Monday, July 7, 2014

आज का श्लोक, ’समधिगच्छति’ / ’samadhigacchati’

आज का श्लोक,
’समधिगच्छति’ /  ’samadhigacchati’  
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’समधिगच्छति’ /  ’samadhigacchati’ - की उपलब्धि कर लेता है,

अध्याय 3, श्लोक 4,

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति
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(न कर्मणाम् अनारम्भात्-नैष्कर्म्यम् पुरुषः अश्नुते ।
न च सन्न्यसनात् एव सिद्धिं समधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
कर्मों का प्रारम्भ ही न करने (के निश्चय) से मनुष्य को निष्कर्म की अवस्था* नहीं प्राप्त हो जाती है । और न ही, कर्मों का संकल्पपूर्वक त्याग कर देने से उसे (कर्तृत्व की भावना के नाशरूपी साँख्य-निष्ठा रूपी) सिद्धि * मिल जाती है ।
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*टिप्पणी :
मनुष्य जब तक अपने स्वरूप से अनभिज्ञ होता है तब तक वह अपने आप के स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम से ग्रस्त रहता है । और तब यह आवश्यक होता है कि जिस वस्तु को ’मैं’ कहा जाता है, और जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, उन दोनों के स्वरूप के अन्तर को और उनके यथार्थ तत्व को ठीक से खोजकर जान और समझ लिया जाए । जिसे ’मैं’ कहा जाता है वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक अथवा अनेक की कोटि से विलक्षण स्वरूप की) चेतन-सत्ता है, जबकि जिसे ’मेरा’ कहा जाता है, वह निर्विवाद और अकाट्य रूप से (एक और अनेक में प्रतीत होनेवाली कोई) जड वस्तु । चेतन ही जड को प्रमाणित और प्रकाशित करता है । जब इस प्रकार से ’मैं’ को उसके शुद्ध स्वरूप में ठीक से समझ लिया जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नित्य ’अकर्ता’ है । और यह स्पष्ट हो जाने के बाद उसके लिए ’कर्म’ करना असंभव हो जाता है । इसे समझ लेनेवाला मनुष्य व्यावहारिक रूप से भले ही ’मैं’ शब्द का प्रचलित अर्थ में प्रयोग करे (या न करे) उसके कर्म तथा अपने आपके स्वतन्त्र कर्ता होने के भ्रम अवश्य ही समाप्त हो जाते हैं । किन्तु तब वह अपने आपके कोई विशिष्ट देह या व्यक्ति-विशेष की तरह होने की मान्यता से भी मुक्त हो जाता है । ऐसी साँख्य-निष्ठा को प्राप्त हुआ मनुष्य ’सिद्ध’ कहा जाता है ।
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’समधिगच्छति’ /  ’samadhigacchati’   - attains,

Chapter 3, śloka 4,

na karmaṇāmanārambhā-
nnaiṣkarmyaṃ puruṣo:'śnute |
na ca sannyasanādeva
siddhiṃ samadhigacchati ||
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(na karmaṇām anārambhāt
naiṣkarmyam puruṣaḥ aśnute |
na ca sannyasanāt eva
siddhiṃ samadhigacchati ||)
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Meaning :
Merely by (deciding to) not starting the actions (karma), one is not freed of the karma, and merely running away from (performing) them, one does not attain the conviction that the consciousness, by the very nature itself is ever free from all action.
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