आज का श्लोक, ’विहाय’ / ’vihāya’
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’विहाय’ / ’vihāya’ - छोड़कर, त्यागकर,
अध्याय 2, श्लोक 22,
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
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(वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरः अपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ॥)
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भावार्थ :
जैसे पुराने वस्त्रों को त्यागकर मनुष्य दूसरे (नये) वस्त्रों को धारण कर लेता है, उसी प्रकार देही (देह से संयुक्त चेतन-सत्ता, जीव) भी (क्रमशः अनेक जन्मों से गुजरते हुए) विभिन्न शरीरों को त्यागता और अन्य दूसरे शरीरों को धारण / ग्रहण किया करता है ।
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विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
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(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
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’विहाय’ / ’vihāya’ - छोड़कर, त्यागकर,
अध्याय 2, श्लोक 22,
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
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(वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरः अपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ॥)
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भावार्थ :
जैसे पुराने वस्त्रों को त्यागकर मनुष्य दूसरे (नये) वस्त्रों को धारण कर लेता है, उसी प्रकार देही (देह से संयुक्त चेतन-सत्ता, जीव) भी (क्रमशः अनेक जन्मों से गुजरते हुए) विभिन्न शरीरों को त्यागता और अन्य दूसरे शरीरों को धारण / ग्रहण किया करता है ।
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अध्याय 2, श्लोक 71,
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
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(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
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’विहाय’ / ’vihāya’ -leaving, giving-up, putting aside,
Chapter 2, shloka 22,
vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naro:'parāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇā-
nyanyāni saṃyāti navāni dehī ||
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(vāsāṃsi jīrṇāni yathā vihāya
navāni gṛhṇāti naraḥ aparāṇi |
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇāni
anyāni saṃyāti navāni dehī ||)
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Meaning :
As a person puts off old, worn-out cloths and puts on the other new ones, so also the consciousness (self) associated with the physical form (body) discards the old worn-out bodies and takes on newer bodies.
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Chapter 2, śloka 71,
vihāya kāmānyaḥ sarvān-
pumāṃścarati niḥspṛhaḥ |
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sa śāntimadhigacchati ||
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(vihāya kāmān yaḥ sarvān
pumān carati niḥspṛhaḥ |
nirmamaḥ nirahaṅkāraḥ
saḥ śāntim adhigacchati ||)
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Meaning :
One who has forsaken all desire, and lives peacefully contented thus, having no attachment nor ego, abides ever in bliss supreme.
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