Monday, July 7, 2014

आज का श्लोक, ’समदुःखसुखम्’ / ’samaduḥkhasukham’

आज का श्लोक,
’समदुःखसुखम्’ / ’samaduḥkhasukham’ 
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’समदुःखसुखम्’ / ’samaduḥkhasukham’ - सुख दुख को एक समान समझनेवाले को,

अध्याय 2, श्लोक 15,

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
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(यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम् पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखम् धीरम् सः अमृतत्वाय कल्पते ॥)
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भावार्थ :
हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जिस मनुष्य को (इन्द्रियाँ और विषयों से उनका संयोग) ये दोनों  व्याकुल नहीं कर पाते, जो सुख और दुःख का सामना समान धैर्य के साथ कर लेता है, वह अवश्य ही अमृतत्व का भागी होता है ।
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’समदुःखसुखम्’ / ’samaduḥkhasukham’ - treating the pleasures and the pains alike,

Chapter 2, श्लोक 15,

yaṃ hi na vyathayantyete
puruṣaṃ puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukhaṃ dhīraṃ
so:'mṛtatvāya kalpate ||
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(yam hi na vyathayanti ete
puruṣam puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukham dhīram
saḥ amṛtatvāya kalpate ||)
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Meaning :
O noble among the men ( arjuna) ! One who is not tormented by these two (the contact of the senses with their specific objects), who is unmoved when coming across pleasures and pains caused by them, sure wins the state of immortality / liberation.
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