आज का श्लोक, ’लब्ध्वा’ / ’labdhvā’
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’लब्ध्वा’ / ’labdhvā’ - प्राप्त कर, पाकर,
अध्याय 4, श्लोक 39,
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
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(श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानम् लब्ध्वा पराम् शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
(परमात्मा को) जानने की उत्कट जिज्ञासा जिसे होती है, और श्रद्धा से युक्त ऐसे मनुष्य को जिसकी इन्द्रियाँ उसके नियंत्रण में हैं, ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त तत्काल ही वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 22,
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
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(यम् लब्ध्वा च अपरम् लाभम् मन्यते न अधिकम् ततः ।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते ॥)
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भावार्थ :
जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य अनुभव करता है कि इससे बढ़कर दूसरा कोई वास्तविक लाभ नहीं हो सकता, और जिसमें अवस्थित हो जाने पर वह बड़े से बड़े दुःख से भी अप्रभावित रहता है, ...
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टिप्पणी :
मनुष्य को चाहिए कि ऐसी वस्तु (आत्म) को जाने, ...श्लोक 23 देखें ।
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अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
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(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
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भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
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’लब्ध्वा’ / ’labdhvā’ - प्राप्त कर, पाकर,
अध्याय 4, श्लोक 39,
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
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(श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानम् लब्ध्वा पराम् शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
(परमात्मा को) जानने की उत्कट जिज्ञासा जिसे होती है, और श्रद्धा से युक्त ऐसे मनुष्य को जिसकी इन्द्रियाँ उसके नियंत्रण में हैं, ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त तत्काल ही वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 22,
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
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(यम् लब्ध्वा च अपरम् लाभम् मन्यते न अधिकम् ततः ।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते ॥)
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भावार्थ :
जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य अनुभव करता है कि इससे बढ़कर दूसरा कोई वास्तविक लाभ नहीं हो सकता, और जिसमें अवस्थित हो जाने पर वह बड़े से बड़े दुःख से भी अप्रभावित रहता है, ...
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टिप्पणी :
मनुष्य को चाहिए कि ऐसी वस्तु (आत्म) को जाने, ...श्लोक 23 देखें ।
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अध्याय 6, श्लोक 23,
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
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(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
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भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
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’लब्ध्वा’ / ’labdhvā’ - having attained,
Chapter 4, shloka 39,
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śraddhāvām̐llabhate jñānaṃ
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñānaṃ labdhvā parāṃ
śāntimacireṇādhigacchati ||
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(śraddhāvān labhate jñānam
tatparaḥ saṃyatendriyaḥ |
jñāmam labdhvā parām śāntim
acireṇa adhigacchati ||)
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Meaning : An earnest and eager seeker endowed with the trust (in Supreme / brahman / / 'Self,') and who has control over the senses, acquires the wisdom, and as soon as he gains wisdom, the peace supreme follows in the instant.
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Chapter 6, śloka 22,
yaṃ labdhvā cāparaṃ lābhaṃ
manyate nādhikaṃ tataḥ |
yasminsthito na duḥkhena
guruṇāpi vicālyate ||
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(yam labdhvā ca aparam lābham
manyate na adhikam tataḥ |
yasmin sthito na duḥkhena
guruṇā api vicālyate ||)
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Meaning :
(One should know such a thing, ....)*
Having acquired which, one realizes that in comparison to this, there is no other achievement higher, and staying where-in, one is not shaken even in the greatest sorrow,
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Note :
*This śloka 22 serves as the ground for the next śloka 23.
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Chapter 6, śloka 23,
taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
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(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
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Meaning :
Knowwhat is named 'yoga', is that which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
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(One should know such a thing, .... / This should be carefully understood with conviction ...)*
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