Thursday, September 11, 2014

आज का श्लोक, ’रिपुः’ / ’ripuḥ’

आज का श्लोक, ’रिपुः’ / ’ripuḥ’
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’रिपुः’ / ’ripuḥ’ - शत्रु,

अध्याय 6, श्लोक 5,

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
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उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् ।
आत्मा एव हि आत्मनः बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः ॥)
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भावार्थ :
(अपनी) आत्मा का उद्धार, (अपनी) आत्मा की सहायता से, - अर्थात् स्वयं ही करना चाहिए, (अपनी) आत्मा का अधःपतन न होने दे, क्योंकि (अपनी) आत्मा ही आत्मा की बन्धु (हितैषी) है, तथा (अपनी) आत्मा ही आत्मा की शत्रु ।
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टिप्पणी :
तात्पर्य यह कि मनुष्य को स्वयं ही अपने वास्तविक कल्याण के लिए यत्न करना चाहिए ।
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’रिपुः’ / ’ripuḥ’  - enemy,

Chapter 6, śloka 5,

uddharedātmanātmānaṃ
nātmānamavasādayet |
ātmaiva hyātmano bandhu-
rātmaiva ripurātmanaḥ ||
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uddharet ātmanā ātmānam
na ātmānam avasādayet |
ātmā eva hi ātmanaḥ bandhuḥ
ātmā eva ripuḥ ātmanaḥ ||)
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Meaning :
1. Helping oneself by self-help, one should emancipate / liberate oneself, one should not let it fall, because the self alone is the friend, and the self alone is the enemy.
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2. One should strive to attain Self / liberation with the help of his own self, - mind, intellect, wisdom  and efforts, and let not the Self befall and go destroyed. For one's own self is his friend and also the enemy according to the way he treats with the self.
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