कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ...!
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अध्याय 4 श्लोक 18,
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
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(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥)
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भावार्थ :
जो कर्म में अकर्म को तथा इसी प्रकार अकर्म में कर्म को देखता है, केवल वही मनुष्यों में अन्यों की तुलना में बुद्धिमान मनुष्य है, वही योग से युक्त और कृतकृत्य है ।
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श्रीमद्भग्वद्गीता को बचपन से पढ़ता रहा हूँ । नए पुराने कुछ आचार्यों विद्वानों की व्याख्याएँ भी पढ़ीं । किन्तु मुझे हमेशा से लगता रहा कि किसी ग्रन्थ को उसकी मूल भाषा में पढ़ने से जो (तात्पर्य) समझ में आता है, वह उसके अनुवाद या व्याख्याओं के अध्ययन से शायद ही समझा जा सकता हो । और संस्कृत के ग्रन्थों के पढ़ने का सबसे अच्छा एक तरीका यही है कि उनका उनके मूल-स्वरूप में ’पाठ’ किया जाए । शायद शुरु में यह ’रटना’ जान पड़े, लेकिन ’रटने’ का मतलब है आप बाध्यतावश यह कार्य कर रहे हैं । लेकिन यदि आप खेल-खेल में इसे करते रहें, तो जल्दी ही इससे जुड़ाव होने लगता है । और इस जुड़ाव को पैदा होने, पनपने में एक दो नहीं, बीस पच्चीस वर्ष या और अधिक समय भी लग सकता है । और फिर अचानक लगने लगता है कि इसे पढ़ना न सिर्फ़ अपना, बल्कि संसार के भी कल्याण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण एक कार्य है । क्योंकि तब आप और संसार दो पृथक् सत्ताएँ नहीं होते । शायद इसे ही आत्म-ज्ञान भी कह सकते हैं ।
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एक दृष्टि से यह अध्ययन एक ’कर्म’ है, वहीं यह ’अकर्म’ भी है । जैसे रोज सवेरा होता है, शाम होती है, या कहें सुबह और शाम के होने से हम ’रोज’ नामक वस्तु / समय को परिभाषित कर लेते हैं । ’समय’ जो इस रूप में दृश्य भी है और अदृश्य भी ! और सुबह और शाम का होना सूरज के उगने और डूबने से ही तो होता है ! हम सूरज पर उगने और डूबने का इल्ज़ाम कितने जल्दी लगा देते हैं ! फिर हम कह सकते हैं कि ठीक है, धरती के सूरज के चारों ओर चक्कर काटने से सूरज उगता या डूबता दिखलाई देता है ।
लेकिन क्या धरती इरादतन सूरज का चक्कर काटती होगी ? अभी तो हमें यह भी पक्का नहीं कि क्या धरती का कोई ऐसा दिल-दिमाग होता है या नहीं, जो इरादा कर सके । फिर हम कहते हैं कि यह तो प्रकृति (और विज्ञान) के नियमों से संचालित होता है । इसमें दो बातें स्पष्ट हैं । ’प्रकृति’ इस शब्द को कहने से हमें धरती, आकाश, सूरज या ऐसी किसी वस्तु का प्रमाण तो नहीं मिल जाता जिसे हम ’प्रकृति’ कह रहे हैं । दूसरी बात विज्ञान के नियमों के बारे में ! क्या विज्ञान के नियम उस ’समय’ (और ’स्थान’) की परिभाषा के आधार पर ही नहीं तय किए जाते जिसकी अपनी ही विश्वसनीयता अभी प्रमाणित नहीं हो सकी है?
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फिर भी समय और स्थान,”प्रकृति’ का दृश्य रूप है, ऐसा अनुमान लगाना शायद गलत न होगा । और इस ’प्रकृति’ को ’जाननेवाला’ भी एक तत्व इस ’प्रकृति’ के अस्तित्व को स्वीकार या अस्वीकार करने से पहले भी स्वतः प्रमाणित है ही । जैसे यदि हम कर्म / कार्य को स्थान और समय के आधार पर बाँटकर न देखें तो इसे परिभाषित तक नहीं कर सकते, वैसे ही यदि हम इस कर्म / प्रकृति को ’जाननेवाले’ तत्व को भी समय और स्थान के आधार पर न बाँटें, तो क्या इस तत्व को परिभाषित किया जा सकता है ? किन्तु क्या इससे यह सिद्ध हो जाता है कि उनका अस्तित्व नहीं है? इन सबका समष्टि अस्तित्व तो स्वप्रमाणित तथ्य / सत्य है । क्या इस समष्टि अस्तित्व को हम ’कर्म’ / ’प्रकृति’ / ’चेतना’ या ईश्वर कह सकते हैं ? क्या इनके अतिरिक्त इनसे भिन्न इस आयोजन का कोई ’कर्ता’ उनसे अलग है? क्या वही इस सारे आयोजन का / की सूत्रधार नहीं है? क्या वह कुछ करता है? क्या कभी कुछ होता है? यदि कभी कुछ होता या किया नहीं जाता तो कर्म का क्या प्रमाण? तो क्या कर्म और अकर्म एक ही सत्ता के दो पक्ष नहीं हुए?
कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ...!
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अध्याय 4 श्लोक 18,
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
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(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥)
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भावार्थ :
जो कर्म में अकर्म को तथा इसी प्रकार अकर्म में कर्म को देखता है, केवल वही मनुष्यों में अन्यों की तुलना में बुद्धिमान मनुष्य है, वही योग से युक्त और कृतकृत्य है ।
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श्रीमद्भग्वद्गीता को बचपन से पढ़ता रहा हूँ । नए पुराने कुछ आचार्यों विद्वानों की व्याख्याएँ भी पढ़ीं । किन्तु मुझे हमेशा से लगता रहा कि किसी ग्रन्थ को उसकी मूल भाषा में पढ़ने से जो (तात्पर्य) समझ में आता है, वह उसके अनुवाद या व्याख्याओं के अध्ययन से शायद ही समझा जा सकता हो । और संस्कृत के ग्रन्थों के पढ़ने का सबसे अच्छा एक तरीका यही है कि उनका उनके मूल-स्वरूप में ’पाठ’ किया जाए । शायद शुरु में यह ’रटना’ जान पड़े, लेकिन ’रटने’ का मतलब है आप बाध्यतावश यह कार्य कर रहे हैं । लेकिन यदि आप खेल-खेल में इसे करते रहें, तो जल्दी ही इससे जुड़ाव होने लगता है । और इस जुड़ाव को पैदा होने, पनपने में एक दो नहीं, बीस पच्चीस वर्ष या और अधिक समय भी लग सकता है । और फिर अचानक लगने लगता है कि इसे पढ़ना न सिर्फ़ अपना, बल्कि संसार के भी कल्याण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण एक कार्य है । क्योंकि तब आप और संसार दो पृथक् सत्ताएँ नहीं होते । शायद इसे ही आत्म-ज्ञान भी कह सकते हैं ।
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एक दृष्टि से यह अध्ययन एक ’कर्म’ है, वहीं यह ’अकर्म’ भी है । जैसे रोज सवेरा होता है, शाम होती है, या कहें सुबह और शाम के होने से हम ’रोज’ नामक वस्तु / समय को परिभाषित कर लेते हैं । ’समय’ जो इस रूप में दृश्य भी है और अदृश्य भी ! और सुबह और शाम का होना सूरज के उगने और डूबने से ही तो होता है ! हम सूरज पर उगने और डूबने का इल्ज़ाम कितने जल्दी लगा देते हैं ! फिर हम कह सकते हैं कि ठीक है, धरती के सूरज के चारों ओर चक्कर काटने से सूरज उगता या डूबता दिखलाई देता है ।
लेकिन क्या धरती इरादतन सूरज का चक्कर काटती होगी ? अभी तो हमें यह भी पक्का नहीं कि क्या धरती का कोई ऐसा दिल-दिमाग होता है या नहीं, जो इरादा कर सके । फिर हम कहते हैं कि यह तो प्रकृति (और विज्ञान) के नियमों से संचालित होता है । इसमें दो बातें स्पष्ट हैं । ’प्रकृति’ इस शब्द को कहने से हमें धरती, आकाश, सूरज या ऐसी किसी वस्तु का प्रमाण तो नहीं मिल जाता जिसे हम ’प्रकृति’ कह रहे हैं । दूसरी बात विज्ञान के नियमों के बारे में ! क्या विज्ञान के नियम उस ’समय’ (और ’स्थान’) की परिभाषा के आधार पर ही नहीं तय किए जाते जिसकी अपनी ही विश्वसनीयता अभी प्रमाणित नहीं हो सकी है?
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फिर भी समय और स्थान,”प्रकृति’ का दृश्य रूप है, ऐसा अनुमान लगाना शायद गलत न होगा । और इस ’प्रकृति’ को ’जाननेवाला’ भी एक तत्व इस ’प्रकृति’ के अस्तित्व को स्वीकार या अस्वीकार करने से पहले भी स्वतः प्रमाणित है ही । जैसे यदि हम कर्म / कार्य को स्थान और समय के आधार पर बाँटकर न देखें तो इसे परिभाषित तक नहीं कर सकते, वैसे ही यदि हम इस कर्म / प्रकृति को ’जाननेवाले’ तत्व को भी समय और स्थान के आधार पर न बाँटें, तो क्या इस तत्व को परिभाषित किया जा सकता है ? किन्तु क्या इससे यह सिद्ध हो जाता है कि उनका अस्तित्व नहीं है? इन सबका समष्टि अस्तित्व तो स्वप्रमाणित तथ्य / सत्य है । क्या इस समष्टि अस्तित्व को हम ’कर्म’ / ’प्रकृति’ / ’चेतना’ या ईश्वर कह सकते हैं ? क्या इनके अतिरिक्त इनसे भिन्न इस आयोजन का कोई ’कर्ता’ उनसे अलग है? क्या वही इस सारे आयोजन का / की सूत्रधार नहीं है? क्या वह कुछ करता है? क्या कभी कुछ होता है? यदि कभी कुछ होता या किया नहीं जाता तो कर्म का क्या प्रमाण? तो क्या कर्म और अकर्म एक ही सत्ता के दो पक्ष नहीं हुए?
कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ...!
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