Wednesday, July 16, 2014

आज का श्लोक, ’सततम्’ / ’satatam’

आज का श्लोक,
’सततम्’ / ’satatam’ 
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’सततम्’ / ’satatam’  - सदैव, निरन्तर, अबाधरूप से,

अध्याय 3, श्लोक 19,

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरूषः ॥
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(तस्मात् असक्तः सततम् कार्यम् कर्म समाचर ।
असक्तः हि आचरन् कर्म परम् आप्नोति पूरुषः ॥)
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भावार्थ :
इसलिए कर्म से (और उसके फल से) आसक्ति न रखते हुए, सतत कर्म अर्थात् अपने को प्राप्त हुआ कार्य पूर्ण करो । आसक्तिरहित होकर किए जानेवाले कार्य से ही मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 10,
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योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
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(योगी युञ्जीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः ॥)
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भावार्थ :
योग-साधन करनेवाला को अपने मन-इन्द्रियों आदि को संयत रखते हुए आशारहित, संग्रहरहित, अकेले, एकान्त में स्थित होकर, आत्मा को निरन्तर परमात्मा (के ध्यान) में संलग्न रखे ।
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टिप्पणी :
1 श्री रमण-गीता अध्याय 2, श्लोक 2, में कहा गया है, -

"हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रं
ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति ।
हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा
पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम् ॥"
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हृदय-कुहर (अर्थात् विशुद्ध चेतना जिसमें से ’मैं’-वृत्ति का उद्भव विकास और विलय होता है, ) में केवल ब्रह्म ही अवस्थित है । वही, ’अहम्-अहम्’ अर्थात् अपना उद्घोष करता हुआ प्राणिमात्र को प्रत्यक्ष ही आत्मवत् (अपने अस्तित्व की भाँति) प्रतीत होता है । इसलिए जिज्ञासु को चाहिए कि मन के माध्यम से, स्वयं के उस हृदय में प्रविष्ट होकर ’आत्मा’ के स्वरूप पर चिन्तन करता हुआ, या केवल उस् ’अहम्-अहम्’ में निमज्जित होकर, या फिर प्राणों के नियमन द्वारा अपने उस ब्रह्मस्वरूप से एकात्म हो ।
उपरोक्त को ही श्री रमण महर्षि रचित प्रस्तुत श्लोक में सूक्ष्मता और सरलता से स्पष्ट किया गया है, अपनी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक योग्यता, पात्रता और सामर्थ्य तथा अभिरुचि और निष्ठा के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने लिए अनुकूल समुचित तरीका स्वयं ही निर्धारित कर सकता है ।
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2 उपरोक्त श्लोक में साधना की अन्य विधियों को संक्षेप से ’पवनचलनरोधात्’ से इंगित किया गया है, जिसमें भक्ति की सभी धाराएँ समाहित हो जाती हैं ।
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3 ’चिन्वता मज्जता’ वा में पुनः हम स्पष्ट रूप से ’आत्मानुसन्धान’ और ’मैं’ में निमग्न होने के स्वरों की गूँज को सहज ही सुन सकते हैं । जहाँ एक ओर इससे हमें भगवान् श्री आचार्य शंकर रचित अनेक भक्ति तथा वेदान्तपरक ग्रन्थों का स्मरण होता है, वहीं सद्गुरु श्री निसर्गदत्त महाराज के ’अहं ब्रह्मास्मि’ में उल्लिखित शब्द भी अनायास याद आ जाते हैं ।
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अध्याय 8, श्लोक 14,

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
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(अनन्यचेताः सततम् यः माम् स्मरति नित्यशः ।
तस्य अहम् सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)!  अपने-आपके मुझसे अनन्य होने की बुद्धि रखते हुए जो मुझे सदा स्मरण रखता है, उस नित्य मुझमें संलग्नचित्त के लिए मैं सदा ही अत्यन्त सुलभ्य हूँ ।
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अध्याय 9, श्लोक 14,

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥
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(सततम् कीर्तयन्तः माम् यतन्तः च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तः माम् भक्त्या नित्ययुक्ताः उपासते ॥)
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भावार्थ : मेरे नाम और यश का वर्णन करते हुए, दृढनिश्चय से मेरी प्राप्ति के लिए यत्नरत, अत्यन्त भक्ति से मुझे प्रणाम करते हुए  मुझमें नित्य अनन्यचित्त, निरन्तर ही मेरी उपासना किया करते हैं ।
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अध्याय 12, श्लोक 14,

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः
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(सन्तुष्टः सततम् योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मयि-अर्पित-मनोबुद्धिः यः मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥)
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भावार्थ :
मेरा वह भक्त, जो मुझमें ही परम सन्तोष पाता है, मुझमें ही जिसकी मन-बुद्धि सतत अर्पित है, मन-बुद्धि आदि सहित जिसकी सम्पूर्ण आत्मा अपने वश में है, ऐसा दृढनिश्चय योगी मुझे प्रिय है ।
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अध्याय 17, श्लोक 24,

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रिया ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥
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(तस्मात् ओम् इति उदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रिया ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततम् ब्रह्मवादिनाम् ॥)
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भावार्थ :
(पिछले श्लोक 23 के क्रम में आगे, ...)
अतएव, वेदमन्त्रों का उच्चारण करनेवाले श्रेष्ट पुरुषों के द्वारा शास्त्रविधान में निर्दिष्ट यज्ञ, दान, तप आदि कार्यों का प्रारम्भ ’ओम्’ इस पद का उच्चारण करते हुए किया जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 57,

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
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(चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्तः सततम् भव ॥)
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भावार्थ :
निष्ठा और भावना सहित सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मेरे परायण (मेरे में संलग्न) होकर, सांख्य-बुद्धि से प्राप्त विवेक द्वारा, मुझ पर ही आश्रित रहकर, निरन्तर मेरे ही प्रति लगावयुक्त चित्तवाले हो जाओ ।
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’सततम्’ / ’satatam’ - always, without break, continuously,

Chapter 3, śloka 19,

tasmādasaktaḥ satataṃ 
kāryaṃ karma samācara |
asakto hyācarankarma
paramāpnoti pūrūṣaḥ ||
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(tasmāt asaktaḥ satatam 
kāryam karma samācara |
asaktaḥ hi ācaran karma
param āpnoti pūruṣaḥ ||)
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Meaning :
Therefore perform your allotted work, the duty given to you, with due attention and without attachment to the action ( and the result). With such attitude, doing one's work without attachment leads one to the Supreme.
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Chapter 6, śloka 10,

yogī yuñjīta satatam-
ātmānaṃ rahasi sthitaḥ |
ekākī yatacittātmā
nirāśīraparigrahaḥ ||
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(yogī yuñjīta satatam 
ātmānam rahasi sthitaḥ |
ekākī yatacittātmā
nirāśīḥ aparigrahaḥ ||)
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Meaning :
Practicing yoga means, one should contemplate on the (nature of) Self without a break, while keeping away from all else, living alone, free of all thought of world and its contents.
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Notes :
1 The gist of this is; One should practice in a way that suits best his temperament  and orientation of mind, as is instructed by Bhagavan Sri Ramana Maharshi in the following shloka :

"hṛdayakuharamadhye kevalaṃ brahmamātraṃ
hyahamahamiti sākṣādātmarūpeṇa bhāti |
hṛdi viśa manasā svaṃ cinvatā majjatā vā
pavanacalanarodhādātmaniṣṭho bhava tvam॥"

(Sri Ramana Gita, Chapter 2, shloka 2)
[Meaning :"In the Heart's cavity, the sole Brahman as an ever-persisting "I" shines direct in the form of the Self.
Into the Heart enter thyself, with mind in search or in deeper plunge. Or by restraint of life-movement be firmly poised in the Self".]
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2 'chinvatA majjatA vA' point out the way, how one either 'dive deep' into the so evident 'consciousness' associated with our very being to 'inquire' about the nature of the Self, or just 'stay' in it as it is.
3 This again bears a close resemblance with Sri Shankara Achrya's various texts on the 'bhakti' and vedanta, and also remind us of "I AM That" of Shri Nisargadatta Maharaj.
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Chapter 8, śloka 14,

ananyacetāḥ satataṃ yo
māṃ smarati nityaśaḥ |
tasyāhaṃ sulabhaḥ pārtha
nityayuktasya yoginaḥ ||
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(ananyacetāḥ satatam yaḥ
mām smarati nityaśaḥ |
tasya aham sulabhaḥ pārtha
nityayuktasya yoginaḥ ||)
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Meaning :
One who with undivided love for ME, with whole-heart remembers / thinks of ME always, O pārtha (arjuna) , I AM also easily available to such a devotee with his dedicated mind to ME, always.
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Chapter 9, śloka 14,

satataṃ kīrtayanto māṃ
yatantaśca dṛḍhavratāḥ |
namasyantaśca māṃ bhaktyā
nityayuktā upāsate ||
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(satatam kīrtayantaḥ mām
yatantaḥ ca dṛḍhavratāḥ |
namasyantaḥ mām bhaktyā
nityayuktāḥ upāsate ||)
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Meaning :
Singing MY Name and glory, making great efforts for attaining ME, With firm dedication and resolve devoted to ME, They (MY devotees) worship and adore ME, single-minded always.
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Chapter 12, śloka 14,

santuṣṭaḥ satataṃ yogī
yatātmā dṛḍhaniścayaḥ |
mayyarpitamanobuddhir-
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ
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(santuṣṭaḥ satataṃ yogī
yatātmā dṛḍhaniścayaḥ |
mayi-arpita-manobuddhiḥ
yaḥ madbhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
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Meaning :
Always contented, abiding in Me moment to moment, and has firm resolve of practicing yoga. Having dedicated mind and intellect to Me,  such a devotee is beloved to Me.
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Chapter 17, śloka 24,

tasmādomityudāhṛtya
yajñadānatapaḥkriyā |
pravartante vidhānoktāḥ
satataṃ brahmavādinām ||
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(tasmāt om iti udāhṛtya
yajñadānatapaḥkriyā |
pravartante vidhānoktāḥ
satataṃ brahmavādinām ||)
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Meaning :
(In continuation to the śloka 23, ...)
Therefore, The noble men who follow the Veda, begin their auspicious actions / rituals like sacrifice (yajña), charity (dāna), penance / austerities (tapa),  by pronouncing the sacred term (om̐) .
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Chapter 18, śloka 57,

cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogamupāśritya
maccittaḥ satataṃ bhava ||
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(cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogam upāśritya
maccittaḥ satatam bhava ||)
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Meaning :
Having surrendered all your actions to Me, having devoted to Me, following Me, by means of the wisdom of sāṃkhya,(sāṃkhya-buddhi), constantly thinking of Me, Be absorbed in Me,
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