Tuesday, September 2, 2014

आज का श्लोक, ’विकर्मणः’ / ’vikarmaṇaḥ’

आज का श्लोक,
’विकर्मणः’ / ’vikarmaṇaḥ’
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’विकर्मणः’ / ’vikarmaṇaḥ’ - विकर्म की,

अध्याय 4, श्लोक 17,

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
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(कर्मणः हि अपि बोद्धव्यम् बोद्धव्यम् च विकर्मणः
अकर्मणः च बोद्धव्यम् गहना कर्मणः गतिः ॥)
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भावार्थ :
कर्म (का स्वरूप) क्या है, यह समझ लिया जाना जितना महत्वपूर्ण है, विकर्म (का स्वरूप) क्या है, इसे भी समझ लिया जाना उतना ही महत्वपूर्ण है । और इनके साथ ही, अकर्म (का स्वरूप) क्या है, इसे भी समझ लिया जाना उतना ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि कर्म की गति गहन (दुर्बोध, समझने में कठिन) है ।
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टिप्पणी :
1. विकर्म अर्थात् विशिष्ट प्रकार का कर्म, जो बन्धन या मोक्ष के लिए कारण होता है । इस प्रकार के दो और शब्द हैं ’अकर्मण्य’ तथा ’नैष्कर्म्य’ । ’अकर्म’ का अर्थ है विहित, कर्तव्य रूपी कर्म से प्रमादवश पलायन करना या आलस्य । इस ग्रन्थ के इसी अध्याय के बहुत प्रसिद्ध श्लोक (अध्याय2, 47) में अर्जुन से भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
’ ...मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।’
अध्याय 2, श्लोक 47,

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
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(कर्मणि एव अधिकारः ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुः भूः मा ते सङ्गः अस्तु अकर्मणि ॥)
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भावार्थ : कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है (अर्थात् अपने विवेक से अपने सामर्थ्य और कर्म के औचित्य को समझकर उसमें संलग्न होने का संकल्प होना), किन्तु उसके फल के संबंध में कभी नहीं (क्योंकि फल अनेक कारणों का सम्मिलित परिणाम होता है, जिनमें से अपना संकल्प केवल एक ही कारण होता है ) । इसलिए किसी (सुनिश्चित, इच्छित और विशिष्ट) कर्मफल के मिलने का आग्रह मत रखो, और वहीं दूसरी ओर, अकर्म (कर्म से पलायन करने) के प्रति भी  तुम्हारा आग्रह न हो । अर्थात् कर्म ’न करने’ के प्रति भी तुम्हारा आग्रह / आसक्ति नहीं होना चाहिए ।
नैष्कर्म्य अर्थात् ’कर्तृत्व की भावना से मुक्ति’ के बारे में अध्याय 3, श्लोक 4 में कहा गया है कि न तो कर्म से पलायन करने मात्र से मनुष्य को नैष्कर्म्य (कर्म से मुक्ति) रूपी सिद्धि प्राप्त हो जाती है  और न कर्म को त्याग देने से ही ।
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अध्याय 3, श्लोक 4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥
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(न कर्मणाम् अनारम्भात्-नैष्कर्म्यम् पुरुषः अश्नुते ।
न च सन्न्यसनात् एव सिद्धिं समधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
कर्मों का प्रारम्भ ही न करने (के निश्चय) से मनुष्य को निष्कर्म की अवस्था* नहीं प्राप्त हो जाती है । और न ही, कर्मों का संकल्पपूर्वक त्याग कर देने से उसे (कर्तृत्व की भावना के नाशरूपी साँख्य-निष्ठा रूपी) सिद्धि * मिल जाती है ।
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*टिप्पणी :
मनुष्य जब तक अपने स्वरूप से अनभिज्ञ होता है तब तक वह अपने आप के स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम से ग्रस्त रहता है । और तब यह आवश्यक होता है कि जिस वस्तु को ’मैं’ कहा जाता है, और जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, उन दोनों के स्वरूप के अन्तर को और उनके यथार्थ तत्व को ठीक से खोजकर जान और समझ लिया जाए । जिसे ’मैं’ कहा जाता है वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक अथवा अनेक की कोटि से विलक्षण स्वरूप की) चेतन-सत्ता है, जबकि जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक और अनेक में प्रतीत होनेवाली कोई) जड वस्तु । चेतन ही जड को प्रमाणित और प्रकाशित करता है । जब इस प्रकार से ’मैं’ को उसके शुद्ध स्वरूप में ठीक से समझ लिया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नित्य ’अकर्ता’ है । और यह स्पष्ट हो जाने के बाद उसके लिए ’कर्म’ करना असंभव हो जाता है । इसे समझ लेनेवाला मनुष्य व्यावहारिक रूप से भले ही ’मैं’ शब्द का प्रचलित अर्थ में प्रयोग करे (या न करे) उसके कर्म तथा अपने आपके स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम अवश्य ही समाप्त हो जाते हैं । किन्तु तब वह अपने आपके कोई विशिष्ट देह या व्यक्ति-विशेष की तरह होने की मान्यता से भी मुक्त हो जाता है । ऐसी साँख्य-निष्ठा को प्राप्त हुआ मनुष्य ’सिद्ध’ कहा जाता है ।
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इसी प्रकार से अध्याय 18 के श्लोक 49 में बतलाया गया है कि नैष्कर्म्यसिद्धि किसे प्राप्त होती है । विकर्म का अर्थ है वह कर्म जिसे ’कर्तृत्व-बुद्धि’ सहित किया जाता है । किन्तु जब ’कर्ता’ के स्वरूप पर विचार किया जाता है तो मनुष्य को पता चलता है कि कर्तृत्व / कर्तापन एक विचार मात्र है । या, यह कि गुणों के ही परस्पर व्यवहार से ’कर्म’ का आभासी अस्तित्व है ।
2. ’कर्म’ ’अकर्म’ तथा ’विकर्म’ इन तीन शब्दों के प्रयोग के द्वारा यहाँ कर्म के स्वरूप की ओर संकेत किया गया है । एक ही कर्म भिन्न भिन्न परिस्थितियों में कर्म, विकर्म या अकर्म का रूप ग्रहण कर लेता है । इसलिए इस श्लोक में कहा गया है कि अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्य को कर्म के इन तीन प्रकारों को जान लेना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन / रहस्यमय है ।
अध्याय 18 में इस बारे में बहुत विस्तार से बतलाया गया है ।
अध्याय 18, श्लोक 49,
 
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥
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(असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
आसक्ति-बुद्धि से सर्वत्र और सर्वथा रहित, मन-बुद्धि तथा इन्द्रियों को वश में रखनेवाला, स्पृहारहित ऐसा मनुष्य साँख्ययोग के व्यवहार से परम नैष्कर्म्य-सिद्धि को प्राप्त होता है ।
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यहाँ संकेतरूप में इस प्रकार से इंगित है :
अध्याय 4 श्लोक 18,
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
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(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥)
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भावार्थ :
जो कर्म में अकर्म को तथा इसी प्रकार अकर्म में कर्म को देखता है, केवल वही मनुष्यों में अन्यों की तुलना में बुद्धिमान मनुष्य है, वही योग से युक्त और कृतकृत्य है ।
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टिप्पणी :
चूँकि विभिन्न कर्म ’होने’ या ’किए’ जाने के बाद तथा पहले भी अस्तित्व में नहीं होते, अर्थात् विचार के द्वारा ही उन्हें सत्य की भाँति ग्रहण कर लिया जाता है, इसलिए इस ’होने’ या ’किए जाने’ के समय (?) भी उनका अस्तित्व संदिग्ध ही है । यह तो मन की कल्पना ही है जो ’कर्म’ के होने या ’न होने’ को महत्व देती है । इसलिए कर्म में उनका ’न होना’ अर्थात् ’अकर्म’ निहित ही है । इसी प्रकार जब वे नहीं होते तब भी ’संभावना’ के रूप में बीज रूप में तो होते ही हैं, नहीं तो भविष्य (?) या अतीत (?) में भी वे कैसे हो सकते थे / हैं ?
श्री निसर्गदत्त महाराज के ’अहं ब्रह्मास्मि’ के एक अध्याय (33) का शीर्षक है :
’प्रत्येक वस्तु स्व-हैतुक होती है ।’ / 'EVERYTHING HAPPENS BY ITSELF.'
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3.इस श्लोक 17 के सन्दर्भ हेतु निम्नलिखित श्लोक उपयोगी हैं :
अध्याय 4, श्लोक 16,

किं कर्म किं अकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥
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(किम् कर्म किम् अकर्म इति कवयः अपि अत्र मोहिताः ।
तत् ते कर्म प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसे अशुभात् ॥)
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भावार्थ :
कर्म (का स्वरूप) क्या है, और अकर्म (का स्वरूप) क्या है इस विषय में कवि अर्थात् अत्यन्त श्रेष्ठ कल्पनाशक्ति से युक्त भी भ्रमितबुद्धि होते हैं । (मैं,) तुम्हारे लिए उस कर्म (के स्वरूप) को स्पष्ट करूँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ (अवाँछित) से मुक्त हो जाओगे ।
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’विकर्मणः’ / ’vikarmaṇaḥ’  - of an action of an extra-ordinary kind (because of the way and the attitude it is performed with),

Chapter 4, śloka 17,

karmaṇo hyapi boddhavyaṃ
boddhavyaṃ ca vikarmaṇaḥ |
akarmaṇaśca boddhavyaṃ
gahanā karmaṇo gatiḥ ||
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(karmaṇaḥ hi api boddhavyam
boddhavyam ca vikarmaṇaḥ |
akarmaṇaḥ ca boddhavyam
gahanā karmaṇaḥ gatiḥ ||)
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Meaning :
To understand what is meant by action (karma) / nature of an action, is as much important as to understand what is meant by action-exceptional (vikarma) / nature of action extra-ordinary. And along-with, to understand what is meant by non-action is also equally important.
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Note :
This tells us that avoiding or escape from action is not a way to freedom from action. One should dutifully devote to all the action that is obligatory to one.
Chapter 2, śloka 47,

karmaṇyevādhikāraste
mā phaleṣu kadācana |
mā karmaphalaheturbhūr-
mā te saṅgo:'stvakarmaṇi ||
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(karmaṇi eva adhikāraḥ te
māphaleṣu kadācana |
mā karmaphalahetuḥ bhūḥ
mā te saṅgaḥ astu akarmaṇi ||)
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Meaning :
It is your right to accept and do the work that has come to your lot according to your strength and the need of the moment, but you never have the control over the fruits that come as the result of such work.(Because your effort is only one of those several factors, that bring out the result.) Don't become the instrument with an intention of causing a specific desired result, and at the same time, don't try to run away also from the work itself.
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To grasp the sense of this 17, the following will be an important point of reference :
Chapter 4, śloka 16,

kiṃ karma kiṃ akarmeti
kavayo:'pyatra mohitāḥ |
tatte karma pravakṣyāmi
yajjñātvā mokṣyase:'śubhāt ||
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(kim karma kim akarma iti
kavayaḥ api atra mohitāḥ |
tat te karma pravakṣyāmi
yat jñātvā mokṣyase aśubhāt ||)
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Meaning :
Even the men of great inspirations (kavi), those endowed with the great imaginative power, are bemused about what is the nature of action (karma) and what is that of non-action (अकर्म). (I) shall hence elucidate before you the same, knowing which you shall be free from the inauspicious.  
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Chapter 4, śloka 18,
karmaṇyakarma yaḥ paśye-
dakarmaṇi ca karma yaḥ |
sa buddhimānmanuṣyeṣu
sa yuktaḥ kṛtsnakarmakṛt ||
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(karmaṇi akarma yaḥ paśyet
akarmaṇi ca karma yaḥ |
saḥ buddhimān manuṣyeṣu
saḥ yuktaḥ kṛtsnakarmakṛt ||)
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Meaning :
One who sees the no-action (akarma) in action (karma),  and action (karma) in no-action (akarma), is wise among the men. He has the wisdom of yoga and the one who has transcended all action (kṛtsnakarmakṛt).
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naiṣkarmya (transcending all action and the fruits their-of) is explained in these 2 ślokas.
Chapter 3, śloka 4,
na karmaṇāmanārambhā-
nnaiṣkarmyaṃ puruṣo:'śnute |
na ca sannyasanādeva
siddhiṃ samadhigacchati ||
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(na karmaṇām anārambhāt
naiṣkarmyam puruṣaḥ aśnute |
na ca sannyasanāt eva
siddhiṃ samadhigacchati ||)
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Meaning :
Merely by (deciding to) not starting the actions (karma), one is not freed of the karma, and merely running away from (performing) them, one does not attain the conviction that the consciousness, by the very nature itself is ever free from all action.
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Chapter 18,  śloka 49,  transcending all action and the fruits their-of is explained in these 2 ślokas.
 
asaktabuddhiḥ sarvatra
jitātmā vigataspṛhaḥ |
naiṣkarmyasiddhiṃ paramāṃ
sannyāsenādhigacchati ||
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(asaktabuddhiḥ sarvatra
jitātmā vigataspṛhaḥ |
naiṣkarmyasiddhiṃ paramāṃ
sannyāsenādhigacchati ||)
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Meaning :
With no attachment nor craving for anything, a man with control over his body, senses and mind, by means of the right understanding and practice of 'sāṃkhyaysoga', attains the great state of freedom from all action (naiṣkarmyasiddhiḥ)
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Note :
"naiṣkarmyasiddhiḥ" means,
Getting rid of the false idea (illusion), the primal-ignorance:
 '' I do various actions, and enjoy / suffer / experience the consequences their-of."
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