बुद्ध कहते हैं - 'तृष्णा दुष्पूर है, (तन्हा दुप्पूरम्)' । यहाँ तृष्णा कामना की समानार्थी है । वे आसुरी प्रवृत्ति वाले जिनका वर्णन इस अध्याय के श्लोक 7 से श्लोक 18 तक किया गया है, इसी दुष्पूरणीय तृष्णा के वशीभूत होने से, ऐसा आचरण करते हैं ।
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Chapter 16, śloka 10,
kāmamāśritya duṣpūraṃ
dambhamānamadānvitāḥ |
mohādgṛhītvāsadgrāhān-
pravartante:'śucivratāḥ ||
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kāmam āśritya duṣpūram
dambhamānamadānvitāḥ |
mohāt gṛhītvā asadgrāhān
pravartante aśucivratāḥ ||
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Meaning :
Being slave to unquenchable (duṣpūra) desire (kāma), possessed by false pride (dambha) and ego (māna) associated with conceit (mada) / arrogance. Because of the deluded mind, having accepted and clinging to false notions, prompted by evil resolves, they work for those aims.
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