Saturday, August 9, 2014

आज का श्लोक, ’वृजिनम्’ / ’vṛjinam’

आज का श्लोक,  ’वृजिनम्’ / ’vṛjinam’
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’वृजिनम्’ / ’vṛjinam’ - पाप (के समुद्र) को,

अध्याय 4, श्लोक 36,

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
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(अपि चेत् असि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वम् ज्ञानप्लवेन एव वृजिनम् सन्तरिष्यसि ॥)
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भावार्थ :
( इस अध्याय के पूर्व श्लोकों 34 तथा 35 में जैसा कहा गया है, तदनुसार उन तत्वदर्शियों के उपदेश को समझने और उस पर आचरण करने से, तुम्हें जो प्रज्ञा प्राप्त होगी ... तो यदि)
तुम पाप करनेवालों से अन्य सब से भी अधिक, सर्वाधिक पाप करनेवाले भी हो, तो भी उस प्रज्ञारूपी नौका से तुम पापरूपी सम्पूर्ण समुद्र को लाँघकर पार हो जाओगे ।
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’वृजिनम्’ / ’vṛjinam’ - (the ocean of) sins,
 
Chapter 4, śloka 36,

api cedasi pāpebhyaḥ 
sarvebhyaḥ pāpakṛttamaḥ |
sarvaṃ jñānaplavenaiva 
vṛjinaṃ santariṣyasi ||
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(api cet asi pāpebhyaḥ 
sarvebhyaḥ pāpakṛttamaḥ |
sarvam jñānaplavena eva 
vṛjinam santariṣyasi ||)
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Meaning : (As said in the last 2 śloka of this chapter 4, one should go to wise and listen and follow their advice / instructions where-by one gains the wisdom supreme, and 'KNOWING THAT', one is never again deluded by ignorance, THAT wisdom that enables one to see the same SELF in all beings as well as in Me / one-self also. And then,...)
Even if you think, you are the greatest sinner among all those who have sinned, this boat of wisdom will take you across, over the ocean of all evils and sins. 
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