Thursday, September 25, 2014

9/27,

आज का श्लोक,
________________________

अध्याय 9, श्लोक 27,

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
--
(यत् करोषि यत् अश्नासि यत् जुहोषि ददासि यत् ।
यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ॥)
--
भावार्थ :
हे कौन्तेय (अर्जुन)! तुम जो भी कर्म / कार्य करते हो, जो खाते हो, जो हवन (त्याग अथवा यज्ञ) करते हो, जो दान करते हो, जो तप करते हो, उसको मुझे अर्पित कर दो ।
--
टिप्पणी :
कर्म को जब इस दृष्टि से किया जाता है कि वह परमात्मा के लिए किया जाना चाहिए, न कि केवल अपने लिए, जो प्राप्त हुआ है, जो सबके लिए हितकारी हो, न कि केवल अपने या अपने परिवार, समुदाय या राष्ट्र या मनुष्य-मात्र के लिए बल्कि समष्टि अस्तित्व के लिए है, तो ही यह कहा जा सकता है कि हमने उस कर्म को ईश्वर-समर्पित बुद्धि से किया है । हवन का अर्थ है देवताओं के निमित्त अग्नि में द्रव्य आदि का अर्पण, जिन्हें देवताओं के अस्तित्व पर सन्देह है, वे भले ही इसे न करें, और न उनसे ऐसा करने का आग्रह किया जा सकता है । किन्तु हवन या यज्ञ को व्यापक अर्थ में लें तो यह सृष्टि स्वयं एक निरन्तर यज्ञ है, जहाँ पञ्चमहाभूतों के पञ्चीकरण (परस्पर संयोग) से प्रकृति का उन्मेष होता है, फिर ऊर्जा और पदार्थ के संयोग से अर्थात् भौतिक तथा रासायनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ब्रह्म-यज्ञ होता है, जिसे संपन्न करनेवाले चेतन कर्ता (देवता) को ब्रह्मा की उपाधि दी जाती है । स्पष्ट है कि इस यज्ञ का अधिष्ठाता देवता (अध्याय 8 के 2 में वर्णित अधियज्ञ) पुरुषोत्तम परमेश्वर ही है, यज्ञ और कर्म की अनन्यता समझने के लिए अध्याय 3 के श्लोक 8 से श्लोक 30 तक का अवलोकन किया जा सकता है । दान और तप भी यज्ञ के ही विशिष्ट रूप हैं ।
--
   
Chapter 9, śloka 27,

yatkaroṣi yadaśnāsi
yajjuhoṣi dadāsi yat |
yattapasyasi kaunteya
tatkuruṣva madarpaṇam ||
--
(yat karoṣi yat aśnāsi
yat juhoṣi dadāsi yat |
yat tapasyasi kaunteya
tat kuruṣva madarpaṇam ||)
--
Meaning :
Whatever you do, what you eat, what sacrifice you perform by way of ( havana, and yajña, - ritual offerings made into Fire, to invoke and contact heavenly, ethereal, divine spirits that look after the whole existence), or to help earthly beings like trees, animals, birds and as a whole nature in her many forms, what austerities you practice, dedicate all to ME.
--
Note :
Here we note that we either need contemplating about the Cosmic Supreme Being Which, though beyond the grasp of our senses and intellect, and discover / know Him through pure intelligence and devote to Him, that is not our imagination or fancy but a firm conviction about His existence, Or we try to find out the purport of 'ME' in all its various aspects. If we are earnest, it is not difficult to have a glipse of Him or of The Reality, usually we fail to see and keep on doubting or discussing about the existence of.
2. To understand that yajña is verily karma only, śloka-s  8 onward 9, 10, ... of Chapter 3 are helpful.
--    

No comments:

Post a Comment